उनका नाम महाराजा सागर सिंह, महाराजा इसलिए कि उनके पिता ठा. दिलावरसिंह भी महाराजा कहलाते थे. वे महाराजा इसलिए थे कि उन्होंने बूंदी नरेश के फौजदार के रूप में काम किया था और नरेश ने ईनाम के बतौर हरिपुर गाँव उनको जागीर में दे दी थी. वे हाड़ा वंश के राजपूत थे. अत: राजपूती आन, बान और शान उनको विरासत में मिली थी.
हरिपुर गाँव अरावली पर्वत माला की दो पहाड़ियों के बीच एक उपजाऊ जमीन का भू-भाग है. लगान में इतना अनाज मिल जाता था कि महाराजा के परिवार का ठीक से गुजारा हो जाता था. पिता के स्वर्ग सिधारने के बाद जब उनकी पगड़ी ठा.सागर सिंह के सर पर आ गयी तो वह महराजा हो गए और महाराजाओं के शौक भी पालने लगे. सबसे घातक और खर्चीला शौक शराब का था जिसने जल्दी ही महाराजा को सड़क पर ला दिया. कुछ जमीन बेचनी पडी और छोटे भाई राजा भरत सिंह को सीमेंट कारखाने में नौकरी पर रखवाना पडा. बाद में कारखाने के पास कस्वे में ही अपना एक घर बनवा लिया. घर को वे अपनी आन के अनुसार हवेली ही कहा करते थे. हवेली पर लिखवा भी दिया ' हरिपुर हाउस' . कालांतर में आर्थिक स्थिति बदतर होती गयी और महाराजा हरिपुर पैदल हो गए.
कहते हैं कि दुर्भाग्य अकेले विपदा नहीं लाता है, ज्यादा वाइन के सेवन से महाराजा को लकवा हो गया.एक पैर, एक हाथ और एक आँख एक साथ लटक गए. कारगर इलाज था नहीं, झाड़-फूँक कराया गया, शेर की चर्बी से मालिश की गयी, तब जाकर महाराज लकड़ी टेक कर हाथ लटकाए, लंगडाते हुए धीरे-धीरे घर से निकलने लगे. लेकिन उनके स्वभाव का अक्खड़पन बढ़ता गया. चूंकि वे महाराजा थे, किसी को भी तू-ता और गाली दे कर संबोधित करने का उनका अधिकार परिचितों को रास आ गया था.
ये बातें बहुत पुरानी नहीं हैं, साठ के दशक की. उसी समयावधि में कस्वे में एक अन्य स्वनामधन्य व्यक्ति थे--नाम था रास बिहारी मिश्रा. वे सीमेंट कारखाने में क्लर्क पद पर कार्यरत थे. गाँव के गण्यमाण्यों में से थे. उनकी वाणी में बड़ा प्रताप था. वे काने को काना कहने से नहीं चूकते थे. हर बात में चूंकि, चुनाचे पर, लगाकर लोगों के व्यक्तित्व को छीलने में कसर नहीं रखते थे. जुबान ऐसी कि सामने वाला तिलमिला जाये. दूसरों का नाम बिगाड़ने में भी देर नहीं करते थे, जैसे मोरारजी को मरोड़ जी, चरण सिंह को चूरन सिंह, इंदिरा गांधी को ऊंद्रा (चूहा) गांधी आदि लम्बी फेरहिस्त उनके बयानों की होती थी. मिश्रा जी चुपके से लोगों को रुपये उधार भी दिया करते थे, व्याज भी लेते थे ऐसा लोगों का कहना था. एक उभरती हुई राजनैतिक पार्टी ने उनके ऊपर टोपी रख दी थी. तब से उनकी यह कमजोरी हो गयी कि जो भी व्यक्ति उनकी या उनकी पार्टी की तारीफ़ कर दे तो वे उस पर न्यौछावर हो जाते थे.
एक दिन महाराजा सागर सिंह बड़े आर्थिक कष्ट में थे तो उन्होंने मिश्रा जी के पास जाने की योजना बनाई. एक पैर रगड़ते हुए, लाठी टेकते हुए मिश्रा जी के निवास पर पहुँच गए. बाहर से ही अपने रौबीले स्वर में आवाज देकर बुलाया, बोले, "आजकल तुम्हारी पार्टी की बहुत जयकारी हो रही है." सुनकर मिश्रा जी प्रसन्नता को प्राप्त हुए तो महाराजा ने अपनी असली गोली दागी, "कुछ जरूरी काम आ गया है. दो सौ रुपयों की जरूरत आन पडी है" मिश्रा जी कुछ कहते उससे पहले ही महाराजा ने कहा, "एक दो महीनों में लौटा दूंगा." अब मिश्रा जी के पास कोई विकल्प नहीं था. घर से निकाल कर दो सौ रूपये महाराजा को दे दिए. यद्यपि उन्हें अपना रुपया देना सुरक्षित नहीं लगा, फिर भी सोचा जागीरदार आदमी है इतनी छोटी रकम पर बेईमानी क्या करेगा?
समय कभी रुकता नहीं, दिन-महीने बीतते गए आठ महीने हो गए. हाँ इस बीच महाराजा ने मिश्रा जी के घर एक बार चार भुट्टे, एक बार दो गन्ने और एक बार चने के बूटे किसी के हाथों भिजवाये जरूर थे. दीपावली पर खेत पर बुला कर एक पैग देसी दारू का भी लगवाया. पर मिश्रा जी के लिए ये छोटी सी बातें थी. वे इस मौके में थे कि ठाकुर कहीं मिले तो उसको रुपयों की याद दिलाई जाये. हुआ यों कि इतवारी हाट में मिश्रा जी सब्जी खरीदने गए तो महाराजा से आमना-सामना हो गया. मिश्रा जी ने बिना देर किये हुए बोला, "ठाकुर तुमने दो सौ रूपये लिए थे, भूल तो नहीं गए हो?"
इतना सुनना था कि महाराजा सागर सिंह अपना आपा खो बैठे, बोले, "अबे ओ कनोजिये, तू मुझे क्या बीच बाज़ार बेइज्जत करेगा? ये है हरिपुर नरेश की इज्जत? तुझे शर्म भी नहीं आई?"
मिश्रा जी को काटो तो खून नहीं, बोले, "मैंने गलती की कि आपको रूपये उधार दिए और इतने महीने हो गए."
महाराजा गुस्से में गुर्राए, "मैंने कुछ नहीं किया क्या?"
"क्या किया आपने?" मिश्रा जी बोले.
"अबे तुझे मक्के खिलाये, गन्ने चुस्वाये, बूटे भिजवाये और दिवाली पर दारू पिलाई."
इतना सुनना था कि महाराजा सागर सिंह अपना आपा खो बैठे, बोले, "अबे ओ कनोजिये, तू मुझे क्या बीच बाज़ार बेइज्जत करेगा? ये है हरिपुर नरेश की इज्जत? तुझे शर्म भी नहीं आई?"
मिश्रा जी को काटो तो खून नहीं, बोले, "मैंने गलती की कि आपको रूपये उधार दिए और इतने महीने हो गए."
महाराजा गुस्से में गुर्राए, "मैंने कुछ नहीं किया क्या?"
"क्या किया आपने?" मिश्रा जी बोले.
"अबे तुझे मक्के खिलाये, गन्ने चुस्वाये, बूटे भिजवाये और दिवाली पर दारू पिलाई."
आसपास लोगों का हुजूम इकट्ठा हो गया था. सबको छीलने वाले मिश्रा जी रुआंसे खुद को छिलते हुए देखते रह गए और महाराजा गाली देते हुए आगे बढ़ गए .
***
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें