लेनिन के जमाने में एक रूसी पत्रकार को भारतीय मित्रों ने अपने देश आने का निमंत्रण दिया था, वह आया. खूब आवभगत की गयी. एक बंधु ने उत्सुक्ताबस उससे पूछा, “कामरेड क्या आप भगवान को मानते है?” उसने उत्तर दिया, “नहीं हम भगवान जैसी किसी अथॉरिटी को नहीं मानते.”
उसके बाद वह भारत भ्रमण पर निकल गया. उसको पंजाब में स्वर्ण मंदिर से लेकर बनारस-जगन्नाथपुरी-तिरुपति बाला जी, दक्षिण में रामेश्वरम, गुजरात में सोमनाथ, राजस्थान में नाथद्वारा-पुष्कर आदि अनेक आस्थाओं के केन्द्रों में घुमाया गया. अनेक गाँवों और शहरों में आम लोगों की जीवन पद्धति पर उसने अध्ययन किया. पूरा देश देखने के बाद जब वह स्वदेश लौटने को हुआ तो उसको विदाई दी गयी. वहाँ फिर उसी बंधु ने उससे पूछा, “कामरेड आपने हमारा देश व यहाँ की सभ्यता अच्छी तरह देख ली होगी, अब भगवान के विषय में आपके सोच में कुछ बदलाव आया या नहीं?’
उसने बड़ी गंभीरता से उत्तर दिया, “हाँ, अब मैं भगवान को मानने लगा हूँ.”
“किस बात से आपके विचारों में इतना परिवर्तन आया?’ पूछा गया.
वह बोला, “देखिये इस देश में इतनी गरीबी-ग़ुरबत है, रोग-बीमारियाँ है, चोरी-लूटपाट है, भृष्टाचार-व्यभिचार है, रंजिश और झगड़े है; फिर भी लोग खुश हैं, शाम को भजन करते हैं, कव्वाली गाते हैं, मुजरे होते हैं, ढोल-मृदंग-मंजीरे बजाते है, और नाचते-गाते है. इससे मुझे यकीन हो गया है कि यहाँ अवश्य ही भगवान है जो ये सब बरदाश्त करने की शक्ति दे रहा है.”
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