शुक्रवार, 16 सितंबर 2011

चुहुल - ३

आंध्रप्रदेश के एक मुख्यमन्त्री केवल तेलुगु भाषा का ज्ञान रखते थे. वे किसी जमाने में सड़क छाप हुआ करते थे. कभी कभी आदमी के सितारे बुलंद होते हैं. पार्टी में उनकी वफादारी तथा सक्रियता उनको इस पद तक ले आई थी. मुख्यमन्त्री के रूप में जब वे अपने लाव-लश्कर के साथ हैदराबाद शहर में कार से जा रहे थे तो रास्ते में उनको अपने पुराने दिनों का सिनेमाहाल नजर आया. उन्होंने अपने पी. ए. से पूछा, इसमें आजकल कौनसी पिक्चर चल रही है?

पी. ए. ने कहा, सर आजकल रिनोवेशन चल रहा है.

मुख्यमन्त्री ने कुछ नाराजी के स्वर में कहा, तेलुगु देश में अंग्रेजी पिक्चर कितने लोग समझेंगे?

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नेहरू जी को आगरा के पागलखाने के नए विंग के उद्घाटन के लिए बुलाया गया था. तब सेक्युरिटी का तामझाम आजकल की तरह नहीं होता था. नेहरू जी के साथ बड़ी टीम थी. एक पागल घूमता हुआ उनके सामने आ गया और बोला, अच्छा, तुम अपने आप को जवाहर लाल नेहरू समझते हो?

नेहरू जी ने हँसते हुए कहा, हाँ, मैं जवाहरलाल ही हूँ.


पागल मुस्कुराया और बोला ठीक है, मैं भी जब यहाँ आया था तो अपने आप को महात्मा गांधी समझता था.

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एक पति और उनकी पत्नी के बीच बहुत प्यार था. एक दिन पति सोते ही रह गए, उठे नहीं. पत्नी विलाप करती रह गयी, "कुछ बता कर भी नहीं गये, कुछ कह कर भी नहीं गए."

समय का चक्का तो घूमता ही रहता है. उनको गुजरे साल होने को आया. एक दिन जब वह याद कर-कर के रो रही थी तो एक रिश्तेदार ने बताया कि एक तांत्रिक है जो प्लेनचिट् (टेलीग्राफ मशीन जैसी डिवाइस) से दिवंगत आत्मा से बात कराता है. उसे बुलाया गया. प्लेनचिट् पर संपर्क होने पर तांत्रिक माध्यम की तरह बोल रहा था. बोला, अब आपको जो पूछना है पूछिए."

पत्नी ने पूछा, आप कैसे हैं?

उत्तर आया, अच्छा हूँ.

पत्नी, कुछ खाते-पीते हो या नहीं?

उत्तर आया, खूब खाता हूँ, सुबह से शाम तक खाता रहता हूँ.

पत्नी, और कौन है साथ में?

उत्तर आया, बकरियां ही बकरियां हैं.

पत्नी स्वर्ग में बकरियां भी होती हैं क्या?

उत्तर आया, मैं स्वर्ग से नहीं, हिमालय के बुग्याल (चारागाह) से बोल रहा हूँ. मैंने अगला जन्म बकरे के रूप में ले लिया था. मैं मजे में हूँ.

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