कस्बे में अब तक कई हिन्दू लडकियां मुसलमानों के साथ भाग गई या अगवा कर ली गयी थी. वहाँ हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे जैसी कोई चीज नहीं थी. हर त्योहार या समारोह-जलसे में साम्प्रदायिक तनाव छाया रहता था. मुसलमान लोग स्वभाव से धर्मांध व कट्टरपंथी थे, प्रतिक्रिया स्वरूप हिंदूवादी संगठनों ने भी समानांतर मुस्लिम-विरोधी वातावरण बनाये रखा. ऐसे में एक हिदू लड़के ने रहमान साहब की लडकी राबिया को प्रेमजाल में फंसा लिया और छू मन्तर हो गया. बवाला तो होना ही था. लेकिन खुलेआम कुछ नहीं हुवा क्योंकि भगानेवाला लड़का वीरेंद्र उर्फ़ वीरू एक नामी गुण्डा व चाकूबाज था.
भगवानदास पुलिस में हेड कानिस्टेबुल थे. उनकी तीसरी औलाद वीरू बचपन से ही शरारती था, चोरियाँ करता था और मारपीट से नहीं डरता था. भगवानदास ने भी लड़के को खुली छूट दे रखी थी. लोगों की शिकायतों को उसने कभी गंभीरता से नहीं लिया. लड़का बिगड़ता चला गया. एक दिन जब बात बहुत बढ़ गयी तो वीरू को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया और जमकर पिटाई की गयी. नतीजा उलटा ही रहा. सुधरने के बजाय वीरू गुण्डई में पारंगत होता गया. जेल हुई तो वहाँ उसे बड़े बड़े उस्तादों की शागिर्दी करने का अवसर मिला और जब बाहर निकला तो उसका अपराधी नेटवर्क काफी विशाल हो चुका था. डर-खौफ उसे अब कत्तई नहीं था. वह 'दादा' बन गया था. किसी दूकानदार की हिम्मत नहीं होती थी कि वीरू से सामान का पैसा मांग ले. हालाँकि बलवंतसिंह थानेदार ने कई बार उसकी धुनाई की, वह था कि ढीठ होता चला गया.
रहमान साहब जाति से अंसारी थे. मुस्लिम बिरादरी में अपना आला स्थान रखते थे. कस्वे के बीचों-बीच उनका घर था. बगल में उनके आटे की चक्की चलती थी. वीरू अक्सर वहाँ आता और लम्बी बैठकें अपने यार दोस्तों के साथ करता था. रहमान साहब को लगता था कि वीरू की वजह से उनका धंधा सुरक्षित चल रहा है. रहमान को चाचा-चाचा कह कर उसने कोई न कोई बहाने से घर में भी आना-जाना शुरू कर दिया. मस्जिद में कई लोगों ने रहमान साहब को आगाह भी किया पर उन्होंने उनकी बातों को कोई तवज्जो नहीं दी; नतीजा एक दिन रात के अँधेरे में वह उनकी बेटी को लेकर फुर्र हो गया.
दो साल तक वीरू का कहीं अता-पता नहीं था. कस्बे में अमन का वातावरण रहा. लोग शकून महसूस कर रहे थे. एक दिन अचानक वीरू का अभ्युदय कस्बे में हो गया. साथ में राबिया और राबिया के गोद में दो महीने की एक बालिका. खूब कानाफूसी हुई पर गुंडों से तो भगवान भी डरते है. कुछ हिन्दू संगठनों के नेताओं ने भगवानदास के परिवार का सामाजिक बहिष्कार करने की बात चलाई लेकिन वीरू के आतंक से सब दुम दबा कर चुप हो गए.
वीरू भी कुछ कारोबारी हो गया. उसने एक पुराना ट्रक खरीद लिया और खुद चलाने लग गया. इस बीच राबिया को भगवानदास के परिवार ने स्वीकार तो कर लिया पर राबिया अपने संस्कारों के वशीभूत हिन्दू परिवार
में समायोजित नहीं हो पाई. वीरू ने एक छोटा सा कमरा किराए पर ले लिया. और वहीं बालिका रोजी का लालन-पालन होने लगा. कलावती कन्या की तरह वह जल्दी-जल्दी बड़ी होती रही. स्कूल जाने लायक हो गयी तो एक दिन वीरू उसे सरकारी प्राइमरी स्कूल में भर्ती के लिए ले गया. वहाँ तमाम बच्चों से लेकर अध्यापक-अध्यापिकाओं की शंकित नजर रोजी पर लगी रही. वीरू इस नए अनुभव से बहुत आहत हुआ. उसने सोचा कि उसके द्वारा किये गए पाप कर्मों का फल अवश्य ही बालिका को भुगतने पड़ेंगे. लोगों की नजर में उसे हिकारत साफ दिख रही थी. कैसा भी दुष्ट-पापात्मा हो अपनी औलाद के लिए भला ही सोचता है. ये मानव स्वभाव है.
उन्हीं दिनों कस्वे में फादर सैम्युअल ने एक मिशन स्कूल खोला था. वीरू ने अपनी बेटी का दाखिला वहाँ करा दिया. फादर सेम्युअल बड़े दयावान व्यक्ति थे. प्यार भरा हाथ रोजी के सिर पर फिराते हुए वीरू से बोले, "तुम इसकी फ़िक्र मत करो, यहाँ और भी बच्चे हैं." फादर की वाणी में जो अपनापन था उससे वीरू के अपराधी मन पर भी ईश्वर के प्रति श्रद्धाभाव उत्पन्न हो आया और वह बेफिक्र हो गया.
दो वर्ष तक सब सामान्यतया ठीक-ठाक चल रहा था. बेटी अच्छे माहौल में स्कूल जा रही थी. पादरी साहब रोजी की खूब तारीफ़ करते थे. एक दिन वीरू को अपने जेल का साथी गुड्डू मिल गया. गुड्डू ने उसको अपने अफीम के धंधे में शामिल होने का न्योता दिया. अपराधी तो अपराधी ही रहता है. कुछ दिन शांत रहने के बाद उसके दिमाग के कीड़े फिर कुलबुलाने लगते हैं. इस तरह वह फिर से अपराध की दुनिया से जुड़ गया.
एक दिन वीरू पुलिस मुठभेड़ में मारा गया. राबिया और रोजी अनाथ हो गए. कोई मदद करने आगे नहीं आया. भयभीत लोगों ने खुशियाँ मनाई. फादर सेम्युअल ने घर जाकर राबिया से कहा, "रोजी की चिंता तुम मत करना हम इसको पढ़ाएंगे. हम इसको अपने साथ रखना चाहते हैं." राबिया ने हाँ कर दी. कुछ दिनों के बाद ही राबिया ने कल्लू मियाँ से निकाह कर लिया. रोजी चर्च की हो कर रह गयी. वहीं बड़ी होती रही, पढ़ती रही. पढने में होशियार थी. समय जाते देर नहीं लगती है. एक दिन उसने मेडिकल कालेज में दाखिला ले लिया. फादर उसको अपनी बेटी की तरह निगरानी में रखते आ रहे थे. एक दिन रोजी एम.बी. बी. एस. की डिग्री लेकर डाक्टर बन गयी.
फादर ने वहीं रह कर लोगों की सेवा करने के लिए उसके लिए डिस्पेंसरी की व्यवस्था कर दी. डॉक्टर रोजी गरीब-अमीर सभी तरह के रोगियों का इलाज करके थोड़े ही दिनों में बहुत लोकप्रिय हो गयी.
फादर भी बहुत खुश थे. वे उसके लिए एक योग्य वर की तलाश करने लगे. संजोग ऐसा हुआ कि उनका एक दोस्त पीटरसन आस्ट्रेलिया में था. जिसका बेटा डाक्टर स्टीफन भारत आया हुआ था. सम्पर्क हुआ और बात बन गयी. फादर ने उनकी शादी करा दी. चर्च में ही विवाहोत्सव हुआ. कस्वे के गण्य-मान्य तथा कई आम लोग शामिल हुए. बाद में डाक्टर जोड़े ने आस्ट्रेलिया जाने का निर्णय लिया. फादर ने भी इसमी अपनी रजामंदी दे दी. यात्रा की सब प्रक्रिया पूरी होने के बाद जाने की तारीख तय हो गयी. समाचार कस्बे में आग की तरह फैला. सभी चाहने वाले उदास थे. बिदाई की बेला में सैकड़ों लोगों का हुजूम इकट्ठा हो गया. सभी को रोजी के जाने का गम था. सभी की आखें नम थी. भीड़ के एक कोने में बुर्के में सिमटी राबिया अपनी बेटी के पास जाने में संकोच कर रही थी. रोजी की आखें भी अपनी माँ को खोज रही थी. उसने देखा पहचाना और पास जा कर राबिया से लिपट गयी. रुपयों का एक बण्डल माँ के आँचल में रखकर वह बिना कुछ बोले लौट कर गाडी में बैठ गयी.
हाथ से बाय-बाय करते हुए हमेशा के लिए आस्ट्रेलिया चली गयी.
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