मंगलवार, 6 सितंबर 2011

एक विचार

पद्म भूषण स्वर्गीय राहुल सांकृत्यायन जी को हिन्दी साहित्य का महापंडित कहा जाता है. उन्होंने अपने जीवन काल में प्राचीन बौद्ध साहित्य व संस्कृति पर अतुलनीय कार्य किया. तिब्बती भाषा का व्याकरण लिखा, अनेक उपन्यास लिखे. पाली, संस्कृत, हिन्दी, नेपाली, भोजपुरी, व मराठी भाषाओं पर उनको समानाधिकार प्राप्त था. उनकी लिखी पुस्तकों की लिस्ट बहुत लंबी है. उन्होंने अपने जीवन के ३५ वर्ष यायावर की तरह साहित्यिक यात्राओं में बिताए. ये तमाम तथ्य उनके विराट व्यक्तित्व बखानते हैं. उनके नाम से आज भी अवार्ड दिए जाते हैं.

एक बार दिल्ली के एक आडिटोरियम में सांकृत्यायन जी को सम्मानित किया जा रहा था. मुख्य अतिथि तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरु जी बोल रहे थे, सांकृत्यायन जी साहित्य के महासागर  में तैरते है... पास में किसी श्रोता ने कमेन्ट कर दिया कि फिर भी पार नहीं पा सके."

नेहरु जी हाजिर जवाब तो थे ही, तुरंत टिप्पणी कर दी, पार तो वे पाते हैं जो कुवों-बावडियों में तैरते हैं.

आज भी हिन्दी साहित्य की सेवा में अनेक मनीषी लगे हुए हैं. अनेक विधाओं में उच्च कोटि का लेखन भी हो रहा है, लेकिन दूसरी तरफ घटिया सडक-साहित्य की बाढ सी आई हुई है. यह प्रदूषण कैसे रोका जा सकता है? इस पर विचार होना चाहिए.
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