शनिवार, 13 अगस्त 2011

अस्थि विसर्जन

         कुमायूं की नैसर्गिक सुन्दरता का वर्णन अनेक सैलानियों व लेखकों ने बड़े अच्छे  ढंग से किया है, लेकिन वहाँ के निवासियों को बहुत से अभावों व विषमताओं में जीवन गुजरना पड़ता है उनका वास्तविक अनुभव वही बयान कर सकता है जो भुक्तभोगी हो.

         रानीखेत से सिर्फ पंद्रह किलोमीटर दूर है एक गाँव, नाम है दिग्तोली. खड़े पहाड़ पर बसा हुआ ये गाँव ब्राह्मणों का गाँव कहलाता है. इलाके में इसी गाँव की जजमानी चलती है. पीढ़ियों से शादी-ब्याह, ज्योतिष कर्मकाण्ड यहीं के पंडित कराते आ रहे है. अब स्थिति काफी बदल रही है. पढ़े लिखे लोग गाँव से पलायन कर चुके हैं या कर रहे. पंडित अम्बादत्त ने भी अपनी पैत्रिक वृति छोड़कर रानीखेत में एक परचून की दूकान खोल ली. अपने बड़े बेटे शम्भूदत्त को उन्होंने दूकान के ही काम पर लगाए रखा. छोटा बेटा हरीशचंद्र पढाई में ठीक था, वह नैनीताल से बी.ए. पास करने के बाद पी.डब्लू.डी. में क्लर्क हो गया. यों जिन्दगी लीक पर चलती रही. अम्बादत अस्सी बरस की उम्र तक दूकान में बैठ लेते थे, पर अब जब उनके घुटने जवाब दे गए तो वे घर पर ही रहने लगे. नियमित पाठ-पूजा में समय बिताते थे. चूंकि मृत्यु एक शाश्वत सत्य है,  इसलिए पंडित जी ने एक दिन दोनों बेटों को बुला कर कहा, "मेरी मृत्यु के बाद तुम मेरी अस्थियों को हरिद्वार जाकर गंगा जी में विसर्जित करना. "वैसे कुमाऊ प्रदेश के लोग मृतकों का अग्नि संस्कार अपने नजदीकी गाड़-गधेरे-नदियों के संगम पर करते हैं. चिता जल चुकने के बाद अस्थियों को वहीं बहा देते हैं क्योंकि सारा जल-प्रवाह गंगा जी ही में मिलता है. पं० अम्बादत्त की स्वाभाविक मृत्यु छियानाब्बे वर्ष की उम्र में हुई. उनके आदेशों के अनुसार बेटों ने दाह-संस्कार के बाद कुछ अस्थियाँ (जिनको फूल भी कहा जाता है) चुनकर पोटली में रख दी ताकि हरिद्वार ले कर जा सकें.

         शम्भूदत्त कोड़ा बैठ गए. कोड़ा बैठना मतलब है प्रेतामा की हिफाजत हेतु ताम्बे के बर्तन में दीपक जला कर   पीपलपानी तक साधना करना. कोड़ा का शाब्दिक अर्थ है कोना. रिवाज है गाय के गोबर की बाड़ (घेरा) के अन्दर साधना करने वाले को सूतक के दौरान अलग रहना होता है. बिना हल्दी का अपना खाना खुद बनाओ. माँ गुज़री हो तो दूध मत पीओ, बाप गुजरे तो दही मत खाओ. कपडे उलटे पहनो. नियमित घाट जा कर पिण्डदान करो. सूतक में नमस्कार करना या लेना वर्जित है. बहुत सारी पौराणिक व्यवस्थाएं, मान्यताएं कुमाऊँनी समाज में मौजूद हैं. बहुत सारे अंधविश्वास व ढोंग भी हैं पर यहाँ उन पर चर्चा नहीं करनी है.

          अब शम्भूदत्त कोड़ा बैठ गए इसलिए हरिद्वार जाकर अस्थि विसर्जन का कार्यभार हरीश पर आ पडा. हरीश ने देश-दुनिया देखी थी और उम्र में भी वो पचास पार कर चुका था. इसलिए उनके अकेले ही हरिद्वार जाने में कोई परेशानी नहीं सोची गयी. चौथे दिन अस्थियों की पोटली लेकर वह चल दिया. रानीखेत तक पैदल रास्ता उसके बाद बस से हल्द्वानी और फिर सीधे हरिद्वार. वहां शाम तक पहुँच कर, सुबह-सबेरे गंगा स्नान करके पिता की अस्थियों को गंगा जी में प्रवाहित करके हरीश लौट गया. शाम पांच बजे रानीखेत पहुँच गया. रात उसे वही रुकना चाहिए था पर मन घर पहुँचने को बेकाबू हो रहा था सो चल पड़ा. जल्दी-जल्दी चला. सर्दियों के दिन छोटे होते है. कृष्ण पक्ष था. अंधियारा पसरने लगा. घर अभी भी तीन-चार किलोमीटर दूर था. मन घबराने लगा क्योंकि नीचे घाटी में सीधे उतराई और फिर आधा किलोमीटर सीधी चढ़ाई. घर की सीध पर यहाँ एक लोहार जीतराम का घर था हरीश को वह पहचानता था हरीश ने उससे छिलुके (चीड की लकड़ी के अन्दर की तैलीय छीलन) माँगे. छिलुके जला कर चल दिया पर दस मिनट के बाद ही छिलुके बुझ गए. अब स्थिति खराब हो गयी. ना आगे जा सकता था ना ही पीछे. घुप अन्धेरा हो गया. चीड़ के पेड़ों की साँय-साँय की आवाज से भयभीत हरीश हनुमान चालीसा का जाप करने लगा. जंगली जानवर, खासकर बाघ का ज्यादा डर था इसलिए बड़ी आवाज में पाठ करने लगा. प्यास के मारे गला सूख रहा था. एकाएक पिरूल (चीड की पत्तियाँ) में पैर फिसला और पंद्रह-बीस फुट नीचे आ गया. बड़ी चोट तो नहीं आई, हाथ-पैर अवश्य छिल गए. डर के मारे दर्द का एहसास भी नहीं हो रहा था. जिस पगडंडी पर वह चल रहा था वह खो गयी. अब और भी विकट स्थिति हो गयी, अँधेरे में रेंगकर नीचे जाना था. उसने घर वालों को आवाज देने की कोशिश की ताकि कोई सुन ले और बचाने के लिए आ जाए. पर ये क्या उसकी आवाज ही बंद हो गयी, बोल नहीं निकल रहे थे.
          
         नीचे गधेरे तक पहुँचने के बाद उसको दिशाभ्रम हो गया घर की तरफ जाने के बजाय वह श्मसान की तरफ बढ़ने लगा. उबड़-खाबड़, पथरीले ढलानों पर चलते हुए उसको साक्षात मौत का सामना महसूस हो रहा था ठण्ड की वजह से शरीर ठंडा हो गया और सुन्न पड़ गया तो वह एक पत्थर पर बैठ गया.

          जीतराम का भला हो, उसने हरीश के विषय में ठीक अनुमान लगाया और अपने टीले पर ऐसी समानांतर जगह जाकर आग जलाई जहां से वह सामने हरीश के घरवालों को आवाज दे सके. सर्दी की वजह से घरवाले सब दरवाजे बंद करके बैठे थे. हरीश के आज लौटने की उम्मीद नहीं थी. सौभाग्य से घर का कोंई सदस्य लघुशंका के लिए बाहर आया और जीतराम की हल्की सी आवाज सुनी. वह चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा था कि हरीश बाबू गधेरे में हैं. तुरन्त प्रतिक्रिया हुई. गाँव के लोग टार्च-लालटेन लेकर दौड़ पड़े. बड़ी खोजबीन के बाद हरीश अर्धमूर्छित अवस्था में मिल गया. घर लाया गया, भभूत लगाया गया, कई दिनों में नॉर्मल हो पाया.

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