बात है जयपुर, राजस्थान की; जहाँ स्वनामधन्य छायावादी कवियत्री महादेवी वर्मा जी की हीरक जयन्ती पर उनका सम्मान किया जा रहा था. अनेक मूर्धन्य कवि गण, साहित्यकार, विद्यार्थी, पत्रकार और नेता गण इस समारोह की शोभा बढ़ा रहे थे. मुख्य अतिथि थे प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री, जो पुराने नेता भी थे. वे कई वर्षों तक केंद्र में मंत्री और एकानेक प्रान्तों के राज्यपाल भी रह चुके थे.
सब कार्यक्रम ठीक चल रहा था. सभी वक्ताओं ने बहुत अच्छी-अच्छी बातें कही. महादेवी जी के दीर्घ जीवन की कामना की. हम सभी हिन्दी वाले लोगों ने उनकी कविताओं को स्कूल-कॉलेज के हिन्दी विषय के कोर्स में पढ़ा-गुणा था इसलिए सभी लोग इस विषय में आनंद ले रहे थे. मुख्य अतिथि जब अपना उद्बोधन करने लगे तो वे बोले, "...महादेवी जी की कवितायें मेरी समझ में तब भी नहीं आती थी जब मैं पढता था और आज भी नहीं आती हैं....लिखा कुछ ऐसा जाना चाहिए जो गरीबों के भी काम आये...."
ये क्या कह दिया मुख्यमंत्री जी ने? सब लोग स्तब्ध रह गए. प्रबुद्ध लोगों को गुस्सा भी आया. बाद में इस बाबत बहुत प्रतिक्रियाएं हुई. बहरहाल छायावादी साहित्य पर नेता जी की नासमझी थी. बड़ा दुःख हुआ.
पिछले कुछ वर्षों में कुछ लोगों ने नया शब्द गढ़ा है 'दलित-साहित्य'. नेता दलित हो सकता है, लेखक दलित हो सकता है साहत्य कभी दलित नहीं हो सकता है. यह महज एक अलगाववादी फितूर है.
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बहुत खूब कहा आपने, ज्ञान कभी दलित नहीं होता...जो वास्तविकता में महादेवीजी की कविताओं को समझना चाहते हैं, उन्हें स्वयं कुछ मस्तिष्क की वर्जिश करनी पड़ेगी और अंजाम में सिर्फ कविता ही नहीं, और भी ज्ञान प्राप्त होगा..
जवाब देंहटाएंanti sunder
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