शनिवार, 10 सितंबर 2011

हमारे कर्णधार - दो दृष्टान्त

                                  ( १ )
धर्मयुग एक समय में हिन्दी की लोकप्रिय साप्ताहिक पत्रिका थी. उसमे बहुत वर्ष पहले बिहार के एक सांसद सूर्यप्रताप नारायण सिंह जी का सुन्दर लेख-विवरण छपा था, जिसमें उन्होंने विस्तार से बताया था कि नेहरू जी ने उनको तथा दो अन्य महारथियों को बिहार के ही किसी राजा (जागीरदार) को पार्लियामेंट का चुनाव लड़ने के लिए तैयार करने का निमंत्रण-आग्रह देने की जिम्मेदारी दी. ये तीनों महानुभाव जब राजा जी के ठिकाने पर पहुंचे तो स्वागत में एक २५-२६ वर्षीय सुन्दर-सुडौल, सुसंस्कारित नौजवान सामने आया. 
जब वह थोड़ा इधर उधर हुआ तो उन तीनों में खुसर-पुसर हुई. सभी की राय यही थी कि अगर ये लड़का संसद में पहुचा तो देश का भविष्य सही हाथों में रहेगा. लेकिन जब उसको नेहरू जी का पत्र थमाया तो वह थोड़ा मुस्कुराया, बोला, मैं अभी पिता जी को बुलाता हूँ. आगंतुकों की समझ में आया कि उम्मेदवार ये नहीं इसके पिताश्री होने वाले हैं. 


थोड़ी देर बाद अन्दर से एक सुन्दर व्यक्तित्व वाला ५०-५५ वर्ष का राजसी व संभ्रान्ति-कांतिपूर्ण व्यक्ति नमस्कार करते हुए सामने आया तो उन तीनों ने उसको योग्य उम्मेदवार के रूप में देखा और उसकी मैच्युरिटी को विशेष योग्यता देकर वरीयता सूची में रखने के लिए नेहरू जी की दूरदर्शिता को सराहा. बातचीत मुख्य विषय पर आने पर उसने कहा, पिता जी आजकल थोड़ा अस्वस्थ चल रहे हैं. उनको आप लोगों की उपस्थिति की खबर दे दी गयी है. थोड़ी देर में आते ही होंगे. उसकी ये बात सुन कर तीनों लोग थोड़ा पशोपेश की स्थिति में आ गए, पर इन्तजार के अलावा और कोई विकल्प भी नहीं था. आधे घन्टे तक इधर उधर की बातें होती रही, तभी एक बुजुर्गवार का अभ्युदय हुआ जो कि ८० वर्ष से ज्यादा उम्र के लगते थे, आवाज में कम्पन थी.

परिचय होने के बाद राजा जी ने कहा, अगर नेहरू जी की इच्छा है तो मैं अवश्य चुनाव लडूंगा.

वे तीनों महानुभाव ये सोचते हुए लौटे कि भारत का भविष्य अगर इस तरह तीन पीढ़ी पूर्व के हाथों में रहेगा तो इन्कलाब कैसे आएगा ?

                                  ***

                                     (२ )
मैं आपको उस राज्य का नाम नहीं बताउगा जहां ये घटना घटी. विधान सभा के चुनाव हुए. सत्ताधारी पार्टी व विपक्षी पार्टी किसी को भी स्पष्ट बहुमत नहीं मिला. पुराने मुख्यमन्त्री धाकड़  राजनीतिज्ञ थे. रातों-रात ५ निर्दलियों को खरीद लिया. बाद में कुर्सियों के लालच में विपक्षी पार्टियों के ४-६ विधायक सत्ताधारी पार्टी में शामिल हो गए. दलबदल क़ानून बाद में राजीव गांधी के समय में आया, क्योंकि आयाराम गयाराम बहुत ज्यादा हो गया था.

मैं आपको उस विधायक का नाम भी नहीं बताऊँगा जिसने दलबदल किया और रातों-रात मन्त्री बन गया. वास्तव में वह गरीबी रेखा से नीचे के तबके से उठा था. उसकी विधान सभा क्षेत्र में उसकी जाति का बाहुल्य था, जीत गया. चुनाव लड़ना तब इतना महँगा भी नहीं था.

दलबदल-हॉर्सट्रेडिंग पर बहुत बवाला हुआ आंदोलन व हुल्लड़बाजी भी हुई, लेकिन आप जानते हैं हमारी जनता दूध की तरह उबलती है फिर ठण्डी हो कर मलाई की तरह पसर जाती है.

इस प्रकार मिस्टर एक्स मिनिस्टर बन गए लेकिन राजधानी के तौर तरीकों से अनभिज्ञ थे. कुछ ही दिनों के बाद उनके पड़ोस में एक पुराने मन्त्री ने कुछ खास लोगों को डिनर पर बुलाया. श्रीमान एक्स ने वहाँ का नजारा व ठाठ-बाट देखा तो अचंभित थे. एक खास चीज उनकी नजर में आई कि वहां एक ठण्डी अलमारी थी जिसमें अनेक पेय पदार्थ, आइसक्रीम और फल रखे हुए थे. उन्होंने एक कारिंदे से पूछा, इस मशीन को क्या कहते हैं? उसने बताया कि इसे रेफ्रिजिरेटर कहते हैं.
उनको स्टेट डिपार्टर्मेंट पर बड़ा गुस्सा आया और अगले ही दिन सम्बन्धित व्यक्ति के पास जाकर बोले, मेरे बंगले में ठण्डी अलमारी क्यों नहीं दी गयी? 
आफिसर ने कहा, सर फर्नीचर तो सभी बंगलों में एक सा है. 
सर ने कहा, मेरे में नहीं है. चलो बताओ.
आफिसर साथ गया. मन्त्री जी के बंगले के बरामदे में फ्रिज लावारिस सा खड़ा था, और उसके अन्दर जूते, चप्पल, झाडू, और पायदान ठूंस रखे थे.
                                  ***

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