( मेरी आत्मकथा 'बीते हुए दिन ' से )
बचपन की एक मजेदार बात मुझे याद आ रही है जबकि मुझे कोलम्बस बना दिया गया था. यह कोलम्बस उपनाम मुझे लम्बे समय तक सताता रहा. हुआ यों कि जब मैं आठ साल का था अपने पिता (स्वर्गीय प्रेम वल्लभ पाण्डेय) के साथ स्कूल जाता था. वे अध्यापक थे. उन्होंने दो कक्षाएं बढ़ा कर सीधे चौथी की परीक्षा दिला दी. मैं पास भी हो गया. उस साल, सन् १९४९ में, उत्तर प्रदेश में सभी मिडिल स्कूल जूनियर हाईस्कूल बना दिए गए और मैं सीधे छटी कक्षा में चला गया. आनन-फानन में तीन माह गुजरते ही तिमाही परीक्षा हुई. छपे हुए पर्चे जिला बोर्ड से आते थे.
सामाजिक ज्ञान में एक प्रश्न था-- कोलम्बस की यात्रा का वर्णन करो. मैंने इस बारे में न तो पढ़ा और न सुना था. अपनी कल्पना शक्ति का प्रयोग करके मैंने कोलम्बस की कल्पना किसी ऐसे स्थान के रूप में की जो हमारे कस्वे बागेश्वर के सामान छोटा-मोटा तीर्थस्थल हो, जहाँ पर उत्तरायणी या शिव रात्रि जैसा ही कोई मेला लगता हो. यात्रा क्या थी बस मेले में आने जाने का, खेल-खिलोने-मिठाई, खरीद-खाने, तथा घर लौटने की खुशी का वर्णन था. मुझे अब ठीक से सब कुछ याद भी नहीं है.
मेरे कक्षा अध्यापक थे श्री प्रयाग दत्त काण्डपाल. शायद उन्होंने ही मेरी कापी जाँची और बाद में क्लास मे मेरा खूब मखौल उड़ाया. मेरे पिता श्री को भी कहानी कह सुनाई. कक्षा के लड़के मुझे बहुत दिनों तक कोलम्बस नाम से चिढाते रहे. आज सोचता हूँ कोलम्बस होना कोई छोटी-मोटी बात तो नहीं है.
मैं समझता हूँ कि 'कोलम्बस की यात्रा' मेरी पहली रचना रही होगी जिसकी मीठी व भीनी-भीनी याद करके
मैं अपने बचपन में लौट सकता हूँ.
***
हा हा!! कोलम्बस जी, प्रणाम स्वीकारें...मजेदार संस्मरण...ऐसी मीठी यादें जीवन भर साथ चलती हैं.
जवाब देंहटाएंबहुत धन्यवाद आपने मेरे लेख को पढ़ा. ये पंक्तियाँ मैंने फरवरी १९८६ में लिखीं थी.
जवाब देंहटाएं