बुधवार, 3 जुलाई 2013

हाय पैसा !

अल्मोड़ा जिले के सतराली गाँव के डॉ. चंद्रमणि भट्ट का बचपन गाँव में ही बीता. पिता लोकमणि शास्त्री संस्कृत विद्यायय चलाते थे. गणनाथ हाई स्कूल से मैट्रिक पास होने के बाद चंद्रमणि आगे की पढ़ाई के लिए अपने मामा देवकीनंदन जोशी के पास लखनऊ आ गए. मामाजी यू.पी. के सचिवालय में बतौर क्लर्क नौकरी पर थे.

चंद्रमणि कुशाग्रबुद्धि थे. एम.ए. (इतिहास) करने के बाद बी.टी.(तब बी.एड. व एम.एड. नहीं होता था) करके एक सेंट्रल स्कूल में अध्यापक हो गए. तब देश भर में सेंट्रल स्कूल नए नए खोले जा रहे थे. अध्यापक रहते हुए उन्होंने "कुमायूं के चंद राजाओं के राज-काज" विषय पर शोध करके पी.एचडी. की डिग्री हासिल की.

आपने अपने बचपन में सांप-सीढ़ी का खेल अवश्य खेला होगा. खेला ना सही, अन्य बच्चों को खेलते हुए तो देखा ही होगा. कभी कभी ऐसा संयोग बैठता है कि गोटी छक्का लगाते हुए लम्बी सीढ़ी से चढ़ते हुए सबको पछाड़ देती है और मुकाम पर सबसे पहले पहुँच जाती है. डॉ. भट्ट के जीवन में भी ऐसे ही संजोग आये कि वे जल्दी प्रिंसिपल बने और कुछ वर्षों बाद असिस्टेंट कमिश्नर फिर कमिश्नर बन गए. सेंट्रल स्कूल का कमिश्नर होना उनके लिए बहुत बड़ी बात थी. लालबत्ती वाली गाड़ी के आगे मोटर-बाइक पर वर्दीधारी दो पायलट चलते थे. बड़े ठाठ थे. उनका अध्यवसाय भी था और भाग्य भी प्रबल था. ये भी था कि शादी के बाद उनको लम्बी सीढियां दिलाने में उनके ससुर जी का भी अदृश्य हाथ था. वे तब यू.पी. से राज्य सभा के सदस्य हुआ करते थे.

डॉ. भट्ट की पत्नी कपिला भट्ट एक कॉलेज में प्राध्यापिका थी. बाद में वे प्रिंसिपल भी बनी. उनके एक बेटी और दो बेटे हुए जो कुशाग्रता में माता-पिता से आगे निकले. उनको वातावरण भी मिला और पढ़ने के लिए सर्वश्रेष्ठ स्कूल-कॉलेज भी. बेटी एक एलोपैथी चिकित्सक है, जो अपने पति-परिवार के साथ लन्दन में बस गयी है. एक बेटा भारत सरकार की विदेश सेवा में है, जो कि कई वर्षों से न्यूयोर्क स्थित राष्ट्रसंघ कार्यालय में किसी जिम्मेदार पद पर है. दूसरा बेटा आइ आई टी से पढ़ कर जापान में सेटलाईट सम्बन्धी उपकरण बनाने वाली अंतर्राष्ट्रीय कम्पनी में सीनियर इंजीनियर है. दोनों बेटों ने अपनी पसन्द की विदेशी लड़कियों से विवाह किया है.

सब सुखी और संपन्न हैं. दोनों पति-पत्नी कई बार बच्चों के पास घूम कर आते रहे  हैं. डॉ. भट्ट हर बार कहते थे, जो सुख अपने घर पर है वह कहीं भी भी नहीं है.”

डॉ. भट्ट रिटायरमेंट तक सरकारी आवासों में रहे, पर उसी बीच उन्होंने दिल्ली के लक्ष्मी नगर में एक आलीशान दुमंजिली कोठी बनवा ली थी. रिटायर होने के तुरन्त बाद वे उसमें रहने लगे.

डॉ. भट्ट रूपये-पैसों का मैनेजमेंट भी खूब जानते थे. धन-लिप्सा तो उनको शुरू से ही थी इसलिए अनुत्पादक खर्चा बिलकुल नहीं करते थे. दूसरे शब्दों में, वे बेहद कंजूसी बरतते थे. उन्होंने कोई खुला व्यापारिक व्यवसाय तो किया नहीं, नौकरीपेशा आदमी की वैतनिक आमदनी व खर्चों के संतुलन में कितनी बचत हो पाती होगी, कुछ कहा नहीं जा सकता है, पर उन्होंने धीरे धीरे बहुत रुपए व जायदाद जमा कर ली थी. वे दक्षिणी दिल्ली में दो बहुमंजिली इमारतों के मालिक थे जिनमें बीस दो कमरे वाले फ़्लैट हैं. वे किराए पर चलते हैं. गुडगाँव में कई वर्गगज जमीन उनके नाम है. इधर हल्द्वानी के बिठोरिया तथा कुसुम खेड़ा इलाकों में कम से कम आठ जगह प्लाट उनके नाम रजिस्टर्ड हैं. ये सब कैसे कमाया इसकी कैफियत सिर्फ वे ही जानते थे. सतराली की पहाड़ी ऊसर जमीन पर उनके भाई-बिरादरों का कब्जा है जो कि अब उनके किसी उपयोग की नहीं है.

डॉ. भट्ट ने कई नामी कंपनियों में करोड़ों रुपये निवेश किये हुए हैं, पर इतनी दौलत होने के बावजूद वे अपने बैंक में अपना धन बढ़ाने के नए नए उपाय सोचते रहते थे. .

कमिश्नर के ओहदे से रिटायर होते ही उनको महर्षि विद्यालय समूह के डाइरेक्टर पद की जिम्मेदारी मिल गयी. इसी बीच दुर्भाग्य से उनकी पत्नी एक सड़क दुर्घटना की शिकार हो गयी. जिंदगी की एक्सप्रेस रेल एक बार पटरी पर खड़ी हो गयी. बीमार होती तो ईलाज होता, सब साधन उपलब्द्ध थे. क्या नहीं था उनके पास? बहरहाल तीनों बच्चों के परिवार शोक मनाने इकट्ठे हुए. बेटों ने बहुत जिद की कि अब अकेले रहना ठीक नहीं होगा अत: उनके साथ चलें, पर वे नहीं माने क्योंकि उनके धन और जायदाद का साम्राज्य उघड़ा पड़ा था. पत्नी के सारे ड्यूज लेने थे. उन्होंने महर्षि विद्यालय के डाइरेक्टर पद से इस्तीफा दे दिया. विद्यालय से मिलने वाली नौकर और गाड़ी की सुविधा बन्द हो गयी. बेटा-बेटी सब चले गए, उनके लिए एक नेपाली नौकर की व्यवस्था कर गए, पर वह नौकर ज्यादा दिन टिका नहीं इसलिए भोजन के लिए एक होटल से ‘टिफिन डब्बा’ मंगवाया जाने लगा.
दिनचर्या ये थी कि लगभग रोज ही अपने बच्चों से फोन पर बात कर लिया करते थे. शेष समय फ्लैटों के केयर टेकर से वहाँ की व्यवस्था और किराया वसूली के बारे में झकझक तथा अपने कम्प्यूटर पर आमदनी का ब्यौरा डालने और जोड़-घटाने में व्यतीत हो रहा था. एक बार उन्होंने अपनी चल एवँ अचल सम्पति की कुल कीमत जोड़ी तो बीस करोड़ के पार पाया. फिर भी उनको सन्तोष नहीं हो रहा था. सोचते थे, ‘काश मैं अरबपति होता!’

उनकी अपनी प्रकृति कहिये या परिस्थितियाँ, किसी को अपना घनिष्ट मित्र बनाया नहीं. अपने सगे-रिश्तेदारों से भी हमेशा दूरी बनाए रखी और अब ७०+ में वे अकेलापन भोगने को मजबूर थे. जैसा कि बहुत से लोग बुढ़ापे को धार्मिक आस्थाओं व क्रियाकलापों में गुजारते हैं, वे ऐसा भी नहीं करते थे. उनके पड़ोस में रहने वाले मथुरादत्त लोहानी के घर एक दिन पूजा-पाठ आयोजित था. डॉ भट्ट को भी फोन से निमंत्रण मिला. वे गए, थोड़ी देर वहाँ उपस्थित रहे फिर प्रसाद लेकर घर लौट आये. उसके बाद अगले तीन दिनों तक बच्चे लोग हमेशा की तरह फोन करते रहे जो ‘नो रिप्लाई’ जा रहा था. बड़े लड़के ने अपने एक दोस्त को फोन करके तलाशने को कहा और जब वह उनके लक्ष्मी नगर स्थित आवास पर आया तो घर अन्दर से बन्द मिला. शंका होने पर पुलिस बुलाई गयी. दरवाजा तोड़ कर देखा तो डॉ. भट्ट का शव सोफे पर निढाल पड़ा हुआ था. प्रसाद की पुड़िया हाथ में ही थी.

बच्चों को खबर की गयी. उनके पहुँचने तक लाश को बर्फ में रखा गया. इस प्रकार उनका जीवन पैसों के ही भेंट चढ़ गया.
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5 टिप्‍पणियां:

  1. एक आयामी जीवन की यही तो लीला है कर्म गति टारे न टरे ......पैसे की अपनी सीमा है जिसके बाद वह बेकार सिद्ध होता है .नाम और शोहरत की भी .....

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  2. ओह ॥ पैसे का मोह जीवन को सहज नहीं रहने देता ....

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  3. कितना जीवन संसाधन सहेजने में बिताना है, कितना जीने में, यह तो सबको स्वतः ही समझना होगा, आँखें खोलती कहानी।

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  4. सोचनीय, बहुत सुंदर



    जरूर देखिए
    उत्तराखंड त्रासदी पर विशेष मेरे ब्लाग "TV स्टेशन" पर
    जलसमाधि दे दो ऐसे मुख्यमंत्री को
    http://tvstationlive.blogspot.in/2013/07/blog-post_1.html

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  5. पैसे का ऐसा मोह, बना जीवन का दर्दनाक बिछोह।

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