शुक्रवार, 23 सितंबर 2011

प्रभु की माया

राजा धर्मवीर का राज्य अरावली पर्वतमाला के मध्य क्षेत्र में बड़ी खूबसूरत जगह पर स्थित था. साम्राज्य बहुत लंबा चौड़ा नहीं था, पर सब तरफ से सुरक्षित व धन-धान्य से संपन्न था. किले की चहारदीवारी बड़ी मजबूती से बनाई गयी थी. क्योंकि उस जमाने में आतताई लुटेरे आकर नुकसान और आतंक कर जाते थे.
     


राजा धर्मवीर बड़े दयालु व धार्मिक प्रवृति के व्यक्ति थे. जिस दिन उन्होंने गद्दी सम्हाली, एक ही वाक्य में अपनी नेक नियत का ऐलान कर दिया कि राज्य में रामराज जैसी व्यवस्था रहेगी. उन्होंने अपने शासन काल में अनेक कुँवे-बावड़ी खुदवाए, मंदिर बनवाए और परमार्थ के अनेक कार्य किये. वे अनन्य शिव भक्त थे. नित्य-प्रति उनके महल में पार्थिव पूजा होती रहती थी. भगवान शिव की उन पर बड़ी कृपा भी थी. जब से वे गद्दीनसीन हुए कभी अकाल नहीं पड़ा, न कोई दैवीय आपदा या बीमारी उनके राज्य में हुई. लोग खुश थे, खुशहाल थे. फिर भी राजा शिव-भक्ति में तल्लीन रहते थे. एक दिन भोले बाबा ने देखा कि राजा बहुत तपस्यारत हैं तो उन्होंने साक्षात प्रकट होकर उनको दर्शन दिए और कहा, वत्स! तुमको क्या चाहिए जो इतनी तपस्या को उद्यत हो?

राजा ने भगवान को प्रणाम किया और विनीत स्वर में कहा, प्रभु आपने मुझे सब कुछ दे रखा है. मुझे और कुछ नहीं चाहिए. मैं तो आपके साक्षात दर्शनों का अभिलाषी था सो आपने मुझे दे दिए हैं. ये कहते हुए राजा भोले के चरणों में आ गए. भगवान बहुत प्रसन्न हुए और बोले, कुछ मांगना है तो मांग ले.

राजा ने कहा, मुझे तो आपने मोक्ष के द्वार पर ला दिया है. मैं चाहता हूँ कि आप मेरे किले के अन्दर रहनेवाले समस्त जनता को भी दर्शन देकर सबका तारन कर दें.

शंकर भगवान थोड़े अनमने से हुए और बोले, तेरे किले के अन्दर तो सब तरह के लोग रहते हैं--अच्छे लोग हैं तो बुरे कर्मों वाले भी हैं, चोर, बदमाश, पापी है--उनको मैं कैसे दर्शन दे सकता हूँ? क्योकि कर्मों के आधार पर ही सारी व्यवस्था रखी गयी है.

राजा ने कहा, आपने खुद ही कहा कि कुछ मांग ले, सो मैंने मांग लिया है अब आपकी मर्जी है.

भगवान असमंजस में पड़ गए. उन्होंने ये बात कह कर समस्या का समाधान निकाल लिया कि किले से ५ मील दूर टीले पर उनका एक छोटा सा मंदिर बना हुआ है, जहाँ पर वे अगले एकादशी को सुबह दूसरी पहर तक दर्शन देंगे. जो भी वहाँ आएगा दर्शन लाभ प्राप्त कर सकेगा. साथ ही उन्होंने राजा को ये ताकीद भी कर दी कि उनके सिपाही लोगों को किले से जबरदस्ती चलने को तो कह सकेंगे पर अगर रास्ते में से कोई लौटना चाहेगा तो उसे रोका नहीं जाएगा. ये कह कर भगवान अंतर्ध्यान हो गए.

राजा प्रसन्न हो गए. किले के अन्दर आदेश हो गया कि एकादशी के दिन लूले-लंगड़े, अंधे-काने सबको शिव दर्शन के लिए चलना होगा. हुआ भी यही--सिपाहियों ने बूढ़े-बीमारों तक को किसी न किसी प्रकारं चलने के लिए किले से बाहर कर दिया.

उधर भोले ने ऐसी माया फैलाई कि आधे मील की दूरी पर सडक के दोनों ओर चवन्नी के ढेर लगा दिए. लोग उनको समेटने के लिए टूट पड़े. जिसके पास जो कपड़ा या थैला जैसा भी था भर-भर के उठाये और वापस चल पड़े.
आधे लोग तो चवन्नी में ही शंकर का रूप देख कर घर आ गए.

जलूस आगे चला. अगले आधे मील पर उसी प्रकार अठन्नियाँ पड़ी थी, कमजोर नियत के लोग खुद को नहीं रोक पाए. और अठन्नियों का बोझ लेकर घर आ गए.

इसी प्रकार अगले एक मील के पड़ाव पर शानदार चमकीले चांदी के कलदार रूपये पड़े थे. उससे बड़ा सिक्का हो नहीं सकता था. इसलिए मजबूत इरादों वाले लोग भी रूपये समेट कर चल दिए.

फिर भी जलूस में एक चौथाई लोग बचे थे जिनको ललचाने के लिए सोने की गिन्नियां काफी थे. कारवाँ घटता गया और ४ मील के आख़िरी पडाव पर हीरे और जवाहरात थे. अच्छे अच्छों के नियत डोल गयी. लेकर लौट चले.

राजा जब मंदिर में पहुंचे तो उनके साथ केवल उनकी महारानी और एक साधू ही पहुंचे.

भगवान ने राजा धर्मवीर से पूछा, आनेवाले इतने ही हैं क्या?

राजा ने भोले की वन्दना की और कहा, प्रभु आपकी माया अपरम्पार है.
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(ये काल्पनिक कथा मैंने बचपन में मानो नेपथ्य में सुनी थी. आज उसी को शब्दबद्ध कर दिया है.)
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