सोमवार, 26 सितंबर 2011

प्रतिबिम्ब


निशा के देहरी तक आने के पहले पहले
 सांझ की स्वप्निल आभाषों के बिम्ब
  किसी विसरे विम्ब को उद्वेलित कर एकाएक
   उमड़ी घटाओं के दर्शनाथ प्रेरित कर
    भरपूर जलाशय के जाने-पहचाने छोरों पर.

पथ के उबडखाबड पीड़िकाओं को लांघ-लांघ कर
 सुखों के रक्त से रंजित नेत्र-गात्र-मस्तिस्क
  स्मृतियों के बिम्बों को अनमने भावों से धोने को
   बिम्ब सामान विचलित , गहन, पर उथला भी.

पथ के उपपथ पर ही अपश पर प्रसन्न सा पशु
 अपने बिम्ब पर चरता जाता है सस्वाद निरंतर
  बोझिल कल क्या था,क्या होगा आनेवाला भी?
   इन रूढित बिम्बों-प्रतिबिम्बों से हो बेसुध .

जलाशय के मन मंदिर पर मेघ का स्पष्ट बिम्ब
 निष्कपट क्रियाएँ, अठखेलियाँ, मुस्कानों की भरमार
  अम्बार चाह के प्रितिदानों को देखा-भाला
   फिर देखा उसी मेघ के बिम्ब में मचलता एक बिम्ब
    जो अपना था और उस पर बिम्बित था एक सपना
     निशा बढ़ चली देहरी से भी, पर न टला प्रतिबिम्ब.
                     ***    

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