मंगलवार, 13 सितंबर 2011

बोध

मुक्त स्व की परिधि में अशांति से जूझ कर
निर्मोही-निर्विकार निगाहें, किसी सन्यासी की तरह
पिछली भूली-बिसरी को पुन: पुन: देखती है सर्वत्र व्याप्त,
शंका, झूठ, कालिख, पशुता, छल और मिथ्याचरण.

कृष्ण-पक्ष की निशा में पथरीले पहाड़ी पगडंडी पर
विश्रान्त पथिक ने दीप लेकर, देखे एकांत में जाकर
शिलाओं की यथास्थिति, मिट्टी व कंकर का सम्बन्ध
अगल-बगल निलय झाडियों-लताओं के निकट बंध.

भयातुर पक्षी का अन्धकार की दिशा को जाना उड़कर,
बहुत अंतर पाया उसने दिवा प्रकाशमय से तुलना कर
प्रकाश की गरिमा अक्षत के स्थाई भाव की तरह
अन्धकार और मिथ्याचरण भी महासत्य हैं धरती पर.

                 ***.

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