विवाह एक सामाजिक बंधन है, समझौता है, मर्यादा है और सनातन धर्म के अनुसार एक आवश्यक संस्कार व अनुष्ठान है. सँसार के कई अन्य समाजों में भी विवाह नामक संस्था को पूरी सामाजिक मान्यता दी गयी है. ये मर्यादा की व्यवस्था ही मनुष्य को अन्य जानवरों से अलग करती है.
ऐतिहासिक परिपेक्ष में ये विवाह नाम की संस्था का उदय सभ्यता के विकास के साथ ही हुआ और विश्व के अलग-अलग भागों में अपने अपने ढंग से इसकी मान्यताएं स्थापित होती चली गयी. प्रागैतिहासिक काल में मनुष्य जंगली जानवरों की तरह जीवन यापन करता था इसलिए उस समय इसकी कल्पना करना कोई मायने नहीं रखता है. पर पौराणिक काल में हमारे ग्रंथों के अनुसार, विवाह एक धारणा बन चुकी थी और उसके कई प्रकार भी थे. प्रमुखतया गंधर्व विवाह, देव विवाह, ब्रह्म विवाह, आर्श विवाह, प्रजापत्य विवाह, राक्षसी विवाह, असुर विवाह तथा पिचास विवाह. ये सब देश काल या परिस्थिति पर निर्भर रहे होंगे. इन्ही का परिष्कृत या विकृत रूप आज भी हम अपना रहे हैं, यानि, एक अरेन्ज्ड मैरेज है तो एक लव मैरेज, कहीं जबरदस्ती है तो कहीं मजबूरी.
हमारे वर्तमान समाज में अरेन्ज्ड मैरेज अर्थात दोनों पक्षों की राजी खुशी से किया गया विवाह उत्तम माना जाता है. ये केवल दो व्यक्तियों का सम्बन्ध ही न होकर, दो परिवारों को जोड़ने वाला सम्बन्ध है. अग्नि, जो आदि-देव है, को साक्षी मान कर तन, मन व आत्मा के जन्म जन्मांतरण के एकीकरण स्वरुप माना जाता है. लव मैरेज चाहे घर-परिवार वालों की सहमति से किया गया हो या घर से भाग कर किसी मंदिर या अदालत की शरण में जाकर किया गया हो, अच्छा हो सकता है पर समाज की रूढियां इनको अभी भी भृकुटि तान कर ही देखती हैं.
आज इक्कीसवीं सदी में संचार क्रान्ति के बाद ये दुनिया सिकुड़ कर बहुत छोटी हो गयी है. स्त्री-पुरुष अपने सामाजिक मान्यताओं से ऊपर उठ कर अंतर्जातीय व अंतर्धार्मिक विवाह करने लगे हैं. ये जाति व धर्म की दीवारें रूढियों के रूप में विकसित हुई हैं, जहाँ कट्टरपंथियों ने अनेक प्रकार से बंधन लगाये हुए हैं, पर अब ये धीरे धीरे टूट रहे हैं.
रूस में स्टेलिन के जमाने में स्त्रियों व बच्चों का राष्ट्रीयकरण करके कम्युनिस्ट शासन में नया प्रयोग किया था, जो पूरी तरह असफल हुआ और पुन: पारंपरिक ढाँचे में ही लौटना पड़ा. यूरोप में नार्वे-स्वीडन जैसे देशों में आज वर्जनाहीन समाज है. जहाँ अब विवाह नाम की संस्था की कोई परवाह नहीं करता है क्योंकि वहाँ की संस्कृति बिलकुल भिन्न है. हमारे देश में भी बड़े शहरों में ‘लिव-इन’ यानि बिना शादी के पति-पत्नी के रूप में रहने वालों को अब कोई रोक टोक नहीं करता है.
लेखक इनकी सार्थकता व औचित्य के विवाद में नहीं पढ़ना चाहता है लेकिन जो कन्यादान वाली वैदिक रीति है उसकी दुनिया में कहीं भी शानी नहीं है. ये त्याग, समर्पण व प्रेम की पराकाष्ठा की आत्मीय व्यवस्था है. इसलिए अनेक अन्य धर्मावलंबी भी इसे स्वीकार करने को लालायित रहते हैं. ये एक बृहद विषय है क्योंकि पुरुष प्रधान समाज व स्त्री प्रधान समाजों की अलग अलग ढंगों से सोच विकसित हुई है. कुल मिलाकर स्वस्थ व सुखी गृहस्थ जीवन के लिए एक मर्यादा रेखा का होना आवश्यक है. पाश्चात्य देशों में मर्यादा रेखा कमजोर होने के कारण ही तलाक या विवाह विग्रह बहुत आम है. वहाँ रिश्तों की पवित्रता जैसी कोई धारणा मालूम नहीं पड़ती है.
अभी हाल में राजस्थान हाईकोर्ट ने एक आदेश में आर्य समाज मंदिर में जाकर जो लड़के-लडकियां माता-पिता या समाज से छुपकर जयमाला डालकर विवाहित होना चाहते हैं उनके लिए अब परिजनों की सहमति /उपस्थिति आवश्यक कर दी गयी है. इससे अनेक परिवार बच्चों से बिछुड़ने या बिखरने से बच सकेंगे.
किसी भी विषय में मत भिन्नता या अपवाद होना स्वाभाविक है इसलिए इस सामाजिक विषय में ‘चूँकि, चुनाचे, पर’ बहुत से है. परस्पर बिरोधी कारणों से वैवाहिक सम्बन्ध टूटने, पुनर्विवाह, और विधवा विवाह जैसे अनेक मुद्दे समाजशास्त्रियों के लिए विश्लेषण तथा मार्ग दर्शन करने के लिए हैं. बदलते समय के अनुसार हर विचार व व्यवस्था के मायने भी बदलते रहते हैं लेकिन सबका लक्ष यही है आदर्श सुखी जीवन, जिससे आदर्श सुखी समाज बनता है, और समाज से राष्ट्र.
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राजस्थान हाईकोर्ट का फैसला अचंभित करने वाला है। एक तरफ लीव टूगेदर पर सहमति दूसरी ओर परिवार के सदस्यों की रजामंदी, दोनो में विरोधाभास प्रतीत होता है। आलेख में इस पर भी प्रकाश डाला जाय तो बेहतर है।
जवाब देंहटाएंआपके आलेख सीधे-सीधे पाठकों से संवाद करते से लगते हैं। जिनसे जुड़कर अच्छा लगता है।
ज्ञान वर्धक लेख
जवाब देंहटाएंGyan Darpan
RajputsParinay
एक जरुरी पोस्ट, आपकी भाषा शैली से प्रभावित हूँ आभार
जवाब देंहटाएंविवाह सम्बन्धों पर द्र्श्टी डालता एक बहुत बढ़िया जानकारी पूर्ण आलेख।
जवाब देंहटाएंसमय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर जहाँ इस बार का आलेख बड़ा ज़रूर है किन्तु आपकी महत्वपूर्ण टिप्पणी की जरूरत है।
आप मोयी बिखेरते रहिये, हम चुनते जा रहे है, उत्तम लेख है.--धन्यवाद----'केवल'
जवाब देंहटाएंदेवेन्द्र जी, आपका बहुत धन्यवाद आपकी शंका निराधार नहीं है पर लेखक का काम तो बस्तुस्थिति बताना है, अब उसमे विरोधाभाष क्यों है इसका उत्तर तो वही दे सकते है जो समाज की परम्परा को नकार रहे है या जो इन विषयों पर अपना न्यायिक विश्लेषण कर रहे है.
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