शुक्रवार, 14 दिसंबर 2012

मन के आर-पार

मनुष्य कितना ही विद्वान हो, उसका मन हमेशा एक सा नहीं रहता है. रह भी नहीं सकता है क्योंकि परमात्मा ने काम, क्रोध, मद, लोभ जैसे दुर्गुण भी उसे प्रदान किये हुए हैं.

बालादत्त तिवारी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. उन्होंने स्कूल-कॉलेज की शिक्षा के साथ साथ अपने अध्यापक पिता से बचपन में ही हिन्दू धर्मशास्त्र की शिक्षा ले ली थी. और उनकी ओजस्वी वाणी ने उनके व्यक्तित्व पर चार चाँद लगा दिये. वे किशोरावस्था से ही बड़े बड़े धार्मिक आयोजनों में प्रवचन के लिए निमंत्रित किये जाने लगे थे. नैनीताल जिले के एक छोटे से गाँव के मध्यवर्गीय परिवार का ये नगीना बहुत जल्दी आसपास समाज का आदर्श भी बन गया.

जैसा कि आम तौर पर कूर्मांचल में होता रहा है, यौवन की दहलीज पर पैर रखते ही माता पिता को अपने बेटे के विवाह की चिंता लग जाती है. लड़का आवारा ना हो जाये इसलिए भी उसके पैरों में बेड़ियाँ डालना जरूरी समझा जाता है और वे उसे अपनी इच्छानुसार गृहस्थ जीवन में धकेल देते हैं. बालादत्त का विवाह माता-पिता की पसंद के अनुसार एक सुकन्या हीरा देवी से कर दिया गया. बालादत्त के पिता पण्डित लक्ष्मीदत्त तिवारी स्वयं ज्योतिष की गणना किया करते थे. उनको खुशी थी कि बेटे-बहू के जन्मलग्न के अनुसार २६ गुण साम्य वाले थे. गुणों के मिलान के आधार पर बहुत से विश्वास करने वाले लोग यह भी देखा करते हैं कि लड़के के मुकाबले लड़की के ग्रह नक्षत्र भारी नहीं होने चाहिए. इसमें राशियों के स्वामियों का भी चक्कर रहता है. मित्र राशियों की दृष्टि का भी ख़याल रखना पड़ता है. इस गोरखधंधे में कई बार बने हुए रिश्तों में रोड़ा आ जाता है या फिर बाद में पछताना पड़ता है.

सब कुछ हिसाब किताब लगाने के बावजूद हीरा देवी ने ससुराल आते ही अपना उग्र स्वभाव दिखाना शुरू कर दिया. समय समय पर हीरा देवी ने अशांति के कई अवसर पैदा किये. छोटी छोटी बातों पर बिगड़ जाना और रूठ जाना आम बात थी. बालादत्त के लिए पत्नी और परिवार के साथ सामंजस्य बैठाना कठिन हो जाता था. पत्नी के स्वभाव के आगे उनकी सारी विद्वता धरी की धरी रह गयी. इसी बीच उनको एक पुत्र रत्न की प्राप्ति भी हो गयी. यह सोचा जा रहा था कि अब सब ठीक होता जाएगा पर नहीं, हीरा देवी और भी नखरैल तथा कर्कशा बनी रही. एक दिन जब बालादत्त के अहं को ज्यादा ही ठेस पहुँच गयी तो उसने संकल्प किया कि गृहस्थ जीवन त्याग कर सन्यास ले लिया जाय और किसी को बिना बताए उन्होंने हरिद्वार का रुख कर लिया जहाँ कई महीनों तक अलग अलग आश्रमों/अखाड़ों में जाकर संत-महात्माओं के सानिध्य में रहे. एक दिन गुरू एकनाथ स्वामी ने उनको कंठी पहना दी और नाम दे दिया ‘निर्मोही नाथ’.

निर्मोही नाथ की वाणी में सरस्वती विराजती थी और धर्मशास्त्रों के विषय में विषद ज्ञान था. गुरू ने चेले को सही पहचाना और धर्म नगरी के बाहर धर्म प्रचार के कार्य में लगा दिया. बहुत जल्दी वे हरियाणा, पश्चमी उत्तर प्रदेश और हिमांचल में ज्ञानी संत के रूप में स्थापित हो गए. प्रवचन किया करते थे तथा सच्चे मन से जगत कल्याण की बातें किया करते थे. दस वर्षों के अंतराल में वे एक स्थापित संत महात्मा की रूप में पहचाने जाने लगे. गुरू ने उनको हरियाणा के हिसार में स्थित अपने मठ का महंत बना कर भेज दिया. महंत बनने के बाद उनकी जीवनशैली बदल गयी. लोग अब अपने जीवन में घटित सच्चाइयों तथा समस्याओं के समाधान की फेहरिस्त लेकर आने वाले संसारियों की बातों ने उनके अपने अतीत में भी झांकने को मजबूर कर दिया.

एक दिन जब एक मजबूर महिला अपने १०-१५ वर्षीय पुत्र को लेकर उनके पास आई और आगे के लिए मार्गदर्शन व आशीर्वाद लेने से पहले बताने  लगी कि बच्चे का बाप अपनी गृहस्थी की जिम्मेदारियों से भाग कर लापता हो गया है तो महंत जी को उस कहानी में खुद को देखने का झटका सा लगा. उस रात महंत निर्मोही नाथ सो नहीं सके. सोचने लगे कि उनके बारे में भी इसी तरह की चर्चा घर-परिवार और समाज में होती होगी. वे हीरा देवी की बातों को लेकर अपने पुत्र की अनाथ स्थिति पर सोचते हुए बेचैन हो गए. बूढ़े माता-पिता के चित्र भी उनके सामने आने लगे. उनको लगा कि उन्होंने अपने परिवार के प्रति अन्याय किया है. पितृ ऋण नहीं चुकाया है. इस प्रकार अनेक मानसिक उथल पुथल के बाद, वे ब्रह्म मुहूर्त में उठकर दिल्ली की ओर रवाना हो गए. मठ की पुस्तिका में लिख आये कि आवश्यक कार्यवश नैनीताल जा रहे हैं.

सीधे अपने गाँव पहुंचे. माता पिता दोनों वृद्ध हो चले थे. निर्मोही बाबा का सही परिचय पाकर भाव विह्वल हो गए. हीरा देवी भी उजाड़खंड में उगे पेड़ की तरह कांतिहीन व झुर्रियों से ग्रस्त थी. अपने व्यवहार पर मानो लज्जा महसूस कर रही थी. बेटा चैतन्य, अपने पिता की प्रतिमूर्ति, सामने खड़ा सब देख रहा था. निर्मोही बाबा का मोह जागृत हो गया. उन्होंने अपनी झोली-झंटी फेंक कर वापस अपनी गृहस्थी में लौटने की स्वीकृति दे दी. गाँव-पड़ोस-बिरादरी में खुशी की लहर थी कि बालादत्त लौट आये हैं. इस कौतुक को देखने-सुनने को सभी नए पुराने लोग आ जुटे. हीरा देवी ने अपने सुहाग के चिन्हों को यथावत रखा था. उसको यह अहसास हो गया था कि सब कुछ उसके दुर्व्यवहार का परिणाम था. पति गायब होने के बाद ही उसे पति की महत्ता का भान हो गया था.

पिता ने कहा कि “जो हुआ सो हुआ" और अब बाला दत्त के वापस आने पर उनको मानो स्वर्ग के सब सुख प्राप्त हो गए हैं. घर में जश्न का माहौल हो गया, नाई बुलाया गया जिसने बालादत्त की हजामत करके उसे असली रूप में ला दिया. माँ बहुत खुश थी. लेकिन मनुष्य जो चाहता है या सोचता है, वह हमेशा सच नहीं हो पाता. एक सप्ताह बाद निर्मोही बाबा के अखाड़े के आठ-दस साधू उनके गाँव में आ धमके और बिना कोई बात-बहस किये बालादत्त पर टूट पड़े. चिमटों से मारते हुए उनको उसी अवस्था में ले गए जिसमें वे थे. साधुओं के इस अप्रत्याशित हमले से सभी लोग सकते में आ गए, पर कर कुछ भी नहीं सके.
***

5 टिप्‍पणियां:

  1. आपका इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (15-12-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
    सूचनार्थ!

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  2. मनुष्य जो चाहता है या सोचता है, वह हमेशा सच नहीं हो पाता

    अखंड्य सत्य

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  3. गृहस्थाश्रम से पलायित 'अर्ध वैरागी मन' भटक गया। साधुओं के कानून में फंस ही गए जनाब।
    ... उत्तम सीख.

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