आज से दो हजार साल पहले की कल्पना कीजिये, न हवाई जहाज, न समुद्री जहाज, न रेल गाड़ी, न मोटर गाड़ी, और न साइकिल. पता नहीं तब बैल गाड़ी भी ईजाद हुई थी या नहीं? पर इतना जरूर था कि सड़कें नहीं थी.
उस युग में जो जहां था, जैसा था; स्थानीय साधनों पर जीता-मरता रहा होगा. कुछ पीर, फकीर, साधू, सन्यासी व घुमक्कड़ लोग देशाटन करते रहे होंगे, जिनका कोई इतिहास-आख्यान मौजूद नहीं है. बहुत बाद से अलबत्ता कुछ यात्रा वृत्तांत लिखा जाने लगा. जिनके सूत्रों को पिरोकर प्रागऐतिहासिक काल से मध्य युग की दूरी का आकलन आज हम करते है. अनेक रिसर्च स्कालरों ने अपनी अपनी लेखनी को टार्च के रूप में प्रयोग करके उस अंधेरी गुफा में रोशन करके देखा है.
कहते हैं कि हिन्दुस्तान से लेकर फारस, मिश्र, तुर्की व यूरोप तक लोग आते जाते थे. कितनी दुष्कर रही होगी उनकी यात्राएँ ये कल्पना मात्र से ही हम सिहर जाते हैं. हिन्दुस्तान के पीर-फकीरों व नजूमियों (ज्योतिषियों) की बाहर बहुत इज्जत होती थी, ऐसा बाहर के देशों के इतिहासों में भी वर्णित मिलता है.
एक बार एक फ़कीर फारस तक पहुँचा तो वहाँ के लोगों ने उसे अपने बादशाह शाह फरत-उल सुलेमान के बारे में शिकवे सुनाये कि वह अनेक वर्षों से शासक था लेकिन जनकल्याण के कोई काम नहीं करता था. लोगों से खूब टैक्स वसूलता था. हर साल अपने महल के सामने सोने का एक चबूतरा बनवाकर अपना शौक पूरा करता था. इस प्रकार ४० चबूतरे वह बनवा चुका था. फ़कीर ने बादशाह की इस बात पर एक सबक सिखाने का मन बनाया और जब महल में हिन्दुस्तान से फ़कीर आने की खबर हुई तो बड़ी आवभगत होने लगी. बादशाह ने उसे अपने साथ भोजन करने का निमंत्रण दे दिया. फारसी भाषा का ज्ञान होने के कारण विचारों का आदान-प्रदान भी होता रहा.
भोजन के उपरान्त बादशाह ने बड़े अदब से फ़कीर को सलाम बजाते हुए कहा, “हमारे लायक कोई और खिदमत हो तो जरूर फरमाइए.”
फ़कीर इसी आफर की प्रतीक्षा में था. उसने तुरन्त अपने कुर्ते में से एक छोटी सी लोहे की सुई निकाली और बादशाह को सौंपते हुए कहा, “अब आपकी व मेरी मुलाक़ात जन्नत में होगी. आप मेहरबानी करके मेरी ये अमानत संभाल कर रख लें तथा वहीं मुझे वापस करें क्योंकि मैं अपने हाथ से ही सिले कपड़े पहनता हूँ. ये मेरे काम आयेगी.”
बादशाह फ़कीर की बात को समझ नहीं पाया. बोला, “मुझे ये तो बताइये कि इस सुई को मैं वहाँ ले कैसे जाउंगा? क्योंकि मौत के बाद तो सब सांसारिक सामान यहीं रह जाएगा.”
फ़कीर ने जवाब दिया, “तुम्हारा इतना सोना साथ में जन्नत में जायेगा तो क्या इसके साथ मेरी एक सुई नहीं जा सकती है?”
इस व्यंग व आध्यात्मिक उलाहना से बादशाह को ज्ञान प्राप्त हुआ और उसने तमाम दौलत अपने शेष कार्यकाल में लोक कल्याण के कार्यों में लगा कर इतिहास में अपना नाम अमर कर लिया.
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