गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस एक पूर्ण उपदेशात्मक महाकाव्य भी है, जिसमें जगह जगह पर मनुष्यों के लिए मर्यादाओं की लकीरें खींची गयी हैं. किष्किन्धा काण्ड में जब श्रीराम ने वानरराज बाली को बाण से मारा तो मोक्ष से पूर्व उसने रामजी से पूछा, “आपने छिप कर व्याध की तरह मुझे मारा है. मेरा क्या अपराध है?” तब राम जी उसको उसके छोटे भाई सुग्रीव की पत्नी छीन लेने के अपराध को याद दिलाते हुए कहते हैं :
“अनुज वधू, भगनी, सुतनारी; सुब सठ कन्या सम ये चारी.”
पण्डित देवनारायण शर्मा रामकथा मर्मज्ञ थे और अपनी इस प्रतिभा से अपने सगे-साथियों एवँ स्वजनों को हर मौके पर दोहा-चौपाइयां सुनाते रहते थे. लेकिन ६० वर्ष की उम्र में मानसिक रूप से इतने विचलित हो गए कि सीधे रेलवे लाइन पर जाकर ट्रेन से कट गए. उनके बदन के चीथड़े चीथड़े हो गए जिनको समेटना भी बहुत मुश्किल हो गया था.
लोगों को इस दुर्धटना पर एकाएक विश्वास नहीं हुआ क्योंकि देवनारायण खुद कहा करते थे कि “आत्महत्या से बड़ा पाप कुछ नहीं होता है. आत्महत्या एक क्षणिक आवेग होता है जो लोक परलोक दोनों में अधोगति प्रदान करता है. आत्महंता व्यक्ति पीछे परिवार के लिए बहुत दारुण दु:ख व अपमान भरे दिन छोड़ जाता है, जिन्हें कई पीढ़ियों तक इसका दंश झेलना पड़ता है.” ये सब जानते हुए भी एक धर्मज्ञ मन-मष्तिष्क वाले प्रौढ़ व्यक्ति को इस तरह विदा होना आश्चर्य व दुःख की बात थी.
उनके पारिवारिक जीवन का विवरण यह है कि उनकी दो पत्नियाँ थी. पहली शादी के कई वर्षों तक कोई औलाद नहीं हुई तो अपनी पत्नी की सलाह पर उसकी ही भतीजी को छोटी पत्नी का दर्जा देकर वंशबेल आगे बढ़ाने के लिए विवाह कर लिया. सँयोग ऐसा हुआ कि विवाह के एक साल बाद पहले बड़ी पत्नी को जुडवां--एक बेटा एक बेटी, तथा कुछ दिनों बाद छोटी को भी एक बेटा पैदा हो गया. इस प्रकार घर में दोगुनी-तिगुनी किलकारियां एक साथ गूँज उठी.
दोनों पत्नियां चूँकि बुआ-भतीजी थी, आपस में बहुत सौहार्द व प्रेम था. घर में धन-वैभव की कमी भी नहीं थी. उनके पास तीस एकड़ जमीन थी. बटाईदार कमाकर देते थे. शर्मा जी अपने पंचायती कामों में इधर उधर डोलते रहते थे. वे समाज के मान्यवरों में एक थे. समय का पहिया किसी के बिना घुमाए अपने आप घूमता रहता है. बड़ी का बेटा ललित नारायण शरीर से बहुत कमजोर व दुबला पतला था. उसे तगड़ा करने के लिए सब तरह के इन्तजाम किये गए, पर उसका इकहरा बदन जैसा था वैसा ही रहा. किसी ने मजाक में कह दिया कि ‘पण्डित जी इसकी शादी कर दो, अपने आप मोटा हो जाएगा.” उनके मन में बात ऐसी जमी कि उन्नीसवें वर्ष में उसके लिए एक देखने में सुन्दर, लम्बी-चौड़ी दुल्हन ले आये.
विवाह, जो कि दो व्यक्तियों के बीच प्यार का बंधन होना चाहिए, हमारे समाज ने उसे पारिवारिक व सामाजिक बंधन बना दिया है.
थोड़े दिनों तक तो घर में खूब गहमा गहमी रही, पर धीरे धीरे घर में अशांति पैदा होने लगी.
“अनुज वधू, भगनी, सुतनारी; सुब सठ कन्या सम ये चारी.”
पण्डित देवनारायण शर्मा रामकथा मर्मज्ञ थे और अपनी इस प्रतिभा से अपने सगे-साथियों एवँ स्वजनों को हर मौके पर दोहा-चौपाइयां सुनाते रहते थे. लेकिन ६० वर्ष की उम्र में मानसिक रूप से इतने विचलित हो गए कि सीधे रेलवे लाइन पर जाकर ट्रेन से कट गए. उनके बदन के चीथड़े चीथड़े हो गए जिनको समेटना भी बहुत मुश्किल हो गया था.
लोगों को इस दुर्धटना पर एकाएक विश्वास नहीं हुआ क्योंकि देवनारायण खुद कहा करते थे कि “आत्महत्या से बड़ा पाप कुछ नहीं होता है. आत्महत्या एक क्षणिक आवेग होता है जो लोक परलोक दोनों में अधोगति प्रदान करता है. आत्महंता व्यक्ति पीछे परिवार के लिए बहुत दारुण दु:ख व अपमान भरे दिन छोड़ जाता है, जिन्हें कई पीढ़ियों तक इसका दंश झेलना पड़ता है.” ये सब जानते हुए भी एक धर्मज्ञ मन-मष्तिष्क वाले प्रौढ़ व्यक्ति को इस तरह विदा होना आश्चर्य व दुःख की बात थी.
उनके पारिवारिक जीवन का विवरण यह है कि उनकी दो पत्नियाँ थी. पहली शादी के कई वर्षों तक कोई औलाद नहीं हुई तो अपनी पत्नी की सलाह पर उसकी ही भतीजी को छोटी पत्नी का दर्जा देकर वंशबेल आगे बढ़ाने के लिए विवाह कर लिया. सँयोग ऐसा हुआ कि विवाह के एक साल बाद पहले बड़ी पत्नी को जुडवां--एक बेटा एक बेटी, तथा कुछ दिनों बाद छोटी को भी एक बेटा पैदा हो गया. इस प्रकार घर में दोगुनी-तिगुनी किलकारियां एक साथ गूँज उठी.
दोनों पत्नियां चूँकि बुआ-भतीजी थी, आपस में बहुत सौहार्द व प्रेम था. घर में धन-वैभव की कमी भी नहीं थी. उनके पास तीस एकड़ जमीन थी. बटाईदार कमाकर देते थे. शर्मा जी अपने पंचायती कामों में इधर उधर डोलते रहते थे. वे समाज के मान्यवरों में एक थे. समय का पहिया किसी के बिना घुमाए अपने आप घूमता रहता है. बड़ी का बेटा ललित नारायण शरीर से बहुत कमजोर व दुबला पतला था. उसे तगड़ा करने के लिए सब तरह के इन्तजाम किये गए, पर उसका इकहरा बदन जैसा था वैसा ही रहा. किसी ने मजाक में कह दिया कि ‘पण्डित जी इसकी शादी कर दो, अपने आप मोटा हो जाएगा.” उनके मन में बात ऐसी जमी कि उन्नीसवें वर्ष में उसके लिए एक देखने में सुन्दर, लम्बी-चौड़ी दुल्हन ले आये.
विवाह, जो कि दो व्यक्तियों के बीच प्यार का बंधन होना चाहिए, हमारे समाज ने उसे पारिवारिक व सामाजिक बंधन बना दिया है.
देखने में ही ललित नारायण और उसकी पत्नी पुनीता का जोड़ा बेमेल सा लगता था, पर इसमें कोई नई बात नहीं थी. गाँव में आज भी ‘छोटा दूल्हा बड़ा सुहाग’ कहा जाता है.
थोड़े दिनों तक तो घर में खूब गहमा गहमी रही, पर धीरे धीरे घर में अशांति पैदा होने लगी.
एक तो ललित मोहन पूरी तरह अपने पिता पर आश्रित था. वह अपनी पत्नी की खुशी के लिए कुछ नहीं कर सकता था और अठारह वर्षीय सुनीता भी बंधन में रहने की आदी नहीं थी.
सुनीता को उसके ससुराल वालों ने मुंहफट और बदतमीज करार दिया. उसके बाहर वाले लोगों से बात करने पर उसके चरित्र पर संदेह किया जाने लगा. गाँव के लड़के भाभी-भाभी कहते हुए उसके आस पास घूमा करते थे.
घर की महिलाओं को पुरुषों की संपत्ति मानने वाले पण्डित जी को यह सब असहनीय था. उन्हें लगने लगा कि वे अपने कमजोर तन-मन वाले बेटे के लिए गलत किस्म की बहू ले आये थे.
बहुत दिनों तक तो वे उसकी कारगुजारियों को सहते रहे, पर एक दिन देवनारायण शर्मा ने ठान ली कि उसका कुछ ईलाज किया जाना जरूरी है. संयोग कुछ ऐसा हुआ कि उन्होंने बहू को गाँव के एक लड़के से अकेले में बातें करते हुए देख लिया. उन्होंने आव देखा ना ताव बहू के केश पकड़ कर दो-चार थप्पड़ जड़ दिये.
पुनीता इस अपमान से और भी ज्यादा विद्रोही हो गयी. वह अन्याय सहन करने वाली लड़की नहीं थी. उसने शोर मचा कर लोगों को इकठ्ठा कर लिया और अपने ससुर पर बदगुमानी का इल्जाम लगा दिया. किसी को उसकी बात पर विश्वास तो नहीं हुआ होगा, पर लोग ऐसी बातों को बढ़ा चढ़ा कर फैलाते हैं. इस आक्षेप से देवनारायण शर्मा इतने आहत हुए कि उनकी सारी विद्वता नष्ट हो गयी और अपनी जान दे बैठे. भगवदगीता में भी लिखा है :
क्रोधाध्दवति सम्मोह: सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः
स्मृतभ्रन्शाद बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति !! (अध्या २-६३)
पुनीता इस अपमान से और भी ज्यादा विद्रोही हो गयी. वह अन्याय सहन करने वाली लड़की नहीं थी. उसने शोर मचा कर लोगों को इकठ्ठा कर लिया और अपने ससुर पर बदगुमानी का इल्जाम लगा दिया. किसी को उसकी बात पर विश्वास तो नहीं हुआ होगा, पर लोग ऐसी बातों को बढ़ा चढ़ा कर फैलाते हैं. इस आक्षेप से देवनारायण शर्मा इतने आहत हुए कि उनकी सारी विद्वता नष्ट हो गयी और अपनी जान दे बैठे. भगवदगीता में भी लिखा है :
क्रोधाध्दवति सम्मोह: सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः
स्मृतभ्रन्शाद बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति !! (अध्या २-६३)
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लेखा-जोखा नियति का पूर्वनियोजित और अनोखा है
जवाब देंहटाएंघटना पर कहना 'ऐसा होता वैसा होता' भ्रम व धोखा है
क्रोध आवेंगे में बुद्धिनाश हो जाता है। सच है।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएंआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (06-07-2013) को <a href="http://charchamanch.blogspot.in/ चर्चा मंच <a href=" पर भी होगी!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
A sad happening-is it true?
जवाब देंहटाएंदुखद घटनाक्रम ...
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