रविवार, 16 अक्तूबर 2011

बहुरूपिया


सुख नगर के राजा मोहनचंद्र बहुत कला प्रेमी थे. उनके आश्रय में अनेक कलाकार रहते थे. विद्यावान व गुणी व्यक्तियों को वे हर तरह से प्रोत्साहित करते थे. कवि, भाट, चारण, नट, तथा जादूगर मनोरंजन के लिए स्थाई रूप से रखे गए थे. वे मासिक वेतन पाते थे. वहाँ की महिमा सुनकर जयपुर से कल्याणमल नाम का एक बहुरूपिया भी वहाँ पहुँचा और नित्य मेकअप करके नया रूप धारण कर राजा मोहनचंद्र के सामने उपस्थित होता था. वे उसके गेट-अप से खुश तो होते थे पर उसमें उनको कोई विशेषता नजर नहीं आई. एक दिन उसे पास बुलाकर उन्होंने कहा,  
कल्याणमल, बहुरूपिया तो ऐसा होना चाहिए कि पहचान में न आये. तुमको तो हम आते ही पहचान जाते हैं. कुछ ऐसा बन के बताओ कि हम तुमको पहचान ना सकें, तभी हम तुमको दस स्वर्ण मुद्राए दे सकेंगे.

कल्याणमल ने राजा को हाथ जोड़ कर कहा, अच्छा महाराज, अब मैं आपको ऐसा रूप दिखाउंगा कि आप सचमुच पहचान नहीं सकेंगे. ये कह कर कल्याणमल वहाँ से चला गया और सोचने लगा कि ऐसा चमत्कारिक रूप क्या हो सकता है? आखिर उसको ये सूझा कि साधु का रूप ऐसा है जिसमें बड़े बड़े चरित्र छिपाए जा सकते है. पूरी तरह पारंगत होने के लिए उसने सीधे हरिद्वार की राह पकड़ी, जहाँ स्वामी विश्वेश्वरानंद का योगाश्रम था. वह वहाँ पहुच गया और बाबा के चरणों में दंडवत करके दीक्षित करने का निवेदन किया. बाबा ने सहर्ष अपना चेला बनाने की सहमति दे दी तथा आश्रम में ही रहने की आज्ञा भी दे दी.

कल्याणमल अन्य शिष्यों के साथ योगाभ्यास करने लगा और नियमित रूप से बाबा के आध्यात्मिक प्रबचन सुनने लगा. पूरे दो वर्ष तक वह बाबा के सानिध्य में अमृत वाणी में सराबोर होता रहा. उसके जीवन में यह एक रोमांचक मोड़ भी था. बाबा बहुत पहुंचे हुए ज्ञानी साधु थे उन्होंने अपने प्रवचनों से सुपात्रों को उस मुकाम पर पहुँचा दिया जहाँ उन्हें परम शक्ति का स्वत: साक्षात्कार होने लगता है. इस दीन-दुनिया के परे आत्मा व परमात्मा के सत्य को पहचानने लगता है.

कल्याणमल तो बहुरूपिया था. यद्यपि वह महज अपने फन की महारत हासिल करने के लिए इस नाटक में शामिल हुआ, उसे जो ईश्वरीय अनुभूति यहाँ हो रही थी उससे वह सब पीछे छूट गया. वह वास्तव में संत-महात्मा हो गया. उसका नित्याचरण ही बदल गया. उसकी वाणी में सम्मोहन आ गया.

एक दिन उसके मन में राजा मोहनचंद्र की बातें घूम कर आई तो वह मन ही मन मुस्कराया. उसने सोचा कि सँसार में कितनी अज्ञानता, स्वार्थ और कलुषता है? इसके लिए एक बार सुख्नगर जाकर उद्बोधन करना चाहिए. रास्ते में उसने सोचा अगर उसको पहचान लिया जाएगा तो कोई भी उसके प्रबचन नहीं सुनेगा और उसकी बातें मखौल में ही ली जायेंगी. मनुष्य का भूतकाल उसके मरने के बाद भी उसका पीछा नहीं छोडता है. अत: उसने इसके लिए नई तरकीब सोची. सुख नगर से करीब चार मील दूर नदी तट पर एक सुन्दर स्थान पर एक कुटिया बनाई और वहीं योग-तप करने लगा.

आस-पास के गृहस्थ जन योगी बाबा का आगमन सुन कर उनके पास मडराने लगे तो बाबा कल्याणमल ने उनको कथा-कहानियों तथा प्रवचनों के माध्यम से मोहित करना शुरू कर दिया. उनकी कुटिया ने देवस्थान का रूप ले लिया. गुड़ हो तो मक्खियाँ अपने आप आ जाती हैं. वहाँ अब नित्य अनुष्ठान होने लगे. भेंट चढावा भी खूब आने लगा. जो भेट चढावा आता बाबा उसे श्रोताओं व भक्त जनों में वितरित कर देते थे. बाबा की वाणी में भी विशेष रस था इसलिए भी लोग खिचे चले आ रहे थे. इस प्रकार छ: महीनों में ही बाबा की कुटिया ने तीर्थ का रूप ले लिया.
ये समाचार राजा मोहनचंद्र को कई बार मिल चुका था कि कोई ज्ञानी संत-महात्मा उनके राज्य में लोगों को पुन्य बाँट रहे है. और अच्छी शिक्षाएं दे रहे हैं. उन्होंने अपने मंत्रियों से मंत्रणा करके बाबा के दर्शनार्थ उनकी कुटिया में जाने का कार्यक्रम बनाया. वे वहाँ जाकर उपस्थित जन समूह व इसके अनुशासित उत्साह को देख कर दंग रह गए.

बाबा एक मंच पर से वेद और उपनिषदों की व्याख्याएं करके स्वच्छ जीवन की विवेचनाएँ व कथाएं कह कर श्रोताओं को मन्त्र मुग्ध किये जा रहे थे. राजा मोहनचंद्र भी उनके अनमोल वचन सुन कर अभिभूत हो गए. प्रवचन समाप्ति पर राजा ने बाबा को प्रणाम कर एक थाल में स्वर्ण मुद्राएँ, फल-फूल व कीमती उपहार बाबा को भेंट किये. बाबा ने थाल की स्वर्ण मुद्राएँ व उपहार जन समूह की तरफ उछाल कर फैंक दी.

बाबा ने राजा को यशस्वी भव: का आशीर्वाद दिया और अपने साथ कुटिया के अन्दर आने का न्योता दिया. क्योंकि वह सबके सामने अपने पुराने सत्य को उदघाटित नहीं करना चाहते थे. अन्दर जाकर राजा जब साधु के समक्ष हाथ जोड़ कर खडा हुआ तो साधु ने उसको बताया कि वह बहरूपिया कल्याणमल है और अब वचन निभाने के लिए मिलने आया है. राजा को आश्चर्य हुआ और सदमा भी लगा. बोले, तुमने सिर्फ दस मुद्राएँ पाने के लिए मेरे दिए लाखों के उपहार फेंक दिए?

इस पर बाबा कल्याणमल बोले, राजन, अब मुझे स्वर्ण मुद्राएं व उपहार नहीं चाहिए क्योंकि मेरे गुरु के सानिध्य में मुझे ईश्वरीय अनुभूति की बड़ी मुद्राएँ मिल चुकी हैं.

राजा प्रसन्न होकर साधु को प्रणाम करके लौट गए.
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