प्रकृति ने स्त्री और पुरुष दोनों में किसी को भी विशेषाधिकार दिये बिना पैदा किया, पर हमारे पुरुषप्रधान समाज में कानूनों के परे यदि कोई पुरुष यौन अपराध करे तो उसे उतनी गंभीरता से नहीं लिया जाता है, जबकि स्त्री को छोटी सी गलती पर भी दण्डित होना पडता है. होना यह भी चाहिए कि सीता जैसी पत्नी की अपेक्षा करने वाले स्वयं भी राम के चरित्र वाले हों. इस विषय में समाज की विद्रूपताएं अनेक बार प्रकाश में आती हैं, और नहीं भी आ पाती हैं. एक दुर्भाग्य की मारी स्त्री के कहानी इस प्रकार है:
२३ वर्षीय गोविन्द वल्लभ जोशी नया नया पंचायत सेक्रेटरी बना और ट्रेनिंग पाकर सीधे अपनी नियुक्ति में नैनीताल जिले के तराई में बरेली जिले की सीमा के पास लोकाती गाँव पहुँचा. तब उत्तराखंड अलग राज्य नहीं बना था और ना ही उधमसिंह नगर नाम के अलग जिले का उद्भव हुआ था.
गोविन्द जोशी जब कुर्मी आदिवासियों के इस देहाती गाँव को तलाशते हुए वहाँ गया तो ग्रामीणों ने परिचय में उससे उसके बारे में पूछा, “कहाँ के रहने वाले हो? कौन जात हो? आदि." गोविन्द ने सभी सवालों के जवाब दिये. बताया कि "वह पहाड़ का रहने वाला है, जाति से ब्राह्मण है, अभी अविवाहित है." इसी वार्तालाप के दौरान एक नौजवान ने कहा कि “हमारे नन्हे चाचा की जोरू भी पहाड़िन है,” तो गोविन्द को उत्सुकता हुई और उसने कहा कि “चलो मुलाक़ात कराओ.”
पता नहीं लडकों में से कैसे और किसने सुर्रा छोड़ दिया कि "पहाड़िन चाची का भाई आया है," बस फिर क्या था, गोविन्द को बाइज्जत नन्हे के घर ले जाया गया. नन्हे लगभग ५० वर्ष का काला कलूटा, चेहरे पर चेचक के बहुत से गहरे दाग व बड़ी बड़ी मूछों वाला आदमी था. उसको सब लोग लम्बरदार भी कह रहे थे. बातचीत शुरू हुई तो लम्बरदार ने गोविन्द को प्यार से ‘साले साहब’ भी पुकारा. यद्यपि गोविन्द यह सुन कर कुछ असहज हुआ, पर अपनापन पाकर उसे अच्छा भी लगा.
बहुत देर बाद पहाड़िन यानि कलावती झेंपते हुए प्रकट हुई. वह लगभग ४० साल की सुन्दर, सुडौल व गोरी-चिट्टी औरत थी. गोविन्द ने सहजता से नमस्कार किया तो कलावती की आँखें भर आई. उस वक्त ज्यादा कुशल बात पूछने का अवसर नहीं था. लम्बरदार ने पंचायत कार्यालय के पास ही गोविन्द के रहने-ठहरने की व्यवस्था कर दी.
गोविन्द जोशी के मन में कई दिनों तक ‘पहाड़िन’ के बारे में जानने के लिए कौतुहल रहा कि पहाड़ी औरत इस कुर्मी-भुर्जी लोगों के गाँव तक कैसे पहुँची होगी? नन्हे-कलावती की १२ वर्षीय बेटी भवानी और १० वर्षीय बेटा छोटू गोविन्द को ‘मामा’ संबोधन से पुकारने लगे थे, और माँ द्वारा भेजी गयी खाने पीने की चीजें उसको पहुंचाते थे. गोविन्द ने उनसे उनकी माँ के बारे में बहुत सी जानकारी ले ली, पर वे यह नहीं बता सके कि वह इस आदिवासी गाँव में कैसे आई?
एक दिन गोविन्द ने जब कलावती से जिज्ञासावश अकेले में पूछ ही लिया, “दीदी, तुम यहाँ कैसे पहुंची?” यह प्रश्न सुन कर कलावती बहुत उदास हो गयी और बोली, “भैय्या, ये सब भाग्य का चक्कर था. मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि अपने घर-परिवार, माँ-बाप, भाई-बहिनों से इस तरह दूर हो जाऊंगी. अब तुम भाई बन कर आये हो तो सच्चाई ये है कि मैं द्वाराहाट के सीलोन गाँव की ब्राह्मण परिवार की बहू थी. पति फ़ौज में थे, उनकी अनुपस्थिति में मुझ से एक भूल हो गयी. मैं एक पड़ोसी को अपना समझ बैठी. उसने मुझ से ऐसा धोखा किया कि मैं बदनाम हो गयी. बात इतनी बिगड़ गयी कि गाँव वालों ने मुझे गाँव से निकाल दिया. मैं बेसहारा, बदहवास होकर बस से हल्द्वानी आ गयी. वहाँ मेरी एक बुआ रहती है, पर उसके घर का पता मेरे पास नहीं था तभी मुझे एक आदमी मिला, जिसे मैंने अपना हमदर्द समझा लेकिन उसने सहारा देने के नाम पर मुझे इस लम्बरदार को बेच दिया. अब यही मेरा घर है, यही मेरा सँसार है.” यह बयान करते हुए उसके गालों में आंसू ढुलक पड़े.
गोविन्द जोशी बताते हैं कि “मैं जब तक उस गाँव में पंचायत सेक्रेटरी रहा उस परिवार को अपना समझता रहा और कलावती को अपनी बहिन के रूप में देखता रहा. दो वर्षों के बाद मैंने पंचायत सेक्रेटरी की नौकरी छोड़ कर पन्तनगर कृषि विश्वविद्यालय में बतौर अकाउंट्स क्लर्क नियुक्त हो गया. यह ३५ साल पुरानी दास्तान है.”
गोविन्द जोशी आगे बताते हैं, “मैं धीरे धीरे उस रिश्ते को भूलता गया क्योंकि अपनी शादी होने के बाद मैं अपनी गृहस्थी में व्यस्त हो गया. उसके लगभग १० वर्षों के बाद एक दिन नन्हे लम्बरदार और उसकी पत्नी कलावती मुझे ढूंढते हुए पन्तनगर आ पहुंचे. मुझे बहुत अच्छा लगा. मैं उनको आवासीय परिसर में अपने क्वार्टर पर ले गया. मेरी पत्नी ने उनका अपने रिश्तेदारों की तरह स्वागत-सत्कार किया.
कलावती दीदी ने बताया कि वह इन वर्षों में मुझे बहुत याद करती रही. उसने अपना दर्द इन शब्दों में बयान किया, “मुझे लगता है कि मैं कहीं लंका में जा बसी हूँ और जीवन में कभी भी अयोध्या नहीं लौट पाऊँगी.”
उसका इस प्रकार सोचना स्वाभाविक है. कोमल नारी ह्रदय अपने बचपन, सगे सम्बन्धियों, रीति-रिवाज व संस्कारों से बिछुड़ने के बाद ऐसी त्रासदी झेलने को मजबूर था. एक भूल ने उसका सब कुछ बदल कर रख दिया था.
२३ वर्षीय गोविन्द वल्लभ जोशी नया नया पंचायत सेक्रेटरी बना और ट्रेनिंग पाकर सीधे अपनी नियुक्ति में नैनीताल जिले के तराई में बरेली जिले की सीमा के पास लोकाती गाँव पहुँचा. तब उत्तराखंड अलग राज्य नहीं बना था और ना ही उधमसिंह नगर नाम के अलग जिले का उद्भव हुआ था.
गोविन्द जोशी जब कुर्मी आदिवासियों के इस देहाती गाँव को तलाशते हुए वहाँ गया तो ग्रामीणों ने परिचय में उससे उसके बारे में पूछा, “कहाँ के रहने वाले हो? कौन जात हो? आदि." गोविन्द ने सभी सवालों के जवाब दिये. बताया कि "वह पहाड़ का रहने वाला है, जाति से ब्राह्मण है, अभी अविवाहित है." इसी वार्तालाप के दौरान एक नौजवान ने कहा कि “हमारे नन्हे चाचा की जोरू भी पहाड़िन है,” तो गोविन्द को उत्सुकता हुई और उसने कहा कि “चलो मुलाक़ात कराओ.”
पता नहीं लडकों में से कैसे और किसने सुर्रा छोड़ दिया कि "पहाड़िन चाची का भाई आया है," बस फिर क्या था, गोविन्द को बाइज्जत नन्हे के घर ले जाया गया. नन्हे लगभग ५० वर्ष का काला कलूटा, चेहरे पर चेचक के बहुत से गहरे दाग व बड़ी बड़ी मूछों वाला आदमी था. उसको सब लोग लम्बरदार भी कह रहे थे. बातचीत शुरू हुई तो लम्बरदार ने गोविन्द को प्यार से ‘साले साहब’ भी पुकारा. यद्यपि गोविन्द यह सुन कर कुछ असहज हुआ, पर अपनापन पाकर उसे अच्छा भी लगा.
बहुत देर बाद पहाड़िन यानि कलावती झेंपते हुए प्रकट हुई. वह लगभग ४० साल की सुन्दर, सुडौल व गोरी-चिट्टी औरत थी. गोविन्द ने सहजता से नमस्कार किया तो कलावती की आँखें भर आई. उस वक्त ज्यादा कुशल बात पूछने का अवसर नहीं था. लम्बरदार ने पंचायत कार्यालय के पास ही गोविन्द के रहने-ठहरने की व्यवस्था कर दी.
गोविन्द जोशी के मन में कई दिनों तक ‘पहाड़िन’ के बारे में जानने के लिए कौतुहल रहा कि पहाड़ी औरत इस कुर्मी-भुर्जी लोगों के गाँव तक कैसे पहुँची होगी? नन्हे-कलावती की १२ वर्षीय बेटी भवानी और १० वर्षीय बेटा छोटू गोविन्द को ‘मामा’ संबोधन से पुकारने लगे थे, और माँ द्वारा भेजी गयी खाने पीने की चीजें उसको पहुंचाते थे. गोविन्द ने उनसे उनकी माँ के बारे में बहुत सी जानकारी ले ली, पर वे यह नहीं बता सके कि वह इस आदिवासी गाँव में कैसे आई?
एक दिन गोविन्द ने जब कलावती से जिज्ञासावश अकेले में पूछ ही लिया, “दीदी, तुम यहाँ कैसे पहुंची?” यह प्रश्न सुन कर कलावती बहुत उदास हो गयी और बोली, “भैय्या, ये सब भाग्य का चक्कर था. मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि अपने घर-परिवार, माँ-बाप, भाई-बहिनों से इस तरह दूर हो जाऊंगी. अब तुम भाई बन कर आये हो तो सच्चाई ये है कि मैं द्वाराहाट के सीलोन गाँव की ब्राह्मण परिवार की बहू थी. पति फ़ौज में थे, उनकी अनुपस्थिति में मुझ से एक भूल हो गयी. मैं एक पड़ोसी को अपना समझ बैठी. उसने मुझ से ऐसा धोखा किया कि मैं बदनाम हो गयी. बात इतनी बिगड़ गयी कि गाँव वालों ने मुझे गाँव से निकाल दिया. मैं बेसहारा, बदहवास होकर बस से हल्द्वानी आ गयी. वहाँ मेरी एक बुआ रहती है, पर उसके घर का पता मेरे पास नहीं था तभी मुझे एक आदमी मिला, जिसे मैंने अपना हमदर्द समझा लेकिन उसने सहारा देने के नाम पर मुझे इस लम्बरदार को बेच दिया. अब यही मेरा घर है, यही मेरा सँसार है.” यह बयान करते हुए उसके गालों में आंसू ढुलक पड़े.
गोविन्द जोशी बताते हैं कि “मैं जब तक उस गाँव में पंचायत सेक्रेटरी रहा उस परिवार को अपना समझता रहा और कलावती को अपनी बहिन के रूप में देखता रहा. दो वर्षों के बाद मैंने पंचायत सेक्रेटरी की नौकरी छोड़ कर पन्तनगर कृषि विश्वविद्यालय में बतौर अकाउंट्स क्लर्क नियुक्त हो गया. यह ३५ साल पुरानी दास्तान है.”
गोविन्द जोशी आगे बताते हैं, “मैं धीरे धीरे उस रिश्ते को भूलता गया क्योंकि अपनी शादी होने के बाद मैं अपनी गृहस्थी में व्यस्त हो गया. उसके लगभग १० वर्षों के बाद एक दिन नन्हे लम्बरदार और उसकी पत्नी कलावती मुझे ढूंढते हुए पन्तनगर आ पहुंचे. मुझे बहुत अच्छा लगा. मैं उनको आवासीय परिसर में अपने क्वार्टर पर ले गया. मेरी पत्नी ने उनका अपने रिश्तेदारों की तरह स्वागत-सत्कार किया.
कलावती दीदी ने बताया कि वह इन वर्षों में मुझे बहुत याद करती रही. उसने अपना दर्द इन शब्दों में बयान किया, “मुझे लगता है कि मैं कहीं लंका में जा बसी हूँ और जीवन में कभी भी अयोध्या नहीं लौट पाऊँगी.”
उसका इस प्रकार सोचना स्वाभाविक है. कोमल नारी ह्रदय अपने बचपन, सगे सम्बन्धियों, रीति-रिवाज व संस्कारों से बिछुड़ने के बाद ऐसी त्रासदी झेलने को मजबूर था. एक भूल ने उसका सब कुछ बदल कर रख दिया था.
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यही हमारे समाज की त्रासदी है पुरुष कुछ करे कोई बात नही स्त्री की छोटी सी गलती पर उम्र भर की सज़ा ………इसी असामनता को यहाँ उतारा है मैने http://www.saadarblogaste.in/2012/11/3.html
जवाब देंहटाएंमार्मिक कथा...सहिष्णु हो हम अपनों के प्रति...भूलें सबसे होती हैं।
जवाब देंहटाएंमानवीय संवेदनाओं की परतों को उघाड़ता है आपका लेखन .बराबर तदानुभूति भी होती है संदर्भित पात्रों से जो बड़े अछूते हैं ,समाजी व्यवस्था के मारे सताए हुए हैं .
जवाब देंहटाएंकलावती की मार्मिक दास्तान ...
जवाब देंहटाएंओह! किस्मत से झगड़ा और इंसान पहचानने में भूल भी किसी को कहाँ से कहाँ पहुंचा देती है ...
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