चलो एक साल और चल बसा. जाते जाते बहुत कड़वी यादें छोड़ गया. पूरे साल भर आंदोलनों, अव्यवस्थाओं व अनाचारों का घुन्ध छाया रहा. इसमें इस बेचारे साल का क्या कसूर? कसूर तो हमारा है, जो सालभर बुराइयों के इर्दगिर्द घूमते रहे.
अगर शब्द मूक होते तो शायद ये लफड़े इतने नहीं बढ़ते, और अगर हर मामले में राजनीति नहीं होती तो ये झगड़े भी इतने नहीं फैलते.
यहाँ विदेशों की बात नहीं, अपने ही देश के बारे में सोचना है, जो कि कहने के लिए लोकतांत्रिक व्यवस्था वाला देश है, पर दुर्भाग्य यह है कि हम लोकतंत्र के नाम पर भ्रष्टतंत्र तथा भीड़तंत्र में जी रहे हैं.
कोई एक क्षेत्र बीमार होता तो ईलाज आसान होता, लेकिन यहाँ तो पूरे कुँएं में भांग पड़ी है. हम एक दूसरे पर कीचड़ उछाल कर सभी कीचड़ में नहा रहे हैं.
इसमें कोई संदेह नहीं कि वर्तमान में कमजोर नेतृत्व व कमजोर इच्छाशक्ति के कारण अराजकता की स्थिति बनी हुई है, पर यह बात भी सच है कि "जैसे फूल होंगे वैसी ही माला बनेगी."
राजनैतिक विचारधारा के पूर्वाग्रहों के कारण यदि हम इस सारे गड़बड़झाले का दोष किसी एक या दो व्यक्तियों पर इंगित करते हैं तो उचित नहीं है क्योंकि कहीं न कहीं हम सब स्वार्थी और दोषी हैं. जरूरत है आत्मलोचन किया जाये.
केवल क़ानून के डर से अपराधों पर नियंत्रण नहीं पाया जा सकता है, मूल में अपने घरों से पहले स्वयं, फिर बच्चों को संस्कार देकर चरित्रवान बनाने की कोशिश होनी चाहिए.
देश में नैतिकता, एकता, व राष्ट्रप्रेम का जज्बा जगाने के लिए सभी को मिलकर काम करना पड़ेगा. इसके लिए प्रिंट मीडिया तथा इलैक्ट्रोनिक मीडिया को ज्यादा अनुशासित रखना पड़ेगा. पीतपत्रिकारिता की जो होड़ आज चल पडी है, उस पर अंकुश लगाना होगा. इसमें सिनेमा का रोल भी अहम है, जिसे फूहड़ नचकनिया की तरह खेल नहीं दिखाने चाहिए. इन सब विषयों पर ईमानदारी से राजनीति से ऊपर उठकर चलना पड़ेगा.
अंत में इस साल के ‘सूतक’ को अगले नववर्ष में नहीं ले जाने का संकल्प करना चाहिए.
अगर शब्द मूक होते तो शायद ये लफड़े इतने नहीं बढ़ते, और अगर हर मामले में राजनीति नहीं होती तो ये झगड़े भी इतने नहीं फैलते.
यहाँ विदेशों की बात नहीं, अपने ही देश के बारे में सोचना है, जो कि कहने के लिए लोकतांत्रिक व्यवस्था वाला देश है, पर दुर्भाग्य यह है कि हम लोकतंत्र के नाम पर भ्रष्टतंत्र तथा भीड़तंत्र में जी रहे हैं.
कोई एक क्षेत्र बीमार होता तो ईलाज आसान होता, लेकिन यहाँ तो पूरे कुँएं में भांग पड़ी है. हम एक दूसरे पर कीचड़ उछाल कर सभी कीचड़ में नहा रहे हैं.
इसमें कोई संदेह नहीं कि वर्तमान में कमजोर नेतृत्व व कमजोर इच्छाशक्ति के कारण अराजकता की स्थिति बनी हुई है, पर यह बात भी सच है कि "जैसे फूल होंगे वैसी ही माला बनेगी."
राजनैतिक विचारधारा के पूर्वाग्रहों के कारण यदि हम इस सारे गड़बड़झाले का दोष किसी एक या दो व्यक्तियों पर इंगित करते हैं तो उचित नहीं है क्योंकि कहीं न कहीं हम सब स्वार्थी और दोषी हैं. जरूरत है आत्मलोचन किया जाये.
केवल क़ानून के डर से अपराधों पर नियंत्रण नहीं पाया जा सकता है, मूल में अपने घरों से पहले स्वयं, फिर बच्चों को संस्कार देकर चरित्रवान बनाने की कोशिश होनी चाहिए.
देश में नैतिकता, एकता, व राष्ट्रप्रेम का जज्बा जगाने के लिए सभी को मिलकर काम करना पड़ेगा. इसके लिए प्रिंट मीडिया तथा इलैक्ट्रोनिक मीडिया को ज्यादा अनुशासित रखना पड़ेगा. पीतपत्रिकारिता की जो होड़ आज चल पडी है, उस पर अंकुश लगाना होगा. इसमें सिनेमा का रोल भी अहम है, जिसे फूहड़ नचकनिया की तरह खेल नहीं दिखाने चाहिए. इन सब विषयों पर ईमानदारी से राजनीति से ऊपर उठकर चलना पड़ेगा.
अंत में इस साल के ‘सूतक’ को अगले नववर्ष में नहीं ले जाने का संकल्प करना चाहिए.
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प्रभावी लेखन,
जवाब देंहटाएंजारी रहें,
बधाई !!
यदि पुलिस और कानून ही नियन्त्रण कर लिये होते तो यह स्थिति क्योंकर आती?
जवाब देंहटाएंनिश्चय ही . "इस साल के ‘सूतक’ को अगले नववर्ष में नहीं ले जाने का संकल्प करना चाहिए.
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट विचार.