सोमवार, 3 दिसंबर 2012

झोलाछाप

झोलाछाप शब्द का प्रयोग उन चिकित्सकों के लिए प्रयोग किया जाता है, जो बिना किसी मान्यता प्राप्त डिग्री/डिप्लोमा के ही कार्यरत हैं. अंग्रेजी में इनको ‘क्वैक्स’ कहा जाता है. इन चिकित्सकों को दो प्रकार से देखा जाता है: एक तो यह कि इनको शरीरक्रिया विज्ञान तथा द्रव्यगुण विज्ञान की कोई जानकारी नहीं होती है और ये उन लोगों के जीवन से खिलवाड़ करते हैं जिनको ये पता ही नहीं होता है वह चिकित्सक योग्य है या नहीं. क्योंकि आजादी के ६५ सालों के बाद भी हमारे देश में अशिक्षा और अज्ञानता चारों ओर फ़ैली पड़ी है.

दूसरा यह कि हमारा देश इतना विशाल है जिसकी जनसंख्या सवा अरब के पार जा चुकी है, जिसको सँभालने के लिए योग्यता प्राप्त डॉक्टरों/वैद्यों/हकीमों की संख्या बहुत कम है. अधिकांश योग्य चिकित्सक शहरों में ही अपना ठिकाना बना लेते हैं, वहीं नौकरी या प्राईवेट प्रेक्टिस करते हैं. सरकारों के लाख चाहने पर /आर्थिक प्रलोभन बढ़ाने पर भी वे गाँव-देहात में नहीं जाना चाहते है, जबकि तीन चौथाई आबादी गावों में ही बसती है तथा उन्हें स्वास्थ्य सम्बन्धी निगरानी की अधिक आवश्यकता होती है.

सच तो यह है कि ‘चिकित्सा’ अब कोई सेवा का मिशन नहीं रहा है. यह व्यवसाय बन गया है. व्यवसाय के रूप में भी लूट का जरिया बन गया है. बड़े बड़े डॉक्टरों ने अपनी दुकानें (अस्पताल) खोल ली हैं, जिनमें पहले कंसल्टेंसी के रूप में तगड़ी फीस ली जाती है और फिर स्वयं द्वारा नियोजित लैब/डाईग्नोसिस सेंटर्स में आवश्यक/अनावश्यक टेस्ट करवाकर मरीज को छील लिया जाता है.

देश में दवाओं का यह हाल है कि उनकी लागत व खुदरा कीमत में १००-२०० गुना का फर्क होता है. कई नामी कंपनियां अपने रिटेलर्स को २५ से ५० प्रतिशत तक का कमीशन दिया करती हैं. बिकने वाली दवाओं में भी लिखने वाले डॉक्टरों का कमीशन तय रहता है. इस सब के बावजूद तुर्रा यह है कि दवा असली है या नकली इसकी कोई गारंटी नहीं होती है. एक प्रबुद्ध कैमिस्ट का बयान है कि “दवाओं के असली या नकली होने की पहचान हम खुद ही नहीं कर पाते हैं.”
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यह गंभीर चिंता का विषय है कि सरकारी अस्पतालों को उपलब्ध होने वाली दवाओं में गुणवत्ता और कीमत में कितना घोटाला हो रहा है? इसी सन्दर्भ में उत्तर प्रदेश के कई सी.एम.ओ. मारे गए हैं, अथवा लिप्त पाए गए हैं.
इस परिदृश्य में लाखों झोलाछाप डॉक्टर/वैद्य/हकीम, प्रतिबंधित/शेड्यूल्ड दवाओं-इंजेक्शनों का धड़ल्ले से प्रयोग कर रहे हैं और कमाई कर रहे हैं. इनसे ईलाज कराने में हर आम गरीब आदमी को लगता है कि कन्सल्टिंग फीस तथा डाईग्नोसिस सेंटर का खर्चा बच गया. स्वस्थ होने वाला मरीज बहुत सस्ते में निबटने पर राहत महसूस करता है.

जहाँ तक राहत महसूस करने की बात है एक अध्ययन से यह निष्कर्ष निकाला गया कि ९५% रोगी तो हवा-पानी और अपनी प्रतिरोधात्मक क्षमता से कुछ दिनों में स्वत: ठीक हो जाते हैं, पर लाक्षणिक चिकित्सा से उनको लगता है कि दवा से ठीक हुए हैं. शेष ५ प्रतिशत में से ३ प्रतिशत अवश्य दवाओं का लाभ पाते हैं, बाकी बचे हुए दो प्रतिशत ऐसे होते हैं, जिनको योग्य चिकित्सक व सही डाईग्नोसिस की जरूरत होती है. अगर ये उपलब्द्ध हो गए तो ठीक, अन्यथा मृत्यु तो एक शाश्वत सत्य है, चाहे वह गलत दवाओं के कारण अकाल ही आ गयी हो.

झोलाछाप चिकित्सकों की योग्यता पर सवाल उठाने तथा उनके विरुद्ध कार्यवाही करने की माँग करने वाले मुख्यत: वे योग्यता प्राप्त डॉक्टर या उनके संगठन होते हैं, जिनके आर्थिक हितों पर इनकी वजह से कमी आती है. केन्द्र/प्रदेश सरकारों ने चिकित्साधिकार देने वाली मेडीकल काउंसिलें बना रखी हैं, लेकिन उनकी निगरानी कितनी कारगर होती हैं, उस पर भी अनेक संदेह हैं. जो पंजीकृत कैमिस्ट या वैद्य कई साल पहले गुजर चुके हैं, उनके सर्टीफिकेट आज भी लाइसेंस के रूप में दुकानों पर टांगे हुए मिलेंगे. आदमी कहीं नौकरी कर रहा है और उसका सर्टीफिकेट किराए पर कैमिस्ट को दिया गया है. ड्रग इन्स्पेक्टर/हेल्थ ऑफिसर सबकी रंगदारी तय रहती है. यह हमारे भ्रष्ट तन्त्र की सच्चाई है.

इस पूरे विषय का दूसरा पहलू यह धारणा भी है कि सभी योग्यता प्राप्त या सर्टिफाइड डॉक्टर होशियार होते है. यह बिलकुल गलत है. ३३% अंक लेकर उतीर्ण होने वाले या मुन्ना भाईयों की तरकीब से जो डॉक्टर बने हैं, वे झोलाछाप डॉक्टरों से बदतर होते हैं. झोलाछाप में भी कई श्रेणियाँ हैं: कुछ ट्रेंड/अनट्रेंड कम्पाउन्डर, फार्मसिस्ट, नर्स, या अन्य अस्पताल कर्मी अपने दीर्घकालीन अनुभवों से जो ज्ञान प्राप्त किये रहते हैं, उससे उनके द्वारा किया गया चिकित्सकीय कार्य सस्ता टिकाऊ और सही होता है. ऐसे कई मामले सामने आते हैं, जिनमें आम लोगों का विश्वास बड़े डाक्टरों की अपेक्षा इन पर ज्यादा होता है. अनुभव ऐसी चीज है, जो मात्र पढ़ाई से प्राप्त नहीं किया जा सकता. इसका कोई छोटा रास्ता भी नहीं होता. इसी क्रम में खानदानी वैद्य व हकीम भी आते हैं, जो पीढ़ी दर पीढ़ी इसी विद्या से जुड़े रहते हैं. कुछ समय पहले तक ‘अनुभव के आधार पर’ चिकित्साधिकार के पंजीकरण होते रहे हैं. ऐसे चिकित्सक अपने नाम के आगे R.M.P. लिखने से गुरेज नहीं करते हैं.

ऐतराज की बात यही है कि आयुर्वेद पढ़ा हुआ चिकित्सक यदि एलोपैथिक दवाओं का प्रयोग कराये या एलोपैथिक/होम्योपैथिक वाला अपनी चिकित्सा पद्धति के बजाय दूसरी दवाएं लिखे तो पूरी प्रणाली पर प्रश्न उठने लगते हैं. स्थिति यह भी होती है कि लोग तुरन्त स्वास्थ्य लाभ चाहते हैं, चाहे उनकी दवा में ‘कार्टीज़ोन या स्टीरोइड’ मिला कर दी जा रही हो, जिसके दूरगामी परिणाम घातक होते हैं.

एक समय सरकार ने चीन देश की तर्ज पर गाँवों-कस्बों में इस प्रकार चिकित्सा कार्यव्यापार कर रहे लोगों की लिस्ट बनवाई थी और इरादा था कि सबको चिकित्सा के मूलभूत आधार-सिद्धांतों की ट्रेनिंग दी जाये, पर बाद में इस विषय पर चर्चा बन्द हो गयी है. हल्ला-गुल्ला तभी होता है जब ‘क्वैक्स’ के हाथों से अचानक कोई मर जाता है और समाचार की सुर्खियाँ बन जाता है.

स्वास्थ्य मंत्रालय को इस विषय पर गंभीरता से विचार करना चाहिए.
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5 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल 4/12/12को चर्चा मंच पर राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आपका स्वागत है

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  2. स्वास्थ्य विभाग का स्वास्थ्य सबसे खराब है..

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  3. नीम हकीम ख़तरा -ए -जान .सरकारों ने शिक्षा और सेहत को हमेशा अपनी प्राथमिकता के हाशिये पे रखा है इस वोट तंत्र के लिए यह लाजिम है .

    न हो कमीज़ तो पांवों से पेट ढक लेंगे ,

    ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए .

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  4. इस पेशे के विविध आयामों को खंगाला है आपने .नीम हकीमों को सम्भाला है आपने ,शिक्षा और सेहत भारत सरकार की प्राथमिकताओं की सूची में कभी रही नहीं .प्रजातंत्र को सुचारू चलाये रखने के लिए मरियल ,अ -पढ़ ही चाहिए .

    न हो कमीज़ तो पांवों से पेट ढक लेंगे .,

    ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए .

    इस पोस्ट पर रात भी टिपण्णी की थी स्पेम पीछा नहीं छोड़ता

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  5. आपने एकदम सही कहा है |स्वास्थ्य विभाग की दुर्दशा पर तो अब तरस आना भी बंद सा हो गया है |
    आशा

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