शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012

आनुली आमा

आज से पचास/पछ्पन वर्ष पहले जब पण्डित हरीशचंद्र लोहनी का ब्याह रीति रिवाजों के अनुसार आनंदी उर्फ आनुली देवी के साथ हुआ और वे बारात के साथ दुल्हन की डोली लेकर अपने घर लौटे तो बहिनों, भाभियों तथा कौतुकी महिलाओं को वह बिलकुल पसंद नहीं आई. वे सभी मुँह बिचकाते हुए नई दुल्हन को जैसे अस्वीकार कर रही थी. कारण यह था कि बेचारी आनुली पैदाइशी मंदबुद्धि थी. जैसा कि आमतौर पर देखा जाता है, यह एक दुर्भाग्यपूर्ण मानसिक बीमारी होती है, जिसके चेहरे पर भी लक्षण दिखते हैं, जैसे आँखें बड़ी बड़ी बाहर को उभरी दीखती हैं, माथा असामान्य रूप से बड़ा हो जाता है और सुनने समझने की क्षमता भी अनियमित रहती है.

इसमें आनुली का तो कोई कसूर नहीं था, पर घर परिवार वालों ने उसकी डोर तेज-तर्रार हरीशचंद्र से बाँध दी. शादी कराने वाले बिचौलिए पुरोहित जी को तो अपनी दक्षिणा से मतलब होता है. जन्म लग्न-चिन्ह कुंडली का मिलान किया और २८/३६ गुण मिला दिये. लड़का-लड़की की पसंद/नापसंद पूछने का तब चलन भी नहीं था और पंडितों में केवल खानदान की कुलीनता पर विचार किया जाता था.

नई नवेली के बारे में जब सब तरफ से बदसूरती की बातें सुनाई पड़ी तो हरीश के दिल को बहुत आधात लगा. अगले ही दिन वह ‘दुर्कूण पलटाने’ (मायके की देहरी का दूसरी बार फेरा लगाने की रस्म) के लिए पत्नी आनुली को उसके मायके ले गया. रास्ते के पहाड़ी पगडंडियों पर पैदल चलते हुए हरीश के मन में बार बार तूफ़ान सा उठ रहा था. वह पत्नी से दूरी बना कर चलता रहा. आनुली की मन:स्थिति क्या रही होगी, कहा नहीं जा सकता. अगली सुबह वह उसे मायके में ही छोड़कर बिना सास-ससुर से विदाई लिए चुपके से अपने गाँव लौट आया.

सब तरफ चर्चा रही कि हरीश ने दुल्हन ‘छोड़ दी’ यानि त्याग दी. “धोखा हुआ है” हरीश के माता-पिता का ये कहना कुछ हद तक सही था. सुन्दर होनहार लड़के का जीवन उस अधपगली के साथ कैसे निभता. लड़की वालों को तो आनुली की असलियत मालूम थी. उन्होंने कन्यादान की रस्म पूरी करके अपना धर्म पूरा कर लिया और अपने परलोक के लिए पाप की गठरी नहीं रखी, पर अब ब्याहता आनुली जब मायके में ही रह गयी तो कहने लगे कि ‘इसके भाग्य में विधाता ने ऐसा ही लिखा होगा’ लेकिन आनुली तो अपनी नासमझी में भी खुद को सधवा-सुहागिन समझती रही और यों ही दिन काटती रही. मन में शिकवा शिकायत रही भी होगी तो उसने कभी प्रकट नहीं किया. भतीजियाँ, भाभियाँ या उनकी बहुवें जब कभी हरीश का नाम लेकर उसे छेडती थीं तो वह नादान बालिकाओं की तरह शरमा जरूर जाती थी यानि उसके मन में कहीं ना कहीं अपने निर्मोही पति की मूरत बसी जरूर थी.

इधर अगले वर्ष हरीशचंद्र की दूसरी शादी कर दी गयी. उसकी गृहस्थी की गाड़ी चल पडी. कालान्तर में उसके दो बेटे और दो बेटियाँ हुई. आनुली को पूरी तरह भुला दिया गया. वह अपने भाइयों के परिवार के साथ लावारिस पलती रही. उसको कोई गम भी नहीं था वह उम्र के तमाम पड़ाव पार करती रही. दोनों पक्षों के बुजुर्ग अपनी उम्र के अनुसार संसार से विदा होते रहे. एक दिन ७५ साल की उम्र में पण्डित हरिश्चन्द्र लोहनी भी स्वर्गवासी हो गए.

आनुली को इस सूतक में हरीश के लड़कों के पास लाया गया. उसने भी पत्नीधर्म के अनुसार अपनी चूड़ी-चरेऊ तोड़ी और मृत पति को तिलांजलि दी तथा श्राद्ध कर्मों में पानी-पुष्प चढ़ाया.

हरीश चन्द्र की दूसरी पत्नी व बेटों ने आनुली के बारे में केवल सुना ही था, कभी मिले नहीं थे. अब इस अवसर पर जब वह साथ रही तो वे सभी उसकी मासूमियत और निश्छलता पर इतने द्रवित हुए कि उसको क्रियाकर्म के बाद भी अपने पास ही रोक लिया.

हरीश लोहनी के नाती-पोतों के लिए ‘आनुली आमा’ एक अजूबी तो थी, पर सभी ने उसे परिवार के सदस्य के रूप मे स्वीकार कर लिया. आनुली आमा को अब इहलोक से ज्यादा परलोक की फ़िक्र है. उसे दीन दुनिया की ज्यादा खबर तो नहीं है, पर वह संस्कारवश यह मानती है कि मरने के बाद ये बेटे ही उसको सदगति दिलाएंगे. वह बेटों से कहती भी है कि “जब मैं मर जाऊंगी तो मेरी अस्थियां-फूल चुन कर तुम हरिद्वार में अपने बाप की अस्थियों वाली जगह पर गंगा जी में डाल कर आना.” उसकी इस आस्था पर सबको दया आती है.
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