बुधवार, 31 अगस्त 2011

अन्दर की बात

हिदुकुश से कुछ नीचे हिन्दुस्तान की दहलीज पर बादशाह अल्लामा हैदर का साम्राज्य था. उस काल के बारे में इतिहास के पन्नों में इतना ही मिलता है कि तब तम्बाकू का बीज यहाँ तक नहीं पँहुचा था.

अल्लामा की एक प्यारी सी बेटी थी जेनब. बेटियों के जवान होने का पता नहीं चलता है, वे एकाएक बड़ी हो जाती हैं. अल्लामा बड़े अल्लाह वाले बादशाह थे. उनके दरबार में बड़े बड़े आलिम भी थे, जिनसे वे सलाह मशविरा किया करते थे. बिटिया की शादी के लिए आस-पास के तमाम राज्यों से संपर्क किया गया पर जो रिश्ते आये सभी को जेनब ने नकार दिये. उनमें से कोई भी शहजादा उसे पसंद नहीं आया. बादशाह बहुत परेशान रहने लगे.

एक दिन एक युवा हिदू सन्यासी राजमहल के पास से गुजरा और उस पर जेनब की नजर पड़ गयी. सन्यासी देखने में सुन्दर-सुडौल तो था ही साथ ही उसके सर का आभामंडल (नूर) इतना बड़ा था कि प्रकाशपुंज की तरह दमक रहा था. जेनब ने अपनी दासी के मार्फत अब्बा हुजूर को सलाम भेजते हुए पैगाम दिया कि लड़का उसको पसंद आ गया है.

कैफियत के अनुसार तलाश हुई तो मालूम हुआ कि वह सन्यासी अल्लामा के ही राज्य में कुछ दूरी पर जंगल के एक टीले पर अपनी एक छोटी सी कुटिया बनाकर रहता है, योग साधना करता है और कभी-कभी भिक्षा के लिए बस्ती में आता है. बादशाह को बहुत राहत महसूस हुई कि कोई लडका आखिर जेनब को पसंद आ ही गया. उसने अपने वजीर को नजराने के साथ योगी-सन्यासी के पास भेजा. वजीर ने सन्यासी को अपने आने का मकसद बताया और नजराना पेश किया. योगी गंभीर मुद्रा में आ गया और नम्रता से बोला, बादशाह से कहियेगा कि मैं हिन्दू सन्यासी हूँ. संसार के बंधनों से मुक्त हो चुका हूँ. मेरा रिश्ता परमात्मा के अलावा किसी से नहीं जुड सकता है. क्षमा चाहता हूँ. सन्यासी ने नजराना भी लौटा दिया. वजीर ने बहुत अनुनय-विनय की पर सन्यासी पर कोई असर नही. हुआ. वजीर लौट आया. बादशाह ने पुन: दो वजीरों को इस प्रस्ताव के साथ भेजा कि बादशाह उसे आधा राज्य भी देंगे. पर नहीं वह फिर भी नहीं माना.

बादशाह की तेवारें चढ गयी. दरबार बुलाया गया. इस विषय में बहुत सी बातें हुई. एक वजीर ने कहा कि बादशाह के राज्य में रहते हुए योगी ने हुकुमउदूली की है इसलिए कड़ी से कड़ी सजा दी जानी चाहिए. क्या सजा दी जाए? इस पर चर्चा हुई. हाथ-पैर काट देने व सूली चढ़ा देने जैसे प्रस्ताव आये. एक हकीम (जो कभी तुर्की तक घूम आयी थे) ने कहा कि इस आदमी को अपने नूर (आभा मण्डल) पर घमंड है, इसकी यही सजा होनी चाहिए कि इसका नूर खतम कर दिया जाए.  इसके लिए उसने बताया कि तुर्की में एक ऐसी वनस्पति पैदा होती है जो नूर को स्याह कर देगी. उसकी बात बादशाह की समझ में आ गयी. फिर क्या था तुरत-फुरत में आदमी तुर्की भेजे गए. वहाँ से दस ऊँटों पर लाद कर उस वनस्पति के पत्ते व साथ में बीज भी मंगवाए गए. पत्तों से ऊदबत्ती (अगरबत्ती) बनवाई गयी. शाम सुबह् योगी की कुटिया के आस-पास घेरे में जलाई जाने लगी. परिणाम वास्तव में सटीक बैठा. १५-२० दिनों के धुएँ से ही योगी का चमकने वाला चेहरा काला पड़ गया. रौनक गायब हो गयी.

बादशाह ने जब हकीम से पूछा, इस जादुई वनस्पति का नाम क्या है? तो हकीम ने बताया, इसको तम्बाकू कहा जाता है, और ये अच्छे-अच्छों का बेडा गर्क करने की ताकत रखता है.

(इस कहानी उद्देश्य यानि अन्दर की बात यही है कि तम्बाकू खाने या पीने से शरीर का सत्यानाश होता है. यह वैज्ञानिक रूप से सिद्ध हो चुका है कि मुँह का, गले का, आमाशय का तथा फेफड़ों के कैंसर का श्रोत तम्बाकू ही है.)

मंगलवार, 30 अगस्त 2011

मेरे बचपन फिर से आजा

आजा मेरे बचपन
 बेशक लेकर आजा
  चिंतन मुक्त समस्याएं
   मैं तेरी अंगड़ाई लूंगा
    तेरी हर भोर-निशा की-
     शाश्वत स्मृतियाँ
      मैंने अब तक भी
       बंधन में रक्खी हैं.
   आजा मेरे बचपन.

मैं फिर से पढ़ लूंगा स्वर व्यंजन.
 मैं प्यार बड़ों का पा लूंगा,
  खाने को जो मिल जाए,
    बिना हठ के खा लूंगा
     मैं खेलूंगा, कूदूंगा,
      बिना बिछाए सो लूंगा
    आजा मेरे बचपन.

कर दे बंधनमुक्त मुझे
 यौवन के शिष्टाचारों से,
  धर्म-कर्म के नारों से
   और मिला दे मुझको-
    मेरे बिछड़े यारों से
मैं उनमें ही हँस लूंगा
 मैं उनमें ही गा लूंगा.
  नहीं चाहिए सोना-चांदी,
   नदी किनारे जा कर मैं-
    रेती से जी भर लूंगा.
   आजा मेरे बचपन.

तुझको चीन्ह सका मैं जब तक,
 बिना बताए चला गया तू.
  ऐसा क्या अपराध किया था-
   अनजाने में छोड़ गया तू ?
    मैं उन्मुक्तता का प्यासा हू,
     औ तू उसका ही दाता है.
    आजा मेरे बचपन.

बस एक बार फिर से आजा.
 आजा मेरे बचपन.
           *** 

सोमवार, 29 अगस्त 2011

रूसी पत्रकार की भारत यात्रा

लेनिन के जमाने में एक रूसी पत्रकार को भारतीय मित्रों ने अपने देश आने का निमंत्रण दिया था, वह आया. खूब आवभगत की गयी. एक बंधु ने उत्सुक्ताबस उससे पूछा, कामरेड क्या आप भगवान को मानते है? उसने उत्तर दिया, नहीं हम भगवान जैसी किसी अथॉरिटी को नहीं मानते.

उसके बाद वह भारत भ्रमण पर निकल गया. उसको पंजाब में स्वर्ण मंदिर से लेकर बनारस-जगन्नाथपुरी-तिरुपति बाला जी, दक्षिण में रामेश्वरम, गुजरात में सोमनाथ, राजस्थान में नाथद्वारा-पुष्कर आदि अनेक आस्थाओं के केन्द्रों में घुमाया गया. अनेक गाँवों और शहरों में आम लोगों की जीवन पद्धति पर उसने अध्ययन किया. पूरा देश देखने के बाद जब वह स्वदेश लौटने को हुआ तो उसको विदाई दी गयी. वहाँ फिर उसी बंधु ने उससे पूछा, कामरेड आपने हमारा देश व यहाँ की सभ्यता अच्छी तरह देख ली होगी, अब भगवान के विषय में आपके सोच में कुछ बदलाव आया या नहीं?

उसने बड़ी गंभीरता से उत्तर दिया, हाँ, अब मैं भगवान को मानने लगा हूँ.

किस बात से आपके विचारों में इतना परिवर्तन आया? पूछा गया.

वह बोला, देखिये इस देश में इतनी गरीबी-ग़ुरबत है, रोग-बीमारियाँ है, चोरी-लूटपाट है, भृष्टाचार-व्यभिचार है, रंजिश और झगड़े है; फिर भी लोग खुश हैं, शाम को भजन करते हैं, कव्वाली गाते हैं, मुजरे होते हैं, ढोल-मृदंग-मंजीरे बजाते है, और नाचते-गाते है. इससे मुझे यकीन हो गया है कि यहाँ अवश्य ही भगवान है जो ये सब बरदाश्त करने की शक्ति दे रहा है.” 

                                    ***

रविवार, 28 अगस्त 2011

दीपू की माई

लोग उसे सिस्टर मथाई के नाम से जानते थे, पर कॉलोनी की महिलायें उसे ‘दीपू की माई’ कहना पसंद करती थी. वह रेलवे हास्पिटल कोटा में स्टाफ नर्स थी. अपने काम व व्यवहार में सबसे अच्छी. जब वह मुम्बई से नियुक्ति लेकर यहाँ आई थी, तो साथ में डेढ़ साल का एक प्यारा सा बेटा भी था. महिलायें उसके बाप के विषय जानने के लिए बहुत उत्सुक रहती थी लेकिन उसने इस बारे में कभी कोई कैफियत नहीं दी. पर बातें छिपती नहीं हैं, उसके साथ की अन्य नर्सों के मार्फ़त बात छन कर बाहर आ ही गयी कि डाक्टर सबेस्टियन मथाई को वह अपना हजबैंड बताती थी.


उसका असल नाम शालिनी पाटिल था. उसने मुम्बई के भायकुला स्थित नायर मेडिकल कॉलेज से नर्सिंग का कोर्स किया. इसी कोर्स के दौरान डा० मथाई से उसकी आशनाई हो गयी. शादी नहीं हुई, बच्चा हो गया. बच्चा पैदा होने से पहले ही डा० मथाई शालिनी और अपनी नौकरी को छोड़ कर कहीं मलेशिया चला गया. शालिनी व सबेस्टियन में न जाने क्या झगडा था, ये बात बाहर नहीं आई, लेकिन बच्चा होने पर शालिनी ने अपना सरनेम पाटिल से बदल कर मथाई कर लिया. माँ-बाप थे नहीं, भाई-भाभी ने इस रिश्ते को स्वीकार नहीं किया; अत: उनसे भी सम्बन्ध टूट गए. इस बीच पश्चिम रेलवे में नर्सों की वांट अखबारों में आई तो शालिनी ने अप्लाई कर दिया, और नियुक्ति लेकर वह कोटा आ गयी. करीब पन्द्रह वर्षों तक वह यहाँ रही. उसका बेटा दीपक धीरे-धीरे बड़ा हो रहा था, मिशन स्कूल में पढ़ रहा था. अच्छे ढंग से उसकी परवरिश हो रही थी. उसके हाईस्कूल करते ही एक दिन अचानक खबर फ़ैली कि ‘दीपू की माई यहाँ से नौकरी छोड़ कर इंग्लैड जा रही है.’ दरसल सिस्टर मथाई की दिली इच्छा थी कि उसका बेटा इंग्लैड में पढ़े. इसलिए उसने एक एजेंसी के माध्यम से इंग्लैड के पूर्वी भाग में स्थित Broomfield Hospital, Chemsford में जॉब पाने की कार्यवाही की और वह सफल भी हो गयी. इस प्रकार सबका दिल जीतने वाली वह दीपू की माई अपने बेटे सहित इंग्लैड चली गयी. उसकी बड़ी कमी लोगों ने महसूस की, लेकिन समय सारे घाव भर देता है.


दस साल के बाद एक दिन वह अंग्रेजी लिवास में अपने बेटे दीपक व उसकी अंग्रेज पत्नी अलीसा के साथ परिचितों से मिलने कोटा आई. सभी ने खुशी मनाई और बहू आ जाने की बधाई दी. गोरी चमड़ी, सुनहरे बाल, नीली आखें व छरहरे बदन की अलीसा सभी के आकर्षण का केंद्र रही. उनको देखने के लिए मेला सा लग गया. हालांकि सिस्टर मथाई की ढलती उम्र उसके चेहरे से साफ़ झलक रही थी फिर भी उसे खूब मेकप किया हुआ था. परिधानों से परफ्यूम की महक रजनीगन्धा की तरह दूर तक फ़ैल रही थी. वह चहक-चहक कर इंग्लैण्ड की बातें लोगों को बता रही थी. अंत में बोली “जो बात अपने देश में है वह कहीं नहीं है.”


इस बार वह कभी नहीं आने के लिए लौट गयी, क्योंकि कुछ महीनों के बाद ही हृदय-घात से उसकी मौत हो गयी थी. कोटा में परिचितों को तब मालूम पड़ा जब तीन वर्ष के बाद दीपक मथाई पादरी बन कर कोटा लौटा और अपनी पत्नी के साथ एक मिशन स्कूल चलाने लगा.स्कूल के मुख्य द्वार से अन्दर जाते ही सिस्टर मथाई का एक आदमकद फोटो लगा हुआ है, जिसके नीचे लिखा है, ‘I LOVE INDIA.'


                                                      ***

शनिवार, 27 अगस्त 2011

प्रश्न चिन्ह

किसी प्रबुद्ध सज्जन ने अपने ट्रक के पीछे लिखा था: सौ में से नियानब्बे बेईमान, फिर भी मेरा भारत महान. इस उत्तेजक किन्तु सत्य कथन पर मैं भी बहुत देर तक सोचता रहा कि हम भारत के लोग कहाँ जा रहे हैं? क्या हम दिशाहीन हो गए हैं? क्या सभ्य समाज के लोग लुप्त हो गए हैं? क्या अनाचार ही हमारा धर्म रह गया है? राजनेता बदनाम है. चुनाव प्रक्रिया से लेकर विधान सभा व लोकसभा तक के सारे कार्यकलाप आर्थिक अनियमितताओं से परिपूर्ण हैं. पंचायत के सभापति से लेकर मंत्री तक सभी को स्वेच्छाचारी ढंग से बेहिसाब फंड खर्च करने का नियम कितना सही है? आम आदमी और नेताओं की वैध आमदनी का अनुपात बहुत ज्यादा नहीं है?

न्यायपालिका के उच्च पदों पर कौन लोग पँहुच रहे हैं? जिन सीढ़ियों से चढ कर ये लोग ऊपर पहुंचे है क्या उनकी बनावट सही है? न्यायिक प्रक्रिया में सच और झूठ पलटने के छेद कितने पोले है?

पटवारी-तहसीलदार, लाइनमैन-इंजीनियर से लेकर उच्च प्रशासनिक अधिकारी जब बिना रिश्वत काम नहीं करते हैं, तो इस कैंसर जैसी स्थिति में सिर्फ लोकपाल बिल व काला धन के कागजी समाधान से कोई आमूल-चूल परिवर्तन की उम्मीद करना महज एक दिवास्वप्न से कम नहीं होगा?

जन आंदोलन के खिलाफ लिखना या बोलना नदी की धारा की उलटी तरफ तैरना जैसा है, लेकिन सच्चाई तो हमें आज नहीं तो कल स्वीकारनी ही होगी.

रेल या बस के सफर में आपका सामान चुरा लिया जाता है, जिसमें महत्वपूर्ण कागजात हों, आपकी मेहनत की कमाई हो. जहर खुरान नशीली दवा खिला कर या सुंघा कर किसी गरीब को पूरी तरह लूट ले, बस वाले उसे बेहोशी की हालत में सड़क पर उतार कर छोड़ जाएँ, पर्यटक का सामानपासपोर्ट छीन लिया जाए और आम घटना बता कर दूसरे दिन भुला दिया जाये. हर चीज में मिलावट, यहाँ तक कि जीवनदायिनी औषधियां तक नकली. कैसे झुठलाएं ये तमाम सच?

सरकारी कर्मचारी जिनमें डाक्टर व अध्यापक विशेष रूप से स्थानांतरण की मार से ग्रस्त हैं. ट्रांसफर सभी राज्यों में एक उद्योग बन चुका है. समाज को स्वस्थ दिशा देने वाले लोग स्वयं भ्रष्टाचार के दलदल में फंसे हों तो क्या होगा कल की पीढ़ी का?

हमारी नौजवान पीढ़ी जो आज अन्ना हजारे जी के अनशन से/अरविन्द केजरीवाल जी की भ्रष्टाचार बिरोधी मुहिम से अति उत्साहित है, चाहती है कि भ्रष्टाचार पूरी तरह समाप्त हो. सिंगापुर की मिसाल दी जा रही है. जब पूरे कुँए में भंग पडी हो तो बिल पास करने से या कुर्सीनसीन लोगो को टारगेट करने से समाधान होने वाला नहीं है. ये राजनैतिक हुल्लड कल बीच का रास्ता निकाल कर या समझौता करके ठंडा हो जायेगा. फिर क्या होगा. क्या हम सब सुधर जायेंगे?

मेरा ये लेख महासागर में कंकर फेंकने जैसा है. क्या है कोई समाधान जो आज की परिस्थितियों में सिंगापुर की तरह आमूल-चूल परिवर्तन ला सके?

(कृपया इसी सन्दर्भ में मेरे ब्लॉग में विकल्प-व्यंग रचना को अवश्य पढ़ें.)

                                   ***

शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

मौत का मंजर


(प्रस्तुत कथानक मेरे एक मित्र ने मुझे सुनाया था, पात्रों के नाम मैंने काल्पनिक रख लिए हैं.)
   हरि, विष्णु और कृष्ण तीन मित्र, बचपन के साथी और अब तीनों साठ के पार पँहुच चुके हैं. तीनों बुद्धिविलास में पारंगत, संजोग ऐसा कि बुढापा भी साथ साथ कट रहा है. व्यक्तिगत समस्याएं सभी की रहती है, पर सामान्य जीवन चक्र सबका ठीक-ठाक चल रहा था.

   आषाढ़ माह के एक काली घटा वाले दिन वे तीनों नित्य की तरह शाम को टहलने के लिए निकले. वातावरण काफी सुहावना था. मौसम की अनदेखी कर वे बहुत आगे तक निकल आये थे. अचानक एक अनअपेक्षित अनहोनी घटित होने लगी कि बड़ी जोर से बिजली कड़कने लगी जिसकी धार बार-बार उनके करीब से गुजर रही थी. ये आकाशीय बिजली का ताण्डव उनके चारों ओर इस तरह होने लगा कि यह उनकी जान ले लेगा. मृत्युभय स्वाभाविक था. इस विषय पर तीनों मी विवेकपूर्ण विवेचन होने लगा और निष्कर्ष निकाला कि तीनों में से किसी की मौत इस तरह मंडरा रही थी. चूंकि तीनों एकजुट हो गए थे इसलिए यम का अश्त्र सटीक नहीं बैठ रहा था.

   विष्णु ने कहा कि मृत्यु तो एक शाश्वत सत्य है, अगर विधि-विधान में ऐसा ही लिखा तो हमको घबराना नहीं चाहिए अत: वह स्वेच्छा से ग्रुप से निकल कर २० कदम दूर खडा हो गया. ताण्डव रुका नहीं. वह वापस ग्रुप में आ मिला. और कृष्ण को उसी प्रकार २० कदम दूर किया गया, पर आश्चर्य उस पर भी बिजली का प्रहार नहीं हुआ. अब बचा हरि, सो वह अतीव भयभीत हो गया क्योंकि जब बिजली ने उन दोनों को अपने लपेटे में नहीं लिया तो वह मान रहा था कि उसी की बारी है. उसने अपने दोनों साथियों को जकड लिया. कहने लगा, मुझे बचा लो मैं अभी मरना नहीं चाहता हूँ. विष्णु और कृष्ण ने अपने ऊपर आई बला से निजात पाने के लिए हरि से २० कदम दूर जाने को कहा लेकिन वह जाने को तैयार नहीं था. अब होनहार देखिये, विष्णु और कृष्ण ने जबरदस्ती धक्का दे कर उसको अपने से अलग किया और दोनों २० कदम दूर हो गए. अविलम्ब ही विष्णु व कृष्ण पर बज्र गिरा, वे दोनों एक साथ भगवान को प्यारे हो गए. हरि हतप्रभ हो कर अपने मित्रों के शवों को देख कर प्रकृति के इस खेल पर ठगा सा खडा रहा. उधर बिजली का ताण्डव बंद हो चुका था.

                                  ***

गुरुवार, 25 अगस्त 2011

रिश्ता बराबरी का

   इन्दरगढ़ एक छोटी सी रियासत थी, जो अब कोटा जिले का हिस्सा है. अरावली पर्वतमाला की पश्चिममुखी उपत्यिका पर लाल पत्थरों से बना एक किला है; जो अब मधुमक्खियों द्वारा छोड़े गए छत्ते की तरह वीरान पड़ा है. किसी समय यह आबाद होगा, अब न राजा है और न दरबारी लोग. किले के नीचे किलेबंदी अब कई जगह से टूट चुकी है फिर भी पुराने घरों में अभी भी बस्ती है. परचून की पुरानी पुस्तैनी दुकानें, कचोरी समोसा जलेबी वाली हलवाई की भट्टियां, सुनार-लोहार की दुकानें, तांगे-घोड़े वाले सभी कुछ आम राजस्थानी ग्रामीण परिवेश में एक सदी पुरानी व्यवस्था; जैसे यहाँ समय ठहर सा रहा है.

  बहुत से लोग यहाँ से निकल गए हैं. सामर्थ्यवान लोगों ने कोटा या जयपुर में अपने व्यापारिक केन्द्र बना लिए हैं. अनाज का थोक धंधा करने वाले लोग रेलवे स्टेशन के पास सुमेरर्गंज मंडी में नए जमाने के घर बना कर रहने लगे है. इस कहानी के महानायक नेमीचंद जैन ने अपना पैतृक घर और कारोबार नहीं छोड़ा. हाँ, उनके दोनों लड़के नए जमाने के व्यापारी हैं--बड़ा नोपराम अनाज का थोक व्यापार सुमेरर्गंज मंडी से करता है और छोटा गोपराम कोटा गुमानपुरा में इलोक्ट्रोनिक उत्पादों की बड़ी दूकान करता है. लक्ष्मी की इस परिवार पर पहले से ही बड़ी कृपा रही है. राजा के जमाने से उनके दादा, परदादा, फिर पिता साहूकारी का काम करते थे. साथ में सोने-चांदी का कारोबार भी चलता था. सहूकारी इतनी बड़ी कि आस पास गांवों के तमाम लोग उनके कर्जदार थे. ये आपसी विश्वास का भी धंधा रहा है. पुराने लोग ईमानदार भी बहुत थे. पगडी या मूंछ का बाल तक गिरवी रख कर हजारों का कर्जा ले जाते थी. पिछले कई दशकों से जेवर या जमीन गिरवी रखने का ट्रेंड भी चल पड़ा है.

  नेमीचंद के भण्डार में कई मन चांदी और सोने के गहने गिरवी के रूप में रखे हुए थे. कुछ तो टाइम बार होने की वजह से जब्त भी हो चुके थे. अंदर की बात तो ये भी थी कि उनके पास सोने की ईटें व चांदी की सिल्लियाँ रखी थी. वे करोड़ों के मालिक थे. पर उन्होंने कभी अभिमान नहीं दिखाया. बोलने में मीठे, पहनने में मोटा कपड़ा, मैली पगड़ी और घिसी-पिटी देशी जूतियाँ. कोई दिखावा नहीं. उनके कोई मुनीम नहीं था; खुद ही बही लिखते थे. दो कारीगर जरूर रखे थे, जो जेवरात बनाते रहते थे. दड़बेनुमे पुराने घर के अगले हिस्से में उनकी बैठक थी. वे बड़े भाग्यशाली थे कि घर में सब लोग उनकी सलाह के बिना कोई काम नहीं करते थे. नोपराम की बेटी, सन्तोष, सयानी हो रही थी, उसने बी.ए. पास कर लिया था. अत: नेमीचंद को उसकी शादी की चिंता खाई जा रही थी. वे उसके लिए कोई डाक्टर, वकील या बड़े कारोबारी लडके की तलाश में थे. उनके बहनोई अमीरचंद जैन ने उनको बताया कि इंदौर, मध्यप्रदेश में हुकमचंद जैन एक अच्छे घराने के सेठ हैं और उनका भी ज्वैलरी का कारोबार है. उनका एक पुत्र विवाह योग्य है.
 
  एक शुभ दिन, शुभ मुहूर्त में सभी तीर्थांकरों को प्रणाम करके नेमीचंद इंदौर पहुच गए. ट्रेन लेट होने के कारण दोपहर तक ही वहाँ पहुचे थे, इसलिए उन्होंने न्यू पलासिया में उनके घर जाने के बजाय पहले राजवाडा में उनके शो-रूम में मिलने का विचार किया. हुकमचंद एण्ड सन्स ज्वैलर्स का बड़ा बोर्ड देख कर उनको बड़ी प्रसन्नता
हुई. गनमैन गार्ड ने दरवाजा खोला. वे अंदर दाखिल हुए शो-रूम पर नजर डाली. कांच के शो-केसों में सजा हुआ भव्य दर्शन, वे मन ही मन सन्तोष के भाग्य को सराहने लगे. सेल्स-गर्ल लपक कर उनके पास आई पूछा, क्या चाहिए? नेमीचंद ने कहा, हुकम चंद जी से मिलना है. सेल्स गर्ल ने कांच के केबिन में बैठे हुए व्यक्ति की ओर
इशारा करते हुए जवाब दिया, बॉस अंदर हैं, चले जाइये. नेमीचंद बड़े आत्म-विश्वास के साथ केबिन में दाखिल हो गए. हुकमचंद उस वक्त अपने लैपटाप पर अंगुलियां फिरा रहे थे. उनको देखकर अपनी रिवाल्विंग चेयर घुमाई और मुस्कुराते हुए देखा. नेमीचंद ने जय जिनेन्द्र कह कर अभिवादन किया. प्रत्युतर उन्ही शब्दों में मिला.

  हुकुमचंद जैन क्रीम कलर के रेशमी लिवास में थे, गोल्डन फ्रेम का चश्मा, गले में सोने की मोटी चेन, और हाथ की अंगुलिओं में लाल, हरी, व सफ़ेद नगों वाली अंगूठिया. सब मिलकर संभ्रान्ति का द्योतक. हुकमचंद के कुछ पूछने से पहले ही नेमीचंद बोले, मैं नेमीचंद जैन हूँ. इन्दरगढ से आया हूँ. हुकुमचंद ने सामान्य ढंग से पूछा, बोलिए, मै आपके लिए क्या कर सकता हूँ? कुर्सी में बैठते हुए बिना लाग लपेट के नेमीचंद बोले, मैंने सुना है कि आपका बेटा शादी के लायक है इसलिए रिश्ता मांगने आया हूँ.

  हुकमचंद ने उस ग्रामीण गणवेश में मैले कपडे-जूते वाले व्यक्ति को सर से पैर तक बड़े विस्मय से देखा और कुछ देर तक सोचता रहा, थोड़ा मुस्कुराया भी. फिर बोला, देखो भाई तुम गलत जगह आ गए हो. शादी ब्याह रिश्तेदारी बराबरी में होती है. आप ऐसा कीजिये, पीछे मेरा कारखाना है वहाँ बहुत से कारीगर हैं, उनमें से कोई लड़का देख लो. ऐसा कह कर वे फिर लैपटॉप पर व्यस्त हो गए.

  नेमीचंद अवाक रह गए. काटो तो खून नहीं. इतनी उम्मीद ले कर आये थे. एक झटके में सब तहस नहस हो गया. वे बैठे बैठे सोच ही रहे थे कि हुकंमचंद ने जोर देकर कहा, जाईए-जाईए, मेरे यहाँ आपका रिश्ता नहीं हो सकता है. नेमीचंद किंकर्तव्यविमूढ़ हो कर बाहर निकल आये. सोचने लगे, इतना घमंड है इस आदमी को. अच्छा हुआ इससे रिश्ता नहीं हुआ अन्यथा बाद में शर्मिन्दा होना पड़ता. वे पैदल ही चल पड़े, गुस्सा अंदर ही अंदर उबाल दे रहा था. वे फिर लौट कर शो-रूम पर आये. गार्ड से कारखाने के बारे में पूछा. कारखाना नजदीक ही था. वह वहाँ गए तो देखा दस पन्द्रह लोग सुनारी का काम कर रहे थे. वहाँ आधुनिक मशीनें भी लगाई गयी थी. उनकी आखें जो तलाश रही थी वह उनके सामने था, नाम था विमल जैन. उम्र २५ वर्ष. वह यहाँ कारीगर था. उसके पिता ने भी उम्रभर यहीं काम किया था. जब आखें जवाब दे गयी तब घर बैठ गए. नेमीचंद ने बिना ज्यादे परिचय बढाए विमल से कहा कि वे उसके माँ-बाप से मिलना चाहते है. विमल काम से छुट्टी लेकर नेमीचंद को अपने घर ले गया. वहाँ परिचय और बातचीत बिलकुल दूसरे ढंग से हुई और दोनों पक्षों ने मित्रता स्वीकार कर ली. नेमीचंद ने उनसे कहा कि फिलहाल इस बात को गुप्त ही रखा जाए. बुकिंग के तौर पर वे विमल के हाथ में पांच स्वर्ण-मुद्राएं रख आये.

  नोपराम को इंदौर भेज कर न्यू पलासिया में ठीक हुकमचंद की कोठी के सामने जमीन खरीद कर एक बड़े प्रोजेक्ट की शुरुआत की गयी. हुकुमचंद को हवा नहीं लगने दी गयी कि कोठी कौन बनवा रहा है. कोठी इतनी भव्य
और सुन्दर बनाई गयी कि सामने वाली कोठी उन्नीस लगे. अंदर संगेमरमर व ग्रेनाइट का फर्श ऐसा कि नजर फिसले, काष्ट का कलात्मक उपयोग सब कुछ आर्कीटेक्ट के अनुसार. गार्डन का लैंडस्केप नयनाभिराम था.

  सन्तोष का विवाह बड़ी धूम-धाम व रीति रिवाज से हुआ. दहेज में वह कोठी तथा तमाम सामान जो की सुविधाओं के अंतर्गत आते हैं जैसे कार, एयर-कंडीशनर, फ्रिज, टेलीविजन, आदि सभी कुछ दिया गया साथ में शो-रूम खोलने के लिए रकम अलग से. शादी का रिसेप्शन इसी बंगले में किया गया. सभी रिश्तेदार थे. विमल ने अपने मालिक की नौकरी हाल में छोड़ दी थी क्योंकि उसे अब नौकरी की जरूरत नहीं थी. उसने हुकमचंद को सपरिवार आमन्त्रित किया था. हुकमचंद को जब मालूम हुआ कि सामने वाली कोठी विमल को दहेज में मिली है तो वह अपनी उत्कंठा को रोक नहीं पाए.वे रिसेप्शन में भाग लेने आये तो दरवाजे पर विमल के साथ उसके दादा ससुर नेमीचंद जैन भी अपनी देशी लिवास में (इस बार साफ़-सुथरी) आगंतुकों का स्वागत कर रहे थे.

  हुकमचंद को वह दृश्य याद आ गया जब उसने नेमीचंद को दुत्कार लगाई थी. आज वह अपने व्यवहार पर मन ही मन अफ़सोस कर रहा था. कह कुछ नहीं पाए, पर एक खिसियानी मुस्कराहट चेहरे पर थी.
                                 ***

मंगलवार, 23 अगस्त 2011

एक था जो सितारा बन गया

      स्वर्गीय महेंद्रकुमार बहुगुणा से मैं सन २००२ में फिलीपींस की राजधानी मनीला में मिला था. वह मेरे बच्चों का मित्र था. बहुमुखी प्रतिभा का धनी महेंद्र I.I.T. Roorkee से M.Tech. और बाद में अमेरिका में MBA. करके एक अमरीकी कंपनी Credent Technology Asia में बतौर टैक्नीकल मार्केटिंग मैनेजर काम करता था. महेंद्र ने मुझे बताया था कि उसकी कंपनी सेटलाईट के माध्यम से नक्शे बनाती है. मनीला प्रवास में महेंद्र के साथ मेरी कई यादें जुडी हैं. उसने हमें खूब घुमाया, दिखाया और फिलीपींस के विषय में बताया. वहाँ क्रिसमस के दौरान एक महीने पहले से पूरे शहर में सजावट हो गयी थी. चारों तरफ जगमगाहट थी. फिलीपींस में पूरी तरह अमरीकी कल्चर है. द्वितीय विश्वयुद्ध का केन्द्र होने के कारण, मृत अमरीकी और जापानी सैनिकों के हजारों स्मारक यहाँ है. महेंद्र हमें एक बहुत बड़े क्रेटर दिखाने ले गया, कहते हैं कि लाखों वर्ष पहले उल्का पिंड गिरने से यह बना था. अब यहाँ समुद्र जैसी झील है. जिसे पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया गया है. पूर्व तानाशाह मार्कोस की पत्नी का आवास भी वहीं ऊपर पहाड़ी पर स्थित है.

         फिलीपींस को स्पेन के एक व्यापारी ने अपने राजा फिलिप को समर्पित करते हुए ये नाम दिया था. इतिहास बताता है किसी जमाने में यहाँ हिन्दू राजा राज करते थे फिर मुसलमान आये. लगभग चार सौ वर्ष पहले स्पेन ने आकर इस आठ हजार द्वीप समूह वाले देश पर कब्जा कर लिया. अठारहवीं सदी में एक समझौते के तहत महज एक लाख डालर में इस देश को अमेरिका को बेच दिया गया.
         महेंद्र कोरीडोर आइलैंड (जिसे टेडपोल आइलैड भी कहा जाता है) पर भी हमारे साथ था. वहाँ पहाड़ काट कर बनाई गयी विशाल गुफा (टनल) पर्यटन स्थल बन गया है. क्रूजर से वापसी में मौसम भयंकर रूप से खतरनाक हो गया था.प्रशांत महासागर ऊंची-ऊंची हिलोरें लेने लगा. एक अजीब सी दहशत यात्रियों में थी.
         २००३ की २६ जनवरी, गणतंत्र दिवस पर हम लोग महेंद्र एवं तृप्ति के मेहमान बने, वहीं पर हमने टेलीवीजन पर भारत में हो रहे परेड को देखा और शाम को भारतीयों के साथ बड़े यादगार समारोह में शामिल हुए. जिसमें भारतीय दूतावास के लोग और दक्षिण-पूर्वीय एशियाई देशों की तत्कालीन राजदूत भी शामिल हुई थी.
          अगले वर्ष महेंद्र ट्रांसफर होकर सिंगापुर आ गया. जहा उसने एक फ़्लैट भी खरीद लिया, पर ऊपर वाले को कुछ और ही मंजूर था. २६ जून २००८ को जब महेंद्र एक छोटे से मिलिट्री विमान में फोटोग्राफी मिशन में इंडोनेशिया में था तो उसका विमान क्रेश हो गया. विमान में सवार सभी लोग मृत पाए गए. उसने मुझसे हल्द्वानी आ कर मिलने का वादा किया था जो पूरा नहीं हो सका. न जाने क्यों अच्छे लोग इस दुनिया से जल्दी विदा हो जाते हैं? उसकी याद आते ही दिल भर आता है, आँखें नम हो जाती हैं.
                              ***

सोमवार, 22 अगस्त 2011

श्रमिक गीत

तू थक गया तो क्या हुआ,
   तेरा श्रम तो नहीं थका.
      तू धर्म मत छोड़ अपना
         तेरा धर्म क्या कभी थका.

पात्र विचलित हो सकता है,
   पौरुष कभी बिंधा नहीं .
      श्रम को असाध रही हो जो,
         ऐसी कोई विधा नहीं.

माना लक्ष्य दुर्गम है तेरा,
   पर लगन को क्या दुर्गम है ?
      सादा सा सिद्धांत शाश्वत -
         उत्पत्ति का निदान श्रम है.

धरती माँ से तेरा नाता-
   श्रम ही है, श्रम का विश्वास .
      श्रम-अश्रु ही मसि बनती आई-
          लिखने हर विकास इतिहास.

उठ, उठ अबेर ना हो,
   दिगंत का बुलावा सुन
      बना अब नए आयाम;
         उधडे ना जो, ऐसा बुन.

                 ***

शान्तुली

         मुम्बई वाडी बन्दर क्षेत्र में एक मारवाड़ी सेठ का रुई साफ़ करके गाँठ बनाने का एक छोटा सा कारखाना काफी पुराना है. दो कुमाऊँनी वाचमैन इस में काम करते थे, धर्मानंद और परमानद. धर्मानंद देवली गाँव का और परमानंद मनकोट का रहने वाला था. दोनों को फैक्ट्री गेट पर ही एक एक कमरा रहने को दे रक्खे थे, जिसे वे खोली कहते थे. वे बारह-बारह घंटे ड्यूटी करते थे, एक दूसरे के रिलीभर थे. धर्मानद बड़ा ही कजूस व मक्खीचूस किस्म का आदमी था. उस सस्ते जमाने में महज सौ दो सौ रुपयों में खर्चा चला कर बाकी अपनी पत्नी के नाम मनीआर्डर कर देता था. जबकि परमानद बड़ा खर्चीला व दिलफ़रियाद था. उसने एक मराठी महरी, जिसका नाम चारुलता था, से दोस्ती कर ली और बाद में बतौर पत्नी अपने साथ रख लिया. मुम्बई में ऐसे मामलों में लोग ज्यादा तबज्जो नहीं देते हैं.

           चारुलता से परमानंद की एक लड़की हुई जो बड़ी सुन्दर और चपल थी. नाम रक्खा गया शान्तुली. वह महानगरपालिका के स्कूल में हाईस्कूल तक पढी. जबकि धर्मानंद साल-दो साल में गाँव जाता था. उसके तीन लडके थे. उसकी पत्नी गोपुली ठेठ देहातन, असभ्य और कटुभाषी थी. चिट्ठियों में वह जानबूझ कर अपशब्द लिखवाती थी. धर्मानंद अपने बड़े बेटे किशन को १६ साल की उम्र में मुम्बई ले आया. वह आठवीं तक पढ़ चुका था. एक जयशंकर नाम का यु.पी. का ही टैक्सी ड्राइवर उनकी खोली/फुटपाथ पर सोने के लिए आता था. उसने पहले तो किसन को गाड़ियां धोने का काम दिला दिया, बाद में गाड़ी  चलाना सिखा दिया और लाइसेंस भी बनवा दिया. इस तरह वह भी टैक्सी ड्राइवर हो गया.
       
         एक दिन परमानंद ने धर्मानंद और किसन को खाने पर बुलाया और बातों ही बातों में शान्तुली की शादी किसन से करने का प्रस्ताव रख दिया. शान्तुली गोरी-चिट्टी, सुन्दर नाक-नक्श वाली पढी-लिखी लडकी थी, धर्मानंद ने हाँ कर दी. कुछ दिनों के बाद पंडित बुलाकर दोनों के फेरे भी डलवा दिए. धर्मानंद ने अपनी पत्नी गोपुली देवी को पत्र में इतना ही लिखा कि किसन की शादी कर दी है. जवाब में गोपुली ने गुप-चुप शादी करने पर चिट्ठियों में बहुत लानत-मलानत लिख भेजी तथा किसन को ताकीद करती रही कि बहू को जल्दी घर लेकर आये. किसन भी माँ से बहुत डरता था, ना नहीं कर सका. 

         किसन शान्तुली सहित गाँव पहुँच गया. शान्तुली ने ऐसा कभी देखा न था.दूर-दराज के इस गाँव वालों के
लिए भी वह किसी अजूबी से कम नही थी. शुरू-शुरू में तो वह सब कुछ तमाशे के रूप में देखती रही. गोपुली देवी ने ठेठ गँवार अंदाज में उसका स्वागत किया. अत: यहाँ के रहन-सहन से उसे परेशानी हो रही थी. दस दिनों के बाद जब किसन ने मुम्बई लौटने की बात कही तो उसकी माँ ने कहा, "तू अभी अकेले जा. ब्वारी हमारे साथ रहेगी." किसन के लिए विकट स्थिति हो गयी. शान्तुली यहाँ की बोली भाषा तक नहीं समझ पा रही थी. पर माँ  तो बड़ी अड़ियल थी नहीं मानी. गाली-गलौज पर उतर आई. आखिर किसन तीन महीनों में वापस आकर ले जाने का वायदा करके सरक लिया. शान्तुली पिंजरे में फंसे जानवर की तरह असहाय, असभ्य लोगों के बीच रह गयी. गोठ में एक भैस और दो बैल भी थे. घास काटने, लकडियाँ लाने के लिए तो सास ने अभी नहीं कहा पर गोबर उठाने का आदेश हो गया. शान्तुली ने गोबर उठाने से मना कर दिया. इस पर वह दुष्टा, माई-बाप की अशोभनीय गालियाँ देने लगी. खाने में मडुवा की रोटियाँ दी तो उससे खाई नहीं गयी. जीना दुश्वार हो गया.अपना दुःख किसको कहे? सिसकती रही, रोती रही. किसन पर उसको बहुत गुस्सा आ रहा था.

          पड़ोस में सारी बातों की खुसफुसाहट थी पर गोपुली को सभी जानते थे कौन उसके मुँह लगे? सुबह-सुबह
पानी के धारे पर पड़ोस की एक बहू शान्तुली को मिली, उसने उससे बाजार का रास्ता पूछा और बिना किसी को 
कुछ बताये वह बाजार तक आ गयी. उसने अपने कर्णफूल सिर्फ एक हजार रुपयों में बेच दिए. वहीँ से बस में बैठ कर मुम्बई के सफ़र में अकेले ही निकल पडी. पहले दिल्ली, वहाँ से मुम्बई पहुँच गयी.

          उसने अपने माता-पिता को सारी दास्ताँ सुनाई कि उस नरक से वह कैसे छूट कर आई. किसन पालतू कुत्ते की तरह दुम हिलाता हुआ उससे मिलने आया पर वह गुस्से से भरी हुई थी, सम्बन्ध तोड़ने की बात करने लगी. बात जहाँ की तहां रुक गयी. दो-तीन महीनों के बाद मियाँ-बीबी में सुलह हो गयी पर मन में टीस गयी नहीं. इस बात को अब तीस साल हो गए.

           इसके बाद शान्तुली ने नर्सिग स्कूल में दाखिला लिया.बी.एस.सी. नर्सिग करने के बाद वह जॉब करने लगी. आज भी वह सर हर किसनदास हॉस्पिटल में सीनियर नर्सिग स्टाफ में है. किसन आज भी टैक्सी चलाता है. उनके दोनों बच्चे पढ़ लिख कर बड़े हो गए हैं. बेटा ओबेराय-शेरेटन पांच सितारा होटल के रिसेप्शन  पर बैठता है, बेटी फ़िल्मी सीरियलों में अदाकारी कर रही है. घाटकूपर में उनका अपना फ़्लैट है. धर्मानंद और गोपुली देवी कई साल पहले इस संसार से बिदा हो चुके हैं.

          एक दिन जब सभी अच्छे मूड में थे तो शान्तुली ने किसन से कहा, "चलो  एक बार मुलुक (पहाड़) जाकर 
फिर से देख आयें. बच्चों को भी दिखा लायें. कहते हैं कि वहां सब कुछ बदल चुका है." 

                                                         ***

शनिवार, 20 अगस्त 2011

जनतन्त्र

               लटके हुए पेट का वजन 
               सह नहीं सकती एक रीढ़ की हड्डी,
               पिचके हुए पेट की कसन 
                सह नहीं सकती एक और रीढ़ की हड्डी.

                बहुत हद तक साम्य है
                 पर साम्यवाद नहीं 
                शायद यही जनतंत्र  है 
                समाजवाद नहीं.
                       ***

शुक्रवार, 19 अगस्त 2011

फलित ज्योतिष

          अल्मोड़ा से कौसानी जाते हुए एक स्थान आता है, पथरिया, वहां से सामने पहाडी पर बसे गाँव पर नजर डालेंगे तो अद्भुत नजारा दिखाई देता है. दृश्य धवल दन्त-पंक्ति सा लगता है जिसे कैमरे में कैद करने  का मन करता है. वैसे तो मनान क्षेत्र के तमाम गाँव ऐसे ही घने बसे हैं, जिन पर एक सदी पहले से ही जनसंख्या का दबाव रहा. खेती की जमीन कम होने से लोग नौकरी की तलाश में दिल्ली लखनऊ जैसे बड़े शहरों की तरफ  रुख करते गए. 

              ज्यूला गाँव के भैरबदत्त, गणानाथ से मिडिल पास करके अपने मामा के पास नैनीताल आ गए. मामा जी के पड़ोस में पोस्टमास्टर ख्यालीराम जोशी रहते थे. उनसे मामा जी ने भानजे की नौकरी की चर्चा की तो उन्होंने कहा उनके पास एक हरकारे की जगह खाली है. हरकारा यानि एक स्टेशन से दूसरे स्टेशंन  तक डाक का थैला पहुंचाने वाला. उन दिनों जहाँ मोटर मार्ग नहीं थे. वहां इसी तरह डाक लाई ले जाई जाती थी. हरकारे रात में भी चलते थे. उनके पास एक लम्बी लाठी होती थी जिस पर बड़े-बड़े घुँघरू बंधे होते थे. घुँघरू इसलिए कि उनकी आवाज से रास्ते में जंगली जानवर, भूत-पिचास सब दूर रहते थे. भैरबदत्त हरकारे के काम में लग गए .

          एक साल बाद भैरबदत्त को पोस्टमैन बनाकर रामनगर भेज दिया गया. संयोग से वे पंडित रामदत्त जोशी पंचांग वालों के निकट रहने लगे. यहाँ से उनको नयी ऊर्जा व दिशा प्राप्त हुई कि वे अध्यनशील हो गए. जब भी समय मिलता, वे पंडित जी के सानिध्य में रहते और नई-नई ज्ञान की बातें सीखते. धीरे-धीरे वे गणित ज्योतिष में पारंगत हो गए. कुंडलियाँ बनाना, कुंडलियाँ मिलाना व अन्य ज्योतिषीय गणना वे करने लगे. ज्ञान तो ज्ञान है. इसका कोई अंत नहीं. दिन में चिट्ठी-मनीआर्डर बांटते और बाकी समय अध्ययन में लगाते थे.

          एक दिन उनकी मुलाक़ात एक गढ़वाली पंडित देवीप्रसाद नौटियाल से हुई. देवीप्रसाद जी उनकी प्रतिभा से बहुत प्रभावित हुए. उन्होंने अपनी एक पुस्तैनी पुस्तक भृगु संहिता उनको प्रदान की. भृगु संहिता फलित ज्योतिष की मान्य पुस्तिका है जो अपने मूल रूप में कम ही मिलती है. यह संहिता हर व्यक्ति की जन्म-कुंडली से पूर्व जन्म व् भविष्य की सारी व्याख्याएं करती है. भैरबदत्त ने तमाम पुस्तक पढ़ी, समझी और वे आत्मविश्वास लवरेज हो गए. 

         इस बीच उनका विवाह भी हो गया था. भगवत कृपा से चार बेटों व दो बेटियों के पिता बन चुके थे. विभागीय अधिकारियों की अनुकम्पा से बदली करवाकर बैजनाथ पोस्ट आफिस में आ गए थे, जहाँ वे लगभग बीस वर्ष कार्यरत रहे. उनको सुपरवाइजर बना दिया गया. सरकारी नौकरी की इस यात्रा में अठावन वर्ष की उम्र होने पर वे रिटायर होकर अपने गाँव ज्यूला लौट आये. चारों बेटे अच्छी नौकरियों में लगे थे. सभी बेटा-बेटियों की शादी करके जिम्मेदारियों से पहले ही मुक्त हो चुके थे. सब प्रकार से सुखी थे. गाँव-पड़ोस व मित्रों को ज्योतिष संबंधी सलाह देकर मदद करते रहते थे.

         कुछ समय से उनके स्वास्थ्य में गिरावट आने लगी, पेट में दर्द व संग्रहणी जैसी शिकायत रहने लगी. सीधे दिल्ली अपने बेटे के पास चले गए. सफदरजंग अस्पताल में ईलाज करवाकर चार महीनों में वापस घर आ गए. पर बीमारी गयी नहीं. एक दिन बैठे-बैठे उन्होंने सोचा कि अपनी खुद की कुंडली को भी देखना चाहिए. सभी गुणा-भाग करके भृगु संहिता के अनुसार अपनी मृत्यु की तारीख व समय की गणना कर डाली. मृत्यु-भय तो था ही, सभी प्राणियों में होता है. उस निश्चित तारीख से पंद्रह दिन पहले उन्होंने अपने पुत्र-पुत्रियों व उनके परिवारों को अपने पास बुला लिया. सभी नाते-रिश्तेदार मिलने को आने लगे. घर में सब कुछ होते हुए भी बड़ा तनाव था, आशंकाएं थी, मृत्यु की प्रतीक्षा थी.

         एक सप्ताह पहले उन्होंने अन्न का त्याग कर दिया. केवल दही और पंचामृत का सेवन करने लगे. घर में
भजन-कीर्तन करके माहौल को हल्का करने का प्रयास बच्चों ने किया. पोता-पोती उत्कंठित थे कि दादा जी किस तरह स्वर्ग को जायेंगे?

         पर वे गए नहीं. मृत्यु की तारीख को भले चंगे हो गए. सब लोग अचंभित और खुश थे. उन्होंने खीर-पूड़ी बनवाई और खुद भी खाई. यों एक दिन निकला, दो दिन निकले, एक सप्ताह निकल गया.भैरबदत्त नियमित स्वस्थ दिनचर्या में आ गए. दरअसल पंचामृत तथा दही के सेवन से उनके स्वास्थ्य में चमत्कारिक सुधार हो गया था.

         भैरबदत्त ने कई वर्षों के पातड़े, ज्योतिष संबंधी साहित्य बाहर निकाल कर अग्नि को समर्पित कर दिया.
बोले, "सिर्फ गणित ज्योतिष सही है, फलित ज्योतिष सब गप है." उसके बाद भी वे दो वर्ष जीवित रहे.

                                              ***

बुधवार, 17 अगस्त 2011

फिक्स्ड टाइम

          उत्तराखंड में बागेश्वर अब एक नया जिला बन गया है, तब यह अल्मोड़ा जिले का हिस्सा होता था. बागेश्वर क़स्बा सरयू और गोमती नदियों के संगम पर बसा एक व्यापारिक केंद्र के साथ-साथ भगवान् बागनाथ का मंदिर होने के कारण हिन्दुओं के आस्था का केंद्र भी है. आज का बागेश्वर, मंडल सेरा से बिलोना तक नदी गांव से कठायत बाड़ा तक सारी जमीन घेर चुका है. नगरपालिका अब महांनगरपालिका  होने की स्थिति में आ गयी है. समर्थ लोग गांव से सरक कर शहर में आते जा रहे हैं.

           आज भी बाजार के नाम से ही पुकारा जाता है. इधर कत्यूरबाजार, सरयू के उस पार दुग बाजार  कहलाता है. संगम होने से मुर्दे भी यहीं लाये जाते हैं. दूर दूर के गांवों की कुशल-बात भी आने जाने वालों से इस तरह मिल जाती है.

            यह घटना स्वतंत्रता प्राप्ति से कुछ वर्ष पूर्व की है. दुग बाजार में पुल के मुहाने पर पंडित शिवदत्त की एक बड़ी दूकान थी. सस्ते व अच्छे कपड़ों के लिए उनकी दूकान प्रसिद्ध थी. आम ग्रामीण लोगों की जरूरत का कपड़ा वहाँ मिलता था. पंडित शिवदत्त बड़े धार्मिक और कर्मकांडी थे. वे रहते थे नुमाईश के खेत के पास, जहाँ उनका खोली वाला दुमंजिला मकान था. पीछे की तरफ खेत थे. उन्होंने उस तरफ अपनी खिड़की रक्खी थी.

          घर के पिछवाड़े वाली जमीन किसी प्यारेलाल टम्टा की थी. प्यारेलाल ताम्बे के गागर बनाने और मरम्मत का काम करता था. उसकी भट्टी तो दुग बाजार में ही थी पर रहने के लिए एक छोटा सा ग्वाड़   (गोशाला) जैसा घर पंडित जी के पीछे बना रखा था. जब वह अक्सर बीमार रहने लगा तो उसने अपनी जमीन   बेच कर अल्मोड़ा अपने भाई के पास जाने का निर्णय किया. उसने पहले पंडित जी से बात की पर पंडित जी ने लेने से इनकार कर दिया, तब उसने उस आधी नाली जमीन को मात्र दो सौ रुपयों में हाजी अल्लारक्खा को बेच दी.

          शहर में गिने-चुने मुसलमान थे. अल्लारक्खा कई साल पहले हल्द्वानी से यहाँ आकर तम्बाकू का धंधा करता था. वह पिंडी वाला खुशबूदार तम्बाकू मंगवाता था. खुद भी खमीर डालकर बनाता था. धंधा खूब चला. कत्यूर बाजार में एक बड़ी दूकान भी खरीद ली. दो साल पहले वह हज भी कर आया. उसकी खासियत यह थी कि वह बड़ा नेक और शिष्ट व्यक्ति था. हिन्दुओं के बीच रहकर कभी ऐसा महसूस नहीं होने दिया कि वह समाज से अलग है. प्यारेलाल वाली जमीन पर उसने दो कमरों वाला एक छोटा सा घर बनवाया. जब से वह हज करके आया पाँचों टाइम नमाज पढ़ता था. नमाज पढने के आगन में एक चबूतरा भी बनवाया. अब नमाज पढ़ने के लिए वह चबूतरे पर आता और सुबह-शाम "अल्लाह-ओ-अकबर" बोलकर अजान देता था. नमाज तो ईश्वर की प्रार्थना है किसको ऐतराज हो सकता है? पर नहीं, पंडित शिवदत्त को यह खूब अखर रहा था कि उनकी खिड़की के पीछे कोई मुसलमान इस तरह बांग दे. अल्लारक्खा को बुलाकर उन्होंने कहा, "इस तरह का हल्ला-गुल्ला मेरी खिड़की पर मत किया कर." हाजी ने उनको बताया कि "ये तो इबादत है, और अपने चबूतरे पर किया जा रहा है," लेकिन पंडित जी नहीं माने. क्रोधित हो गए. अगले दिन से जब भी हाजी नमाज पढने आयें घंटी और शंख बजा कर खलल डालने की कोशिश करने लगे. हाजी ने बड़े मातबर व्यापारियों से इस मामले में मदद की गुजारिश की, किसनलाल साह, प्रेमसिंह परिहार, नाथूलाल हलवाई आदि लोगों ने पंडित शिवदत्त से वार्ता की लेकिन वे अपने रवैये पर अडिग रहे. हाजी को किसी ने सलाह दी कि वह इस मामले में मुंशिफ कोर्ट में शिकायत करे. मुंशिफ कोर्ट अल्मोड़ा शहर में था. 

          कोर्ट में मामला चला, पेशियाँ हुई. हाजी के वकील ने अदालत से कहा, "यह धार्मिक आस्था का विषय है
अगर समझौते से इसका निपटारा करेंगे तो सद्भाव बना रहेगा." जज हिन्दू थे, बड़े पशोपेश में थे. बड़ी चतुराई से उन्होंने इस केस को सेशन कोर्ट नैनीताल को रेफर कर दिया. जहां जज थे मिस्टर ईडनबर्ग.वे भी बड़े न्यायप्रिय व्यक्ति थे.

          दूसरी पेशी में उन्होंने पंडित जी से अपनी घंटी और शंख लाने को कहा तथा पूछा कि वे किस प्रकार बजाते हैं? पंडित जी ने शंख बजा कर अदालत को गुंजायमान कर दिया, और घंटी बजा के वातावरण को
झनझना दिया. अब हाजी साहब से कहा गया कि वे कैसे अजान देते हैं? हाजी ने लम्बे हाथ से सलाम करते हुए कहा, "हुजूर मैं ऐसे बेटाइम अजान नहीं दे सकता हूँ." सारा मामला मोड़ ले चुका था. जज साहब ने फैसला दिया कि "हाजी अल्लारक्खा का टाइम फिक्स रहता है इसलिए पंडित जी अपनी पूजा इनकी नमाज के वख्त न करें." बाद में बटवारे के समय हाजी अल्लारक्खा परिवार सहित पाकिस्तान चले गए.

                                                  ***

सोमवार, 15 अगस्त 2011

सफ़ेद-काले धंधे

         वे अगर आज ज़िंदा होते तो सतासी साल के होते. बीस साल पहले ह्रदय-गति रुकने से वे मृत्यु को प्राप्त हो गए थे. नाम था हयातसिंह बिष्ट. गोरे-चिट्टे, सुन्दर नाक-नक्श, हल्की मूंछे, गहरी भोंहें और चेहरे पर रौनक; उस पर उजली गाँधी टोपी व खादी का लिबास. ये था उनका प्रथम दृष्टया परिचय. 

          सूपड़ा गाँव के काशीसिंह उनके पिता थे १५ नाली नाप की और इतनी ही बेनाप की जमीन थी. आम कुमाउनी काश्तकार की तरह सीमित साधनों से जी रहे थे. १७ साल की उम्र में रोजगार की तलाश में गाँव के खीमसिंह उर्फ़ खिमदा के साथ मुम्बई आ गए थे. गाँव पड़ोस के अन्य लड़के भी उनकी ही तरह मुम्बई आते रहते थे. मुम्बई में बहुत काम था और कमाई भी. कपडे की मिलों में बतौर कुली सब खप जाते थे.

          मुम्बई तब अशांत क्षेत्र हो चला था, साम्प्रदायिक सौहार्द्य अक्सर बिगड़ जाता था उधर आजादी की जंग जोरों पर थी. बलिदान का जुनून था. एक दिन हयातसिंह को उसके साथियों सहित पुलिस ने पकड़ लिया आरोप था दंगा करना और लूटपाट करना. लापता होने पर इधर घरवाले परेशान रहे. जमानत कराने वाला कोई नहीं था. तीन साल तक मुम्बई की जेल में रहना पडा. बाद में व्यक्तिगत मुचलकों पर छोड़ दिया गया. जेल में रहने का एक फायदा ये हुआ कि कांग्रेसी नेताओं से उनका सानिध्य हुआ. उनको भी कांग्रेसी जमात में मान लिया. वे गांधी टोपी पहन कर घर लौट आये. पहाड़ में भी आजादी की तेज बयार थी और जल्दी ही परिणाम सामने आया  और देश आजाद हो गया.

         इन्कलाब आने से सारे देश में नई राजनैतिक संस्कृति का उदय हो रहा था. कांग्रेस जन सब जगह पूजनीय व आदरणीय हो गए. दिल्ली में नए संविधान सभा की प्रक्रिया चल पडी थी. जो ज्यादा पढ़े-लिखे कांग्रेसी थे, ख़ास तौर पर वकील लोग कुर्सियों के बटवारे में व्यस्त हो गए, छुटभय्ये अभी भी दरी-जाजम बिछाने में थे पर अधिकाँश नेता राष्ट्रभक्त थे. 

          हयातसिंह ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे इसलिए कुर्सियों की दौड़ में अग्रिम पंक्ति तक नहीं पहुच सके. इतना जरूर था कि सीधे मुख्यमंत्रियों तक उनका परिचय था. तब उत्तर प्रदेश  खंडित नहीं था. १९५२ से लेकर बहुत बाद तक उन्होंने कई बार विधान सभा का टिकट पार्टी से मांगा लेकिन वे जिला परिषद् के अध्यक्ष पद से ऊपर नहीं उठ सके. यद्यपि बाद में वे सीनिअर नेताओं की सूची में आ गए थे पर तब वे अपने व्यापारिक कार्यकलापों में व्यस्त रहने लगे. खुले में एक खादी भण्डार बहुत अच्छा चल रहा था जिसे उनका बड़ा लड़का देखता था. सिमार मे एक बिरोजा का कारखाना उन्होंने लगवाया जिसे मझला लड़का देखता था. तीसरा लड़का कुछ आवारा किस्म का था, जिसे खडिया खदानों में अपने मामा के साथ लगा रखा था.

          बिष्ट जी के आगे पीछे अनेक कृपाकांक्षी लोग घूमते थे. उनकी  सिफारिश सरकारी दफतरों में बड़े-बड़े काम हो जाते थे. उनके हाथ में चलते-फिरते एक कतुवा जरूर रहता था. फुर्सत में वे हमेशा ऊन कातते हुए दीखते थे. लोगों को सलाह देते थे कि ऊन काता करें. ऊन उनके खादी भण्डार पर पर्याप्त उपलब्ध रहता था. कत्यूर घाटी में उन्होंने अपना एक ४ खण्डों वाला लेंटर डाला हुआ दुमजिला मकान बनवाया, जिसमें  सभी आधुनिक सुविधाएं थी. नदी तट से कुछ दूरी पर बोरवेल खुदवाकर पानी घर तक ले जाने के लिए पम्प लगाया. स्वतन्त्रता सेनानी का ताम्रपत्र-धारी होने के फलस्वरूप उनको पेंसन, बस का परमिट, और भाबर में ७ एकड़ जमीन भी अलाटेड थी.

          उनकी मृत्यु के बाद अल्मोड़ा और नैनीताल के बैंकों में इतने रुपये निकले कि तीनों लड़कों को बँटवारे में ७५-७५ लाख रुपये मिले. छोटा लड़का थोड़ा शैतान था घर की बात सड़क पर ले आया. उसको शिकायत थी कि उसको पूरा हिस्सा नहीं मिला. उसी ने जग जाहिर किया कि सोमेश्वर और बैजनाथ दो जगह फर्जी अनाथाश्रम चलते थे. बिष्ट जी की मिलीभगत जिले से लेकर लखनऊ तक समाज कल्याण विभाग में और लाखों रुपयों का  ग्रान्ट आपस में बंटता रहा था. पहले तो लोगों को बिश्वास ही नहीं हुआ पर सच्चाई उजागर हो गयी. बाद में कुछ जांच पड़ताल भी हुई पर रिजल्ट में लीपापोती हो गयी क्योंकि अनेक लोग इसमें शामिल रहे होंगे.

                                                                    ***

शनिवार, 13 अगस्त 2011

अस्थि विसर्जन

         कुमायूं की नैसर्गिक सुन्दरता का वर्णन अनेक सैलानियों व लेखकों ने बड़े अच्छे  ढंग से किया है, लेकिन वहाँ के निवासियों को बहुत से अभावों व विषमताओं में जीवन गुजरना पड़ता है उनका वास्तविक अनुभव वही बयान कर सकता है जो भुक्तभोगी हो.

         रानीखेत से सिर्फ पंद्रह किलोमीटर दूर है एक गाँव, नाम है दिग्तोली. खड़े पहाड़ पर बसा हुआ ये गाँव ब्राह्मणों का गाँव कहलाता है. इलाके में इसी गाँव की जजमानी चलती है. पीढ़ियों से शादी-ब्याह, ज्योतिष कर्मकाण्ड यहीं के पंडित कराते आ रहे है. अब स्थिति काफी बदल रही है. पढ़े लिखे लोग गाँव से पलायन कर चुके हैं या कर रहे. पंडित अम्बादत्त ने भी अपनी पैत्रिक वृति छोड़कर रानीखेत में एक परचून की दूकान खोल ली. अपने बड़े बेटे शम्भूदत्त को उन्होंने दूकान के ही काम पर लगाए रखा. छोटा बेटा हरीशचंद्र पढाई में ठीक था, वह नैनीताल से बी.ए. पास करने के बाद पी.डब्लू.डी. में क्लर्क हो गया. यों जिन्दगी लीक पर चलती रही. अम्बादत अस्सी बरस की उम्र तक दूकान में बैठ लेते थे, पर अब जब उनके घुटने जवाब दे गए तो वे घर पर ही रहने लगे. नियमित पाठ-पूजा में समय बिताते थे. चूंकि मृत्यु एक शाश्वत सत्य है,  इसलिए पंडित जी ने एक दिन दोनों बेटों को बुला कर कहा, "मेरी मृत्यु के बाद तुम मेरी अस्थियों को हरिद्वार जाकर गंगा जी में विसर्जित करना. "वैसे कुमाऊ प्रदेश के लोग मृतकों का अग्नि संस्कार अपने नजदीकी गाड़-गधेरे-नदियों के संगम पर करते हैं. चिता जल चुकने के बाद अस्थियों को वहीं बहा देते हैं क्योंकि सारा जल-प्रवाह गंगा जी ही में मिलता है. पं० अम्बादत्त की स्वाभाविक मृत्यु छियानाब्बे वर्ष की उम्र में हुई. उनके आदेशों के अनुसार बेटों ने दाह-संस्कार के बाद कुछ अस्थियाँ (जिनको फूल भी कहा जाता है) चुनकर पोटली में रख दी ताकि हरिद्वार ले कर जा सकें.

         शम्भूदत्त कोड़ा बैठ गए. कोड़ा बैठना मतलब है प्रेतामा की हिफाजत हेतु ताम्बे के बर्तन में दीपक जला कर   पीपलपानी तक साधना करना. कोड़ा का शाब्दिक अर्थ है कोना. रिवाज है गाय के गोबर की बाड़ (घेरा) के अन्दर साधना करने वाले को सूतक के दौरान अलग रहना होता है. बिना हल्दी का अपना खाना खुद बनाओ. माँ गुज़री हो तो दूध मत पीओ, बाप गुजरे तो दही मत खाओ. कपडे उलटे पहनो. नियमित घाट जा कर पिण्डदान करो. सूतक में नमस्कार करना या लेना वर्जित है. बहुत सारी पौराणिक व्यवस्थाएं, मान्यताएं कुमाऊँनी समाज में मौजूद हैं. बहुत सारे अंधविश्वास व ढोंग भी हैं पर यहाँ उन पर चर्चा नहीं करनी है.

          अब शम्भूदत्त कोड़ा बैठ गए इसलिए हरिद्वार जाकर अस्थि विसर्जन का कार्यभार हरीश पर आ पडा. हरीश ने देश-दुनिया देखी थी और उम्र में भी वो पचास पार कर चुका था. इसलिए उनके अकेले ही हरिद्वार जाने में कोई परेशानी नहीं सोची गयी. चौथे दिन अस्थियों की पोटली लेकर वह चल दिया. रानीखेत तक पैदल रास्ता उसके बाद बस से हल्द्वानी और फिर सीधे हरिद्वार. वहां शाम तक पहुँच कर, सुबह-सबेरे गंगा स्नान करके पिता की अस्थियों को गंगा जी में प्रवाहित करके हरीश लौट गया. शाम पांच बजे रानीखेत पहुँच गया. रात उसे वही रुकना चाहिए था पर मन घर पहुँचने को बेकाबू हो रहा था सो चल पड़ा. जल्दी-जल्दी चला. सर्दियों के दिन छोटे होते है. कृष्ण पक्ष था. अंधियारा पसरने लगा. घर अभी भी तीन-चार किलोमीटर दूर था. मन घबराने लगा क्योंकि नीचे घाटी में सीधे उतराई और फिर आधा किलोमीटर सीधी चढ़ाई. घर की सीध पर यहाँ एक लोहार जीतराम का घर था हरीश को वह पहचानता था हरीश ने उससे छिलुके (चीड की लकड़ी के अन्दर की तैलीय छीलन) माँगे. छिलुके जला कर चल दिया पर दस मिनट के बाद ही छिलुके बुझ गए. अब स्थिति खराब हो गयी. ना आगे जा सकता था ना ही पीछे. घुप अन्धेरा हो गया. चीड़ के पेड़ों की साँय-साँय की आवाज से भयभीत हरीश हनुमान चालीसा का जाप करने लगा. जंगली जानवर, खासकर बाघ का ज्यादा डर था इसलिए बड़ी आवाज में पाठ करने लगा. प्यास के मारे गला सूख रहा था. एकाएक पिरूल (चीड की पत्तियाँ) में पैर फिसला और पंद्रह-बीस फुट नीचे आ गया. बड़ी चोट तो नहीं आई, हाथ-पैर अवश्य छिल गए. डर के मारे दर्द का एहसास भी नहीं हो रहा था. जिस पगडंडी पर वह चल रहा था वह खो गयी. अब और भी विकट स्थिति हो गयी, अँधेरे में रेंगकर नीचे जाना था. उसने घर वालों को आवाज देने की कोशिश की ताकि कोई सुन ले और बचाने के लिए आ जाए. पर ये क्या उसकी आवाज ही बंद हो गयी, बोल नहीं निकल रहे थे.
          
         नीचे गधेरे तक पहुँचने के बाद उसको दिशाभ्रम हो गया घर की तरफ जाने के बजाय वह श्मसान की तरफ बढ़ने लगा. उबड़-खाबड़, पथरीले ढलानों पर चलते हुए उसको साक्षात मौत का सामना महसूस हो रहा था ठण्ड की वजह से शरीर ठंडा हो गया और सुन्न पड़ गया तो वह एक पत्थर पर बैठ गया.

          जीतराम का भला हो, उसने हरीश के विषय में ठीक अनुमान लगाया और अपने टीले पर ऐसी समानांतर जगह जाकर आग जलाई जहां से वह सामने हरीश के घरवालों को आवाज दे सके. सर्दी की वजह से घरवाले सब दरवाजे बंद करके बैठे थे. हरीश के आज लौटने की उम्मीद नहीं थी. सौभाग्य से घर का कोंई सदस्य लघुशंका के लिए बाहर आया और जीतराम की हल्की सी आवाज सुनी. वह चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा था कि हरीश बाबू गधेरे में हैं. तुरन्त प्रतिक्रिया हुई. गाँव के लोग टार्च-लालटेन लेकर दौड़ पड़े. बड़ी खोजबीन के बाद हरीश अर्धमूर्छित अवस्था में मिल गया. घर लाया गया, भभूत लगाया गया, कई दिनों में नॉर्मल हो पाया.

                                                             ***

गुरुवार, 11 अगस्त 2011

हीरक-जयन्ती

          बात है जयपुर, राजस्थान की; जहाँ स्वनामधन्य छायावादी कवियत्री महादेवी वर्मा जी की हीरक जयन्ती पर उनका सम्मान किया जा रहा था. अनेक मूर्धन्य कवि गण, साहित्यकार, विद्यार्थी, पत्रकार और नेता गण इस समारोह की शोभा बढ़ा रहे थे. मुख्य अतिथि थे प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री, जो पुराने नेता भी थे. वे कई वर्षों तक केंद्र में मंत्री और एकानेक प्रान्तों के राज्यपाल भी रह चुके थे. 

         सब कार्यक्रम ठीक चल रहा था. सभी वक्ताओं ने बहुत अच्छी-अच्छी बातें कही. महादेवी जी के दीर्घ जीवन की कामना की. हम सभी हिन्दी वाले लोगों ने उनकी कविताओं को स्कूल-कॉलेज के हिन्दी विषय के कोर्स में पढ़ा-गुणा था इसलिए सभी लोग इस विषय में आनंद ले रहे थे. मुख्य अतिथि जब अपना उद्बोधन करने लगे तो वे बोले, "...महादेवी जी की कवितायें मेरी समझ में तब भी नहीं आती थी जब मैं पढता था और आज भी नहीं आती हैं....लिखा कुछ ऐसा जाना चाहिए जो गरीबों के भी काम आये...."

        ये क्या कह दिया मुख्यमंत्री जी ने? सब लोग स्तब्ध रह गए. प्रबुद्ध लोगों को गुस्सा भी आया. बाद में इस बाबत बहुत प्रतिक्रियाएं हुई. बहरहाल छायावादी साहित्य पर नेता जी की नासमझी थी. बड़ा दुःख हुआ.

         पिछले कुछ वर्षों में कुछ लोगों ने नया शब्द गढ़ा है  'दलित-साहित्य'. नेता दलित हो सकता है, लेखक दलित हो सकता है साहत्य कभी दलित नहीं हो सकता है. यह महज एक अलगाववादी फितूर है.

                                                       ***

खराब दशा

       बुद्धि किसी की बपौती नहीं होती, लेकिन बुद्धिहीनता किसी की भी बपौती हो सकती है. ऐसा ही हुआ एक बार बुद्धिहीनों के गाँव में. बिसनसिंह की भैंस की जवान थोरी ने डोकल (लकड़ी की बड़ी ठेकी -जिसमें दही को मथा जाता है.) में छांछ चाटने के लिए अपना सर घुसेड़ा और उसी में फस गया. अच्छा था कि बगल में थोड़ी हवा जाने की जगह थी, वरना थोरी दम घुटने से ही मर जाती. बिसनसिंह ने बड़ी कोशिश की लेकिन डोकल में से सर नहीं निकाल सका. गांव पड़ोस से लोग जमा हो गए पर डोकल निकालना किसी के बस में नहीं हुआ.  किसी ने कहा प्रधान जी को बुलाओ. प्रधान देवीसिंह को बुलाया गया. प्रधानचारी तो उनको बिरासत में मिली थी पर वे भी अकल के पीछे लट्ठ लेकर चलने वाले ही थे. उन्होंने दो-चार मुक्के थोरी को और दो चार मुक्के डोकल पर मारे जिससे हालात पर कोई फर्क नहीं पडा. इसलिए पधान जी ने कहा कि थोरी की गर्दन काटनी पड़ेगी तभी डोकल निकलेगा. पानसिंह जो नवरात्रों में कालिका माई के मंदिर में बलि के जानवरों को छनकाने के विशेषज्ञ थे उनको बुलाया गया. उन्होंने स्थिति का जायजा लिया और बड़ियाठ (बड़ी दरांती) से एक छन्नैक में थोरी की गर्दन अलग  कर दी. खून से धरती लाल हो गयी पर थोरी का सर दोकल में ही रह गया. अब क्या किया जाये ? प्रधान जी ने कुल्हाड़ी मंगवाई और दो चोट मारते ही डोकल फूट गया. सभी ने राहत की साँस ली. 
         बिसनसिंह बोला,  "पधान जी, मुझे तो बड़ी खराब दशा आई हुई थी. तुमने बचा लिया."
         इस पर प्रधान जी गर्व से बोले, "फिर कभी कोई ऐसा काम पड़े तो बुला लेना. संकोच मत करना."

                                                          ***

बुधवार, 10 अगस्त 2011

प्रेरणा

चित्रकार की तूलिका सी,  
जो  भर दे रंग हज़ार
जीवन खाली खाकों को दे,
अरु छीने मन का प्यार.
            तन मटियाला, मन उजियाला 
            नव कोपल समान;
            तरुनाई का पहरा पाकर
            गर्वित है अभिज्ञान.
तुम कवि की सतत प्रेरणा'
तुम पौरुष की प्यास,
तुम से ही सब मातृभाव है,
तुम्ही करुण विश्वास.
            रीति नीति की वक्र वीथि पर 
           चातुर्मास की सी हरियाली       
            हर्षित सी, पर मधुर वेदना,
            छाँट न पाया हो वनमाली.
                              **

मंगलवार, 9 अगस्त 2011

पिक्चर बन सकती है

      रिटायरमेंट के बाद मोतीनाथ ने डिलाईट सिनेमा हॉल के ठीक पीछे जमीन खरीद कर एक छोटा सा घर बनाया है. जहां उसका सुखी परिवार रहता है. मोतीनाथ हर नई पिक्चर को देखता हैं और हर बार ये कहता है कि उसकी जिन्दगी पर भी एक पिक्चर बन सकती है.

      उनकी गाथा यों शुरू होती है कि उसके पिता शिवनाथ किसी गाँववाले के साथ बचपन में ही दिल्ली आ गए थे. घर में अति दारिद्य था क्योंकि जोगी जाति के लोग भिक्षा मांगकर अपना भरण पोषण करते थे. द्वाराहाट, जिला अल्मोड़ा के किसी उपराऊ गाँव में उनका घर और जमीन थी. आमतौर पर ये गृहस्थी वाले बाबा लोग बेनाप की जमीन अथवा मन्दिरों के आसपास अपना बसेरा बनाते थे. अब स्थितियां बदल गयी थी; लोग अपनी फकीरी जाति बताने में संकोच करने लगे थे.

      शिवनाथ को अल्पायु में ही दरियागंज के किसी पंजाबी ढाबे में काम पर लगा दिया गया. ढाबे के मालिक ने चार महीनों के बाद शिवनाथ को अपने एक रिश्तेदार डाक्टर चोपड़ा के घर नौकर के रूप में लगा दिया. कुछ समय बाद डा.चोपड़ा एक अंतर्राज्यीय कम्पनी में मेडिकल आफीसर नियुक्त होकर जबलपुर के निकट कारखाने के अस्पताल में आ गए. साथ में शिवनाथ भी जबलपुर आ गया. शिवनाथ वहां डाक्टर परिवार के साथ लगभग दस साल तक रहा. जब डाक्टर का तबादला बम्बई (तब मुम्बई नाम नहीं बदला था) हो गया तो शिवनाथ को बतौर कुक फैक्ट्री के गेस्ट हाउस में स्थाई नौकरी पर रखवा गए. कुछ समय बाद शिवनाथ छुट्टी लेकर अपने गाँव गया और विवाह सूत्र में बांध गया. अगले साल उसको एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई, जिसका नाम रखा गया मोतीनाथ. मोती जब सात-आठ साल का हो गया तो शिवनाथ उसे अपने साथ मध्यप्रदेश ले आया क्योंकि शिवनाथ को इस नए वातावरण में पढाई का महत्व समझ में आ गया था. वह उसे साथ में ले तो आया पर गेस्ट हाउस का अकेलापन उसको रास नहीं आ रहा था.शिवनाथ अनपढ़ जरूर था लेकिन डाक्टर परिवार के साथ रहते हुए उसे सामान्य जानकारियाँ खूब हो गयी थीं. शहर में समाज कल्याण विभाग द्वारा एक अनाथालय संचालित होता था, जहाँ रहने, खाने-पीने व कपड़ों की मुफ्त व्यवस्था के साथ-साथ चहल पहल भी थी. शिवनाथ एक दिन भारी मन से पुत्र को अनाथ बता कर वहां छोड़ आया.

      प्रारम्भ में मोती को घर परिवार की बहुत याद आती रही. पर सब मजबूरी थी धीरे-धीरे वहां के माहौल में ढलता गया. बच्चों को सामान्यतया पढ़ाया तो जाता था पर सप्ताह में एक दिन ढोल बजाते हुए शहर के अन्दर मदद मांगने के लिए भी भेजा जाता था. यहाँ शिवनाथ ने मोती का नाम मोतीसिंह लिखवा दिया ताकि भविष्य में जाति से कोई  पहिचान न सके. मोती सातवी कक्षा तक अनाथालय में ही पढ़ा, उसके बाद एक दिन शिवनाथ अनाथालय वालों से अनुनय-विनय करके मोती को छुडा लाया. इस बीच और भी भाई बहिन हो गए थे, जिनको जाड़ों में मध्यप्रदेश लाया जाता था. इस प्रकार नए अनुभवों के साथ मोतीसिंह आगे बढ़ता रहा. हाई स्कूल पास करके औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान से आई.टी.आई. के लिए प्रवेश ले लिया. वहां कोर्स पूरा होने के बाद मोतीसिंह को बतौर अपरेंटिस अपने कारखाने में लगवा दिया. कालांतर में मोतीसिंह भी स्थाई कर्मचारी हो गया. आर्थिक हालत भी अच्छी हो गयी. सब ठीक चल रहा था.

      एक दिन बम्बई हेड आफिस से ट्रक में कारखाने का कुछ सामान लेकर मंगलस्वामी नाम का एक ड्राइवर उनके गेस्ट हॉउस में रुका. परिचय होने पर उसने बताया वह भी नाथ बिरादारी का है. घनिष्टता बढ़ती गयी. शिवनाथ गदगद थे की हेड आफिस में उनका कोई आदमी है. स्वामी ने बताया कि उसकी एक कन्या विवाह योग्य है. शिवनाथ को बंबई आने का निमंत्रण देकर मंगलस्वामी वापस चला गया. अब चिट्ठी-पत्री का दौर चला. लडकी का फोटो सुन्दर था. शिवनाथ ने मोतीसिंह की शादी शीला से करने की सहमति दे दी. निश्चित कार्यक्रम के अनुसार बाप-बेटा दोनों बम्बई पहुचे. मंगलस्वामी टैक्सी से उनको अपने आवास धारावी के झोपड़-पट्टी में ले गया. वे पहली बार बम्बई गए थे. महानगर की चकाचोंध व स्वामी की आवभगत से दोनों जने बहुत खुश थे. स्वामी ने एक छोटे से समारोह में शीला और मोती की शादी करा दी. नजदीकी लोगों से खूब गिफ्ट भी आये. शिवनाथ के शब्दों में शानदार शादी हो गयी. बहू को लेकर जबलपुर लौट आये.

      जिसकी कल्पना भी नहीं की थी वह हो गया. पड़ोसी व साथियों को दावत दी गयी. देखने वालों ने कमेन्ट भी खूब किये. "बहू हीरोइन की तरह लगती है". हनीमून पीरियड भी लम्बा चला पर धीरे-धीरे घरवालों को शीला की फैशनपरस्ती व ओछापन चुभने लगा. लोग भी बातें बनाने लगे थे. उधर शीला भी उदास व होमसिक रहने लगी. जल्दी जल्दी तीन चक्कर बम्बई के लग भी गए. शीला को ससुराल रास नहीं आ रहा था. बाद में मालूम पडा कि बम्बई में उसका कोई ब्वायफ्रैंड भी है जो बराबर उसके सम्पर्क में है. लेकिन अब क्या हो सकता था? ये सब बातें शादी से पहले देखनी चाहिए थी.

      इस बार शीला गर्भवती थी और बम्बई में ठहरने का अच्छा बहाना मिल गया. बम्बई में उसने पुत्र गोविन्द को जन्म दिया. बहुत जिद करने के बाद महज पन्द्रह दिनों के लिए जबलपुर आई. फिर जब बच्चे को लेकर गयी तो लौटी नहीं. रिश्ते बिगड़ने ही थी. मामला अदालत तक चला गया. शीला गोबिंद भी सोंपने को तैयार नहीं थी. जबलपुर से बम्बई जाकर अदालत में गुहार लगाना, आना-जाना, वकील के चक्कर ये सब परेशानी के शबब थे. अदालत का फैसला आया कि बच्चा तीन वर्ष की उम्र तक माँ के पास रहेगा. तीन वर्ष का होने पर पुन: कस्टडी के लिए गुहार लगाई तो एपिसोड में नया मोड़ आ गया कि शीला खुद भी जबलपुर आना चाहती है. पिछली कटुता भुला कर नया अध्याय शुरू करने का शीला का नाटक अगर कारगर हो जाता तो मोतीसिंह का आगे का जीवन अँधेरे में डूब जाता. हुआ यों कि शीला पूरे नाज-नखरों के साथ आई और घरवालों से बड़े लाड़ प्यार से पेश आ रही थी. अपने बच्चे के भविष्य को बुरी आशंकाओं से बचाने के लिए जो प्लान उसने बनाया, वह बहुत ही चतुर दिमाग की उपज थी वह चाहती थी कि मोतीसिंह अपनी नसबंदी करा ले; उसके लिए उसने मोतीसिंह को मानसिक रूप से तैयार भी कर लिया था. उसके बाद उसका इरादा बम्बई भाग जाने का था, पर भाग्य ने उसका साथ नहीं दिया. वह बम्बई से गर्भवती होकर आई थी और उसका गर्भपात हो गया. घरवालों के सामने उसकी पोल खुल गयी.

      घर का वातावरण अत्यंत शर्मनाक, दर्दनाक और बोझिल हो गया था. मोतीसिंह एक सप्ताह बाद शीला को बम्बई की गाडी में बैठा कर हमेशा के लिए टा-टा कर आया. लोग पूछते रह गए पर बताने की बात नहीं थी एक साल बाद घर-गाँव जाकर एक सजातीय गरीब की सुन्दर सी लड़की मालती से मोती का पुनर्विवाह हुआ. जिससे बाद में एक लड़का और दो लडकियां हैं. गोविन्द एक सरकारी स्कूल में अध्यापक हो गया है. उसकी शादी पहाड़ जाकर की गयी. शिवनाथ गत वर्षों में स्वर्ग सिधार गए थे.

      मोतीसिंह अब पुन: मोतीनाथ कहलाना पसंद करता है. अपने पौत्र कमलनाथ को अपने साथ पिक्चर दिखाने ले जाता है और कहता है कि मेरी जिन्दगी पर भी पिक्चर बन सकती है.
                                                                       ***

सोमवार, 8 अगस्त 2011

राणी जी का साला

         रियासतों के राजस्थान में विलय से पहले यह राज्य राजपुताना कहलाता था. छोटे बड़े राजघराने अंग्रेजों से तालमेल बिठा कर काम करते थे, कुछ बहुत छोटी रियासतें अभी भी मध्य युग में जी रही थी. ऐसी ही एक रियासत थी ठिठोलीपुर. वहाँ के राजा पीढ़ियों से, यथा नाम तथा गुण, ठिठोली, भाट-बहुरूपियों और भोग-विलास में समय बिताते थे. आख़िरी राजा गजबसिंह भी इसके अपवाद नहीं थे. वे अपनी मस्ती में मस्त रहते थे. राज-काज कारिंदों के भरोसे चल रहा था. अत: स्वाभाविक था कि कारिंदे स्वछंद व भृष्ट होते चले गए. आम लोग त्रस्त थे. आजकल की ही तरह भृष्टाचार को शिष्टाचार के रूप में लेने लगे थे. निरंकुशता का ज़माना था. बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे? कुछ लोग जरूर कुलबुला रहे थे.

         परिस्थितियां अपने आप क्रान्ति की मशाल पकड़ने वाले किसी नायक को सामने लाती हैं. जैसे आज सन २०११ मे अन्ना हजारे एक क्रांतिदूत के रूप में उभरे हैं, ठीक इसी तरह मन्नालाल नाई, राजा गजबसिंह के दरबार में जा खडा हुआ और बोला, "महाराज, मैं आपको बताना चाहता हूँ कि आपके राज्य में चारों तरफ पोल ही पोल चल रही है." राजा ने उसकी बात को ठिठोली में लेते हुए कहा, "अगर हर तरफ पोल है तो तू भी जा किसी पोल में घुस जा." सभी दरबारी मन्नालाल पर हँस पड़े. मन्नालाल अपना सा मुँह लेकर वापस हो गया लेकिन उसका शातिर दिमाग खुजलाने लगा. उसने एक प्लान बनाया और दूसरे ही दिन श्मसान घाट को जाने वाले मार्ग पर लकड़ी का एक बेरियर लगा दिया. अब धंधा चालू हो गया, जब भी कोई मुर्दा आये तो वह बेरियर उठाने की फीस पाँच-पाँच रुपये वसूलने लगा. लोगों के पूछने पर कहता था, "ये राजा जी का हुकम है. मैं राणी जी का साला हूँ."

         राणी जी का साला है तो कौन हुज्जत करे? धंधा चल निकला. यों धंधा चल निकला. समय चक्र चलता रहा. एक दिन राजपरिवार के ही किसी व्यक्ति की मृत्यु हो गयी. राजा लोग खुद श्मसान नहीं जाते थे, दीवान जी को भी मन्नालाल ने वही कैफियत दी कि, "राजा जी का हुकम है, मैं राणी जी का  साला हूँ." दीवान जी ने व्यवस्था दी कि  "अभी तो इसको टैक्स दो और कल इसे दरबार में पेश करो."

         अगले दिन सिपाही उसे पकड़ कर दरबार में ले गए. राजा जी को बताया गया कि किस प्रकार मन्नालाल लोगों को लूट रहा है. राजा ने तल्ख़ तेवरों के साथ मन्नालाल से पूछा, "क्यों बे किस राणी जी का साला है तू?"
मन्नालाल चतुर था, बड़े अदब से नमन करके बोला, "हुजूर, आपने ही तो मुझे हुक्म दिया था कि मैं भी किसी पोल में घुस जाऊं. इसमें मेरा कोई कसूर नहीं है."

          राजा गजबसिंह ने इस घटना को बहुत गभीरता से लिया और तमाम प्रशासनिक सुधार शुरू कर दिए. भ्रष्टाचारियों को कोड़े लगने लगे. इसी दौरान रियासत का राजस्थान राज्य में विलय हो गया.
                                                                    ***

शनिवार, 6 अगस्त 2011

संस्मरण

               स्वर्गीय जी. रामानुजम स्वतंत्र भारत के ट्रेड यूनियन इतिहास में एक युगपुरुष की भाँति हैं. उनको स्वयं महात्मा गाँधी जी ने अहमदाबाद के मिल मजदूरों को संगठित करने का काम सौंपा था. वे लम्बे समय तक मजदूर आन्दोलन के अगवा रहे. बरसों तक अखिल भारतीय मजदूर कांग्रेस के राष्ट्रीय अधक्ष रहे. वे एक सर्वमान्य व्यक्ति थे. जीवन के अंतिम सोपान में उनको आंध्रा तथा बाद में उड़ीसा का राज्यपाल बनाया गया. उन्होंने ट्रेड यूनियन  सम्बंधित अनेक पुस्तकें भी लिखी हैं. चूंकि मैं आल इंडिया सीमेंन्ट वर्कर्स फैड्रेसन का लम्बे समय तक उपाध्यक्ष  रहा इसलिए अनेक मीटिंगों / अधिवेशनों में उनके सानिध्य में रहा. सीमेंट मालिक और कर्मचारियों के वेतन संबंधी विवादों में उनको दो बार आर्बिट्रेटर भी बनाया गया. वे हमेशा अंग्रेज़ी में ही भाषण करते थे. मैं या स्वर्गीय एच.एन. त्रिवेदी उनकी स्पीच को हिन्दी में रूपांतरित करके बोलते थे. मैंने उनकी पुस्तक  'द थर्ड पार्टी' का हिन्दी में अनुवाद  'तीसरा पक्ष' के रूप में किया है.
               
             सन १९८२ में, त्रिचनापल्ली में अखिल भारतीय सीमेंट वर्कर्स का सम्मलेन बुलाया गया था. स्टेज पर मैं रामानुजम साहब के बगल में बैठा था. उन्होंने धीरे से मुझसे कहा, "डोंट स्पीक इन हिन्दी हियर." मैं इस विषय में जागरूक था कि तमिल भाषी इलाका होने के कारण यहाँ भाषा बड़ा मुद्दा बनाया हुआ था. अत: मैंने पहले से अपना पांच मिनट का भाषण एक तमिल मित्र से हिन्दी लिपि में लिखवा कर उच्चारणों का अभ्यास करके रखा हुआ था. जब मैंने अपना भाषण, "वन्कुम, थिरु रामानुजम गरु ..." से शुरू किया तो पाण्डाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा. बाद में रामानुजम साहब ने मुझसे पूछा, "ह्वैर डिड यु लर्न टैमिल?" मैंने उनको सच्चाई बताई तो वे बहुत खुश हुए. उन्होंने अपने अध्यक्षीय भाषण तमिल में दे कर भाषा विवाद पर हिन्दी भाषियों की बहुत तारीफ़ की.

                                                                      ***

शुक्रवार, 5 अगस्त 2011

उखड़े नवाब

          उनका नाम महाराजा सागर सिंह, महाराजा इसलिए कि उनके पिता ठा. दिलावरसिंह भी महाराजा कहलाते थे. वे महाराजा इसलिए थे कि उन्होंने बूंदी नरेश के फौजदार के रूप में काम किया था और नरेश ने ईनाम के बतौर हरिपुर गाँव उनको जागीर में दे दी थी. वे हाड़ा वंश के राजपूत थे. अत: राजपूती आन, बान और शान उनको विरासत में मिली थी. 

         हरिपुर गाँव अरावली पर्वत माला की दो पहाड़ियों के बीच एक उपजाऊ जमीन का भू-भाग है. लगान में इतना  अनाज मिल जाता था कि महाराजा के परिवार का ठीक से गुजारा हो जाता था. पिता के स्वर्ग सिधारने के बाद जब उनकी पगड़ी ठा.सागर सिंह के सर पर आ गयी तो वह महराजा हो गए और महाराजाओं के शौक भी पालने लगे. सबसे घातक और खर्चीला शौक शराब का था जिसने जल्दी ही महाराजा को सड़क पर ला दिया. कुछ जमीन बेचनी पडी और छोटे भाई राजा भरत सिंह को सीमेंट कारखाने में नौकरी पर रखवाना पडा. बाद में कारखाने के पास कस्वे में ही अपना एक घर बनवा लिया. घर को वे अपनी आन के अनुसार हवेली ही कहा करते थे. हवेली पर लिखवा भी दिया ' हरिपुर हाउस' . कालांतर में आर्थिक स्थिति  बदतर होती गयी और महाराजा हरिपुर पैदल हो गए.

         कहते हैं कि दुर्भाग्य अकेले विपदा नहीं लाता है, ज्यादा वाइन के सेवन से महाराजा को लकवा हो गया.एक पैर, एक हाथ और एक आँख एक साथ लटक गए. कारगर इलाज था नहीं, झाड़-फूँक कराया गया, शेर की चर्बी से मालिश की गयी, तब जाकर महाराज लकड़ी टेक कर हाथ लटकाए, लंगडाते हुए धीरे-धीरे घर से निकलने लगे. लेकिन उनके स्वभाव का अक्खड़पन बढ़ता गया. चूंकि वे महाराजा थे, किसी को भी तू-ता और गाली दे कर संबोधित करने का उनका अधिकार परिचितों को रास आ गया था.

         ये बातें बहुत पुरानी नहीं हैं, साठ के दशक की. उसी समयावधि में कस्वे में एक अन्य स्वनामधन्य व्यक्ति थे--नाम था रास बिहारी मिश्रा. वे सीमेंट कारखाने में क्लर्क पद पर कार्यरत थे. गाँव के गण्यमाण्यों में से थे. उनकी वाणी में बड़ा प्रताप था. वे काने को काना कहने से नहीं चूकते थे. हर बात में चूंकि, चुनाचे पर, लगाकर लोगों के व्यक्तित्व को छीलने में कसर नहीं रखते थे. जुबान ऐसी कि सामने वाला तिलमिला जाये. दूसरों का नाम बिगाड़ने में भी देर नहीं करते थे, जैसे मोरारजी को मरोड़ जी, चरण सिंह को चूरन सिंह, इंदिरा गांधी को ऊंद्रा (चूहा) गांधी आदि लम्बी फेरहिस्त उनके बयानों की होती थी. मिश्रा जी चुपके से लोगों को रुपये उधार भी दिया करते थे, व्याज भी लेते थे ऐसा लोगों का कहना था. एक उभरती हुई राजनैतिक पार्टी ने उनके ऊपर टोपी रख दी थी. तब से उनकी यह कमजोरी हो गयी कि जो भी व्यक्ति उनकी या उनकी पार्टी की तारीफ़ कर दे तो वे उस पर न्यौछावर हो जाते थे.

         एक दिन महाराजा सागर सिंह बड़े आर्थिक कष्ट में थे तो उन्होंने मिश्रा जी के पास जाने की योजना बनाई. एक पैर रगड़ते हुए, लाठी टेकते हुए मिश्रा जी के निवास पर पहुँच गए. बाहर से ही अपने रौबीले स्वर में आवाज देकर बुलाया, बोले, "आजकल तुम्हारी पार्टी की बहुत जयकारी हो रही है." सुनकर मिश्रा जी प्रसन्नता को प्राप्त हुए तो महाराजा ने अपनी असली गोली दागी, "कुछ जरूरी काम आ गया है. दो सौ रुपयों की जरूरत आन पडी है" मिश्रा जी कुछ कहते उससे पहले ही महाराजा ने कहा, "एक दो महीनों में लौटा दूंगा." अब मिश्रा जी के पास कोई विकल्प नहीं था. घर से निकाल कर दो सौ रूपये महाराजा को दे दिए. यद्यपि उन्हें अपना रुपया देना सुरक्षित नहीं लगा, फिर भी सोचा जागीरदार आदमी है इतनी छोटी रकम पर बेईमानी क्या करेगा?

         समय कभी रुकता नहीं, दिन-महीने बीतते गए आठ महीने हो गए. हाँ इस बीच महाराजा ने मिश्रा जी के घर एक बार चार भुट्टे, एक बार दो गन्ने और एक बार चने के बूटे किसी के हाथों भिजवाये जरूर थे. दीपावली पर खेत पर बुला कर एक पैग देसी दारू का भी लगवाया. पर मिश्रा जी के लिए ये छोटी सी बातें थी. वे इस मौके में थे कि ठाकुर कहीं मिले तो उसको रुपयों की याद दिलाई जाये. हुआ यों कि इतवारी हाट में मिश्रा जी सब्जी खरीदने गए तो महाराजा से आमना-सामना हो गया. मिश्रा जी ने बिना देर किये हुए बोला, "ठाकुर तुमने दो सौ रूपये लिए थे, भूल तो नहीं गए हो?"

          इतना सुनना था कि महाराजा सागर सिंह अपना आपा खो बैठे, बोले, "अबे ओ कनोजिये, तू मुझे क्या बीच बाज़ार बेइज्जत करेगा? ये है हरिपुर नरेश की इज्जत? तुझे शर्म भी नहीं आई?"

          मिश्रा जी को काटो तो खून नहीं, बोले, "मैंने गलती की कि आपको रूपये उधार दिए और इतने महीने हो गए."

          महाराजा गुस्से में गुर्राए, "मैंने कुछ नहीं किया क्या?"

          "क्या किया आपने?" मिश्रा जी बोले.

          "अबे तुझे मक्के खिलाये, गन्ने चुस्वाये, बूटे भिजवाये और दिवाली पर दारू पिलाई."

         आसपास लोगों का हुजूम इकट्ठा हो गया था. सबको छीलने वाले मिश्रा जी रुआंसे खुद को छिलते हुए देखते रह गए और महाराजा गाली देते हुए आगे बढ़ गए .
             
***

कोलम्बस की यात्रा

               ( मेरी आत्मकथा 'बीते हुए दिन ' से )

        बचपन की एक मजेदार बात मुझे याद आ रही है जबकि मुझे कोलम्बस बना दिया गया था. यह कोलम्बस उपनाम मुझे लम्बे समय तक सताता रहा. हुआ यों कि जब मैं आठ साल का था अपने पिता (स्वर्गीय प्रेम वल्लभ पाण्डेय) के साथ स्कूल जाता था. वे अध्यापक थे. उन्होंने दो कक्षाएं बढ़ा कर सीधे चौथी की परीक्षा दिला दी. मैं पास भी हो गया. उस साल, सन् १९४९ में, उत्तर प्रदेश में सभी मिडिल स्कूल जूनियर हाईस्कूल बना दिए गए और मैं सीधे छटी कक्षा में चला गया. आनन-फानन में तीन माह गुजरते ही तिमाही  परीक्षा हुई. छपे हुए पर्चे जिला बोर्ड से आते थे.

        सामाजिक ज्ञान में एक प्रश्न था-- कोलम्बस की यात्रा का वर्णन करो. मैंने इस बारे में न तो पढ़ा और न सुना था. अपनी कल्पना शक्ति का प्रयोग करके मैंने कोलम्बस की कल्पना किसी ऐसे स्थान के रूप में की जो हमारे कस्वे बागेश्वर के सामान छोटा-मोटा तीर्थस्थल हो, जहाँ पर उत्तरायणी या शिव रात्रि जैसा ही कोई मेला लगता हो. यात्रा क्या थी बस मेले में आने जाने का, खेल-खिलोने-मिठाई, खरीद-खाने, तथा घर लौटने की खुशी का वर्णन था. मुझे अब ठीक से सब कुछ याद भी नहीं है.

        मेरे कक्षा अध्यापक थे श्री प्रयाग दत्त काण्डपाल. शायद उन्होंने ही मेरी कापी जाँची और बाद में क्लास मे मेरा खूब मखौल उड़ाया. मेरे पिता श्री को भी कहानी कह सुनाई. कक्षा के लड़के मुझे बहुत दिनों तक कोलम्बस नाम से  चिढाते रहे. आज सोचता हूँ कोलम्बस होना कोई  छोटी-मोटी बात तो नहीं है.

          मैं समझता हूँ कि 'कोलम्बस की यात्रा'  मेरी पहली रचना रही होगी जिसकी मीठी व भीनी-भीनी याद करके 
मैं अपने बचपन में लौट सकता हूँ. 
                                                   ***