शनिवार, 3 दिसंबर 2011

दुलारी


मेरा नाम विश्वबंधु है. घर में मुझे केवल बन्धु नाम से पुकारा जाता है. मैं सरस्वती विद्या-मंदिर के पांचवीं कक्षा का छात्र हूँ.

मेरी बूढ़ी दादी ने पापा से बहुत पीछे पड़ कर घर के अहाते में एक नींबू का पौधा लगवाया. पापा कहीं नर्सरी से खरीद कर इसे लाये थे. ये पौधा खाद-पानी मिलने से बहुत जल्दी बड़ा हो गया पर इसकी बढ़त एक झाड़ी के रूप में हो गयी. दादी इसकी छंटाई भी नहीं करने देती है. पिछ्ले दो सालों से इसमें फल भी आने लगे हैं. दादी बहुत खुश होती है क्योंकि उसको नींबू के स्वास्थ्यकारक गुणों की पूरी जानकारी है उनका कहना है कि नींबू के पेड़ में वैद्य धनवंतरी का निवास होता है. लेकिन मेरी खुशी इस बात से है कि इस झाड़ी में एक बहुत छोटी चिड़िया हमिंग बर्ड (जिसका नाम मैंने दुलारी रखा है) ने पिछली बरसात में छोटा सा गोल घोंसला बना कर तीन अंडे दिए थे. थोड़े दिनों के बाद उसमें से तीन प्यारे-प्यारे कंचे के समान बच्चे निकले और जल्दी बड़े होकर उड़ने लगे थे.

मैं उन दिनों हर वक्त चिड़िया के बच्चों के ही सपने देखा करता था. स्कूल में भी मैंने मैडम की डांट खाई थी क्योंकि मैं अपनी कापी में चिड़िया के बच्चों की खुली चोंच, पतली लाल गर्दन व गुलगुले पेट के चित्र बनाते रहता था. स्कूल से दौड़ कर घर पहुँचने के बाद मैं सबसे पहले चिड़िया के पोथीलों की कुशल लेता था.

नींबू की झाड़ी में बहुत नुकीले कांटे थे इसलिए घोंसले के लिए ये बहुत ही सुरक्षित जगह थी. चिड़िया की इस बुद्धिमानी पर मुझे बड़ा ताज्जुब होता है. एक बिल्ली को मैंने कई बार वहाँ चक्कर काटते हुए व ललचाई नजरों से घोंसले की तरफ आँखें गड़ाये हुए देखा था. मैं उसे भगा देता था. बिल्ली की उपस्थिति की खबर खुद चिड़िया की आर्त श्वर वाली चहचहाहट से मालूम पड़ जाती थी.

चिड़िया के बच्चों को देखकर मुझे ना जाने ऐसा क्यों लगने लगा जैसे हमारे घर छोटे भाई-बहिन आ गए हों. वे हल्के से पंख निकलने के बाद प्यारे-प्यारे फूल जैसे गुदगुदे थे. चिड़िया को झाड़ी के आस-पास मेरी उपस्थिति भी अच्छी नहीं लगती थी. उसे डर रहा होगा कि कहीं मैं उसके बच्चों को चुरा ना लूँ. पर मेरे व्यवहार से धीरे-धीरे उसका डर कम होता गया.

एक बार एक बच्चा घोंसले से नीचे जमीन पर आ गिरा. चिड़िया ऊपर नीचे फुदक कर अपनी परेशानी व्यक्त कर रही थी पर मेरे सामने भी बच्चे को वापस घोसले तक पहुंचाना बड़ी समस्या हो गयी. बच्चे को मैंने हाथों में उठा तो लिया लेकिन काँटों की वजह से कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था. मैंने दादी को बताया तो उन्होंने बड़ा आसान तरीका बता कर समस्या का हल कर दिया. रसोई की दाल वाले लंबे डाडू (चमचे) में बच्चे को रख कर सीधे घोंसले में उलट दिया. मुझे दादी की तरकीब बहुत अच्छी लगी. वह बच्चा जरूर जरूरत से ज्यादे चँचल था. कई बार फुदक कर नीचे आ पड़ता था और उसको वापस रखने की कवायद मुझे करनी पड़ती थी. मेरे इस क्रियाकलाप से चिड़िया को मुझ पर अवश्य भरोसा हो गया होगा क्योंकि अब वह मेरी उपस्थिति पर भाग दौड़ नहीं करती थी.

बरसात के बाद अपने बच्चों को लेकर दुलारी गायब हो गयी. घोंसला खाली हो गया. मै जब भी नींबू के पेड़ की तरफ देखता था तो उदास हो जाता था. पर मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा जब इस साल अगस्त में दो अलग अलग घोंसले बनाने की प्रक्रिया नींबू की झाडी में फिर शुरू हो गयी. मेरी दादी ने बताया कि जरूर ये उसी चिड़िया के बच्चे होंगे क्योंकि चिडियाँ अपने जन्मस्थान को नहीं भूलती हैं.

मैंने बिल्ली से बचाव के लिए झाड़ी के नीचे भी अतिरिक्त कांटे लगा दिए हैं. मैं इन्तजार कर रहा हूँ कि दुलारी के नाती-पोते बड़े हों और मैं उनकी सोहबत का आनंद ले सकूं.
                                         *** 

6 टिप्‍पणियां:

  1. मैं इस वृत्तचित्र की छिपी विषय देख सकता हूँ. बहुत अच्छी तरह से लिखा गया विवरण..

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  2. बहुत अच्छी कहानी! हिना और मैं भी एक बार सड़क से चिड़िया का बच्चा उठा कर लाए थे फिर उसे चीनी का पानी पिलाकर स्वस्थ बनाकर बाहर छोड़ दिया.

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  3. सच में पक्षियों का बसेरा भी बड़ा अच्छा लगता है.... प्यारी पोस्ट

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  4. इस कहानी ने दिल को छू लिया...काश जो इन्सान भी इस भाषा को समझ पता. लेकिन नहीं, शायद अब वह नादाँ चिड़िया नहीं रह गया है. वह तो एक नवीन इंसान बन गया है, ज्ञानी नवीन इंसान.

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  5. आप लोगों ने कहानी के मर्म को पहचाना है .धनवाद. ये बाल-मन की उत्कंठा व निश्चल अनुभूति है

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  6. कल 29/11/2012 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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