बुधवार, 12 अक्तूबर 2011

यही तो सँसार है


ग्वाल्दम से कर्णप्रयाग जाते हुए एक सुरम्य स्थान आता है नारायण बगड. पिंडर नदी के पावन तट से थोड़ी दूर पठारी जगह पर बाबा त्रिलोकी दास कब आकर आश्रम बना कर रहने लगे थे, किसी को याद नहीं. वे अकेले नहीं आये थे उनके साथ उनका एक किशोर चेला भी था शिवनंदन. शिवनंदन को खुद भी याद नहीं कि वह बाबा के साथ कब और कहाँ से आया था. उसे बाबा कहीं से उठा कर लाए थे या किसी ने अपनी औलाद उनको सौंप दी थी इस बात का भी किसी को पता नहीं, पर वह लगता था किसी भले घर का बच्चा.      

बाबा त्रिलोकी दास हठयोगी थे. जटाजूट, भभूत, लंगोटी वाले अक्खड किस्म से थे. जहाँ पर उन्होंने कुटिया बनाई वहाँ पर बहुत सी बेनाप भूमि थी, बाबा ने बाड़ा बना कर धीरे-धीरे उसकी सीमा विस्तार कर लिया. करीब बीस नाली जमीन पर बाबा का कब्जा हो गया. जिसमें उन्होंने एक मंदिर भी बनवाया. शेष खाली जगह में बहुत से फलों के पेड़ लगाए तथा जमीन चौरस करके खेती लायक भी बना डाली. आस-पास गाँव वालों को भी बाबा पर अपार श्रद्धा होती गयी. दूर देवाल और थराली तक के लोग वहां आने लगे.

नीचे पिंडर का निर्मल जल प्रवाहित होता है, जो सीधे पिण्डारी ग्लेशियर से निकल कर आती है और आगे जाकर कर्ण-प्रयाग में अलकनंदा गंगा में मिल जाती है. गर्मियों में ग्लेशियर पिघलने से इसका जलस्तर स्वाभाविक रूप से बढ़ जाता है. बरसात में बाढ आने पर कभी कभी रौद्ररूप भी देखने को मिलता है.

उन दिनों इस प्रकार के अबैध कब्जों पर कोई रोक टोक भी नहीं थी, फिर साधु-संतों के लिए तो सब छूट थी. बाबा ने इतनी बड़ी इस्टेट तो बना डाली पर एक दिन बाबा बड़े विचित्र ढंग से इस संसार से विदा हो गए. वे नित्य की तरह स्नानार्थ जब नदी में उतरे तो ऊपर से जबरदस्त बाढ आ गयी और बाबा उसकी भेंट चढ़ गए.

बाबा की जलसमाधि के बाद अब पूरी जायदाद का मालिक शिवनंदन दास हो गया. उसने अगले पांच सालों में आश्रम के बगल में एक पहाड़ी डिजायन का दुमंजिला मकान बनवा लिया, दो गायें पाल ली, और खेती करने लग गया. गुरू के सानिध्य में काफी कुछ आध्यात्मिक ज्ञान भी उसे हो चुका था. अत: वह स्वयम्भू हो कर वहाँ रहने लग गया. अब उसके पास खुद के चेलों की कमी भी नहीं थी जो उसके कारोबार में सहायता के लिए तत्पर रहते थे.

जब हरिद्वार में कुम्भ हुआ तो शिवनंदन भक्तों को कारोबार सौंप कर अकेले ही कुम्भ स्नान को निकल पड़ा. हरिद्वार पहुँच कर नियमित स्नान करने के बाद जब वह नारायण बगड को वापस चला तो ठण्ड लगने के कारण बहुत अस्वस्थ हो गया. रास्ते में उसे जोगनियों के एक आश्रम में मजबूरन रुकना पड़ा. इस आश्रम में तीन सन्यासिनें थी जो बाल बिधवा होने के कारण कम उम्र में ही जोगिन बन गयी थी. उन्होंने शिवनंदन की इतनी सेवा टहल की कि वह इसकी कल्पना भी नहीं करता था. माता, बहिन या भार्या का प्यार क्या होता है इसका अनुभव शिवनन्दन को वहाँ सात दिनों के प्रवास में खूब हुआ.

मानव मन कभी कभी अपनी सीमाएं लांघ जाता है. शिवनंदन ने उन तीनों से सीधे सीधे कह डाला कि उसके पास घर है, आश्रम है और बहुत सारी जमीन है पर देख-रेख करने वाला कोई नहीं है अगर वे तीनों चाहें तो साथ चल सकती हैं. प्यार की भूखी और परिस्थतियों की मारी उन तीनों ने एक साथ शिवनन्दन के साथ चलने की हामी भर दी. बाबा जब उन तीन स्त्रियों के साथ नारायण बगड पहुंचे तो लोगों ने पहले तो छी: छी: किया लेकिन धीरे धीरे सामान्य होता चला गया. अब शिवनंदन दास अपने आप को शिव नंदन ध्यानी कहलाना पसंद करने लगे.

कालान्तर में उन तीन रानियों से शिवनंदन की तीन संताने हुई. बड़ी लड़की कुमारी दमयंती ध्यानी एम्.ए.एल.टी. करके अध्यापिका हुई तथा बाद में इंटर कॉलेज की प्रिंसिपल होकर रिटायर हुई. वह कोटद्वार में आशियाना बना कर रहती है. नम्बर दो सावित्री नर्स की ट्रेनिग करके अभी भी सरकारी नौकरी में है. सावित्री ने अपने अस्पताल के चौकीदार से ब्याह रचा कर अपनी गृहस्थी पक्की की. उसके तीन बच्चे भी है. सबसे छोटा बेटा हर गोविन्द ध्यानी गणित में M.Sc. करके कॉलेज में लेक्चरर है.

बाबा शिव नंदन ध्यानी कुछ साल पहले अपना शरीर त्याग कर दूसरे लोक को प्रस्थान कर गए थे. तीनों रानियां अब बूढी हो गयी है. बच्चे हर साल घर आते हैं और पिता के निर्देशानुसार भागवत की साप्ताहिक कथा अथवा प्रवचनों का श्रवण-सुख आम लोगों को कराते हैं और लंगर का आयोजन भी करते हैं.
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