मुम्बई वाडी बन्दर क्षेत्र में एक मारवाड़ी सेठ का रुई साफ़ करके गाँठ बनाने का एक छोटा सा कारखाना काफी पुराना है. दो कुमाऊँनी वाचमैन इस में काम करते थे, धर्मानंद और परमानद. धर्मानंद देवली गाँव का और परमानंद मनकोट का रहने वाला था. दोनों को फैक्ट्री गेट पर ही एक एक कमरा रहने को दे रक्खे थे, जिसे वे खोली कहते थे. वे बारह-बारह घंटे ड्यूटी करते थे, एक दूसरे के रिलीभर थे. धर्मानद बड़ा ही कजूस व मक्खीचूस किस्म का आदमी था. उस सस्ते जमाने में महज सौ दो सौ रुपयों में खर्चा चला कर बाकी अपनी पत्नी के नाम मनीआर्डर कर देता था. जबकि परमानद बड़ा खर्चीला व दिलफ़रियाद था. उसने एक मराठी महरी, जिसका नाम चारुलता था, से दोस्ती कर ली और बाद में बतौर पत्नी अपने साथ रख लिया. मुम्बई में ऐसे मामलों में लोग ज्यादा तबज्जो नहीं देते हैं.
चारुलता से परमानंद की एक लड़की हुई जो बड़ी सुन्दर और चपल थी. नाम रक्खा गया शान्तुली. वह महानगरपालिका के स्कूल में हाईस्कूल तक पढी. जबकि धर्मानंद साल-दो साल में गाँव जाता था. उसके तीन लडके थे. उसकी पत्नी गोपुली ठेठ देहातन, असभ्य और कटुभाषी थी. चिट्ठियों में वह जानबूझ कर अपशब्द लिखवाती थी. धर्मानंद अपने बड़े बेटे किशन को १६ साल की उम्र में मुम्बई ले आया. वह आठवीं तक पढ़ चुका था. एक जयशंकर नाम का यु.पी. का ही टैक्सी ड्राइवर उनकी खोली/फुटपाथ पर सोने के लिए आता था. उसने पहले तो किसन को गाड़ियां धोने का काम दिला दिया, बाद में गाड़ी चलाना सिखा दिया और लाइसेंस भी बनवा दिया. इस तरह वह भी टैक्सी ड्राइवर हो गया.
चारुलता से परमानंद की एक लड़की हुई जो बड़ी सुन्दर और चपल थी. नाम रक्खा गया शान्तुली. वह महानगरपालिका के स्कूल में हाईस्कूल तक पढी. जबकि धर्मानंद साल-दो साल में गाँव जाता था. उसके तीन लडके थे. उसकी पत्नी गोपुली ठेठ देहातन, असभ्य और कटुभाषी थी. चिट्ठियों में वह जानबूझ कर अपशब्द लिखवाती थी. धर्मानंद अपने बड़े बेटे किशन को १६ साल की उम्र में मुम्बई ले आया. वह आठवीं तक पढ़ चुका था. एक जयशंकर नाम का यु.पी. का ही टैक्सी ड्राइवर उनकी खोली/फुटपाथ पर सोने के लिए आता था. उसने पहले तो किसन को गाड़ियां धोने का काम दिला दिया, बाद में गाड़ी चलाना सिखा दिया और लाइसेंस भी बनवा दिया. इस तरह वह भी टैक्सी ड्राइवर हो गया.
एक दिन परमानंद ने धर्मानंद और किसन को खाने पर बुलाया और बातों ही बातों में शान्तुली की शादी किसन से करने का प्रस्ताव रख दिया. शान्तुली गोरी-चिट्टी, सुन्दर नाक-नक्श वाली पढी-लिखी लडकी थी, धर्मानंद ने हाँ कर दी. कुछ दिनों के बाद पंडित बुलाकर दोनों के फेरे भी डलवा दिए. धर्मानंद ने अपनी पत्नी गोपुली देवी को पत्र में इतना ही लिखा कि किसन की शादी कर दी है. जवाब में गोपुली ने गुप-चुप शादी करने पर चिट्ठियों में बहुत लानत-मलानत लिख भेजी तथा किसन को ताकीद करती रही कि बहू को जल्दी घर लेकर आये. किसन भी माँ से बहुत डरता था, ना नहीं कर सका.
किसन शान्तुली सहित गाँव पहुँच गया. शान्तुली ने ऐसा कभी देखा न था.दूर-दराज के इस गाँव वालों के
लिए भी वह किसी अजूबी से कम नही थी. शुरू-शुरू में तो वह सब कुछ तमाशे के रूप में देखती रही. गोपुली देवी ने ठेठ गँवार अंदाज में उसका स्वागत किया. अत: यहाँ के रहन-सहन से उसे परेशानी हो रही थी. दस दिनों के बाद जब किसन ने मुम्बई लौटने की बात कही तो उसकी माँ ने कहा, "तू अभी अकेले जा. ब्वारी हमारे साथ रहेगी." किसन के लिए विकट स्थिति हो गयी. शान्तुली यहाँ की बोली भाषा तक नहीं समझ पा रही थी. पर माँ तो बड़ी अड़ियल थी नहीं मानी. गाली-गलौज पर उतर आई. आखिर किसन तीन महीनों में वापस आकर ले जाने का वायदा करके सरक लिया. शान्तुली पिंजरे में फंसे जानवर की तरह असहाय, असभ्य लोगों के बीच रह गयी. गोठ में एक भैस और दो बैल भी थे. घास काटने, लकडियाँ लाने के लिए तो सास ने अभी नहीं कहा पर गोबर उठाने का आदेश हो गया. शान्तुली ने गोबर उठाने से मना कर दिया. इस पर वह दुष्टा, माई-बाप की अशोभनीय गालियाँ देने लगी. खाने में मडुवा की रोटियाँ दी तो उससे खाई नहीं गयी. जीना दुश्वार हो गया.अपना दुःख किसको कहे? सिसकती रही, रोती रही. किसन पर उसको बहुत गुस्सा आ रहा था.
पड़ोस में सारी बातों की खुसफुसाहट थी पर गोपुली को सभी जानते थे कौन उसके मुँह लगे? सुबह-सुबह
पानी के धारे पर पड़ोस की एक बहू शान्तुली को मिली, उसने उससे बाजार का रास्ता पूछा और बिना किसी को
कुछ बताये वह बाजार तक आ गयी. उसने अपने कर्णफूल सिर्फ एक हजार रुपयों में बेच दिए. वहीँ से बस में बैठ कर मुम्बई के सफ़र में अकेले ही निकल पडी. पहले दिल्ली, वहाँ से मुम्बई पहुँच गयी.
उसने अपने माता-पिता को सारी दास्ताँ सुनाई कि उस नरक से वह कैसे छूट कर आई. किसन पालतू कुत्ते की तरह दुम हिलाता हुआ उससे मिलने आया पर वह गुस्से से भरी हुई थी, सम्बन्ध तोड़ने की बात करने लगी. बात जहाँ की तहां रुक गयी. दो-तीन महीनों के बाद मियाँ-बीबी में सुलह हो गयी पर मन में टीस गयी नहीं. इस बात को अब तीस साल हो गए.
इसके बाद शान्तुली ने नर्सिग स्कूल में दाखिला लिया.बी.एस.सी. नर्सिग करने के बाद वह जॉब करने लगी. आज भी वह सर हर किसनदास हॉस्पिटल में सीनियर नर्सिग स्टाफ में है. किसन आज भी टैक्सी चलाता है. उनके दोनों बच्चे पढ़ लिख कर बड़े हो गए हैं. बेटा ओबेराय-शेरेटन पांच सितारा होटल के रिसेप्शन पर बैठता है, बेटी फ़िल्मी सीरियलों में अदाकारी कर रही है. घाटकूपर में उनका अपना फ़्लैट है. धर्मानंद और गोपुली देवी कई साल पहले इस संसार से बिदा हो चुके हैं.
एक दिन जब सभी अच्छे मूड में थे तो शान्तुली ने किसन से कहा, "चलो एक बार मुलुक (पहाड़) जाकर
फिर से देख आयें. बच्चों को भी दिखा लायें. कहते हैं कि वहां सब कुछ बदल चुका है."
***
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें