मंगलवार, 11 दिसंबर 2012

गज़ल - ३

ज्यों चकवा देखा करता है
    हर शाम चांदनी की राहें,
ज्यों बेल-लता ढूंढा करती हैं
    ऊँचे दरख्तों की बाहें,

ऐसे ही हाँ, हम ऐसे ही
    पलकें बिछाये रहते हैं,
वो आयें हमारे पास कभी
    यों आस लगाते रहते हैं.

जब सावन आ के गाता है
    या आम कभी बौराते हों
हर बार दिवाली करते हम
    कि साजन शायद आतें हों.

जब मुंडेर पे कागा कह जाता
    कोई मेहमां आने वाला है
हमें और किसी का ख्याल कहाँ,
    कि दिलवर आने वाला है.

हर रात वो ख़्वाबों में आते हैं
    हर रात वो बातें करते हैं
हम शमा जलाये रहते हैं
    दिन को भी रातें करते हैं.

है ख्वाब में आने का ये आलम
    उनके खुद आने पे क्या होगा?
हम खुशी से मर जाएँगे अगर
    मेरे मेहमां का आलम क्या होगा?
                     ***

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