परमेश्वर ने हम मनुष्यों को तमाम नियामतों से नवाजा है, साथ ही ऐसे माया-जाल में भी उलझा रखा है कि जब तक संभलें जीवन पूरा हो जाता है. बहुत सी इच्छाएं आकांक्षाएं अधूरी रह जाती हैं. सनातन धर्म के अनुसार अतृप्त इच्च्छओं की वजह से ही प्राणियों को बार-बार जन्म लेना पड़ता है. इसी जन्म-मरण के क्रम में पाप और पुण्य की परिभाषाएँ बनाई गयी हैं. माया-मोह का एक सुन्दर उदाहरण स्कन्द पुराण में वर्णित है. कि एक त्रिकालदर्शी गुरू ने अपने आश्रम में अपने चेलों को बुला कर कहा अब उनका शरीर जीर्ण हो चुका है और इसको छोड़ने का समय नजदीक है. जैसा भगवत गीता में भी लिखा है ‘वासांसि जीर्णानि यथा विहाय:...’
गुरू ने अपने अगले जन्म का गुणनफल कर के बताया कि कर्मानुसार उनका जन्म शूकर (सूअर) योनि में होना है. अमुक तिथि को, अमुक स्थान पर, अमुक शूकरी के गर्भ से वे बाहर निकलेंगे. पूरी कैफियत उन्होंने बता दी और कहा कि सूकर योनि में वे नहीं रहना चाहेंगे क्योंकि ये योनि प्राणियों में सबसे निकृष्ट है. बिस्टाभोज्यी व नारकीय है. अत: उन्होंने अपने चेलों से कहा कि शूकर के बालरूप में पैदा होते ही उसको मार दिया जाए.
चेलों ने गुरू जी से पूछा कि शूकरी के तो अनेक बच्चे होंगे आपको पहचाना कैसे जाएगा?
गुरू ने बताया, "मैं अकेला ऐसा रहूँगा जिसके सफ़ेद तिलक निकला होगा.”
चेलों ने गुरू जी की आज्ञा शिरोधार्य की. गुरू जी ने जब शरीर त्याग दिया तो निश्चित तिथि पर, निर्धारित स्थान पर चेलों ने देखा कि शूकरी के १२ बच्चे पैदा हो गए हैं, उसमें से एक तिलकधारी अलग ही दीख रहा था. चेलों ने उसे समूह से अलग करके मारने के लिए हथियार उठाया तो वह बच्चा आर्तस्वर में बोला, “मुझे मत मारो, मैं अभी-अभी इस संसार में आया हूँ. मेरी माँ व मेरे भाई-बहन सब यहाँ हैं. मुझे उनसे अलग मत करो.”
चेलों ने आपस में चर्चा की और निर्णय किया कि गुरू जी स्वयं बोल रहे हैं तो मारना उचित नहीं है. उनको कर्मों के फल नियति के अनुसार भोगने दो .
इस प्रकार महान ज्ञानी भी माया जाल से बाहर नहीं निकल पाए.
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