हे स्वनाम धन्य भारत माता
तू जाता असंख्य महाँप्राणों की.
कल्पान्तर में समय समय पर
तेरे असंख्य नाम हुए हैं.
गरिमा गौरव की गाथाओं में
तू स्वयं ब्रह्म है, स्वयं विष्णु है,
परमातम और विधाता भी है.
तेरे ही लिए कहा है नेति नेति
हे प्रकृति! अपरिमित प्राकृत तेरा
ये श्रद्धा के फूल सजा कर
मैं पूजन करता हूँ तेरा.
उतुंग विशाल शीश हिमालय
अडिग शुभ्र अरु पावन.
प्रतीक बना है तेरा ही नित
पय श्रोतों का श्रोत सुहावन.
पूरब पश्चिम-उत्तर दक्षिण
चहुँ दिश फैले वन-उपवन
बहुविध भाषाएँ जन गण
सर्वस्व सभी कुछ जीवन दर्शन.
खेतों खलिहानों से लेकर
सुरसरि कालिंदी के लहरों तक
अनुपम स्वर संगीतों का लय
उच्छ्वास मातु तेरे ममतामय.
सागर चरण पखारे अविरल
नियति सराहे गाकर सरगम
षट ऋतुओं का मुड-मुड आना
नित्य नवीन जीवन का क्रम.
हे मातु! सहस्त्रों वर्षों तक
तूने संस्कृतियों को आधार दिए
मानव को मानवता तक लाने के
सत्याचरण के पाठ दिए.
जो कलुष-विहीन कलामय हो
अरु स्वर्णिम हो,मैं स्वर्ग कहूँगा ;
ऐसी धरती पर जन्म सहस्त्रों बार मिले
मैं फिर फिर जीवन उत्सर्ग करूँगा.
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