बुद्धि किसी की बपौती नहीं होती, लेकिन बुद्धिहीनता किसी की भी बपौती हो सकती है. ऐसा ही हुआ एक बार बुद्धिहीनों के गाँव में. बिसनसिंह की भैंस की जवान थोरी ने डोकल (लकड़ी की बड़ी ठेकी -जिसमें दही को मथा जाता है.) में छांछ चाटने के लिए अपना सर घुसेड़ा और उसी में फस गया. अच्छा था कि बगल में थोड़ी हवा जाने की जगह थी, वरना थोरी दम घुटने से ही मर जाती. बिसनसिंह ने बड़ी कोशिश की लेकिन डोकल में से सर नहीं निकाल सका. गांव पड़ोस से लोग जमा हो गए पर डोकल निकालना किसी के बस में नहीं हुआ. किसी ने कहा प्रधान जी को बुलाओ. प्रधान देवीसिंह को बुलाया गया. प्रधानचारी तो उनको बिरासत में मिली थी पर वे भी अकल के पीछे लट्ठ लेकर चलने वाले ही थे. उन्होंने दो-चार मुक्के थोरी को और दो चार मुक्के डोकल पर मारे जिससे हालात पर कोई फर्क नहीं पडा. इसलिए पधान जी ने कहा कि थोरी की गर्दन काटनी पड़ेगी तभी डोकल निकलेगा. पानसिंह जो नवरात्रों में कालिका माई के मंदिर में बलि के जानवरों को छनकाने के विशेषज्ञ थे उनको बुलाया गया. उन्होंने स्थिति का जायजा लिया और बड़ियाठ (बड़ी दरांती) से एक छन्नैक में थोरी की गर्दन अलग कर दी. खून से धरती लाल हो गयी पर थोरी का सर दोकल में ही रह गया. अब क्या किया जाये ? प्रधान जी ने कुल्हाड़ी मंगवाई और दो चोट मारते ही डोकल फूट गया. सभी ने राहत की साँस ली.
बिसनसिंह बोला, "पधान जी, मुझे तो बड़ी खराब दशा आई हुई थी. तुमने बचा लिया."
इस पर प्रधान जी गर्व से बोले, "फिर कभी कोई ऐसा काम पड़े तो बुला लेना. संकोच मत करना."
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