सत्रहवीं शताब्दी में जब यूरोप में औद्योगीकरण की लहर आई तो कल कारखानों के कामगारों की अलग पहचान बनने लगी, जिनके हितार्थ कुछ मित्र मंडलियों जैसे संगठन बनने लगे क्योंकि पूंजीपति लोग कम से कम वेतन देकर अधिक से अधिक लाभ कमाने की प्रवृति में थे. इस विषय में कोई वैधानिक या कानूनी व्यवस्था न होने से मालिकों की मनमर्जी चलती थी तथा अत्याचार भी होते रहे. कैथोलिक चर्च के पोप लियो १२ ने तत्कालीन हालातों में श्रमिकों पर हो रही ज्यादतियों पर उनके लिए गारेंटेड अधिकारों व सुरक्षा नियमों की आवश्यकताओं पर बल दिया था. अमेरिका में भी तत्कालीन प्रेसिडेंट अब्राहम लिंकन ने जोर देकर कहा कि पूंजी से श्रम ज्यादा महत्वपूर्ण है.
इंग्लेंड में १८३३ में सर्व प्रथम फैक्ट्री एक्ट प्रकाशित हुआ जिसमे ८ घन्टे काम करने का प्रावधान किया गया और तत्कालीन व्यवस्था में श्रमिकों की बेरोजगारी स्थिति, बीमारी, बुढापा व अन्तिम संस्कार के लिए हितलाभ जैसे प्रमुख मुद्दों पर विचार होने लगा. इसके अलावा बाल मजदूरों के काम के घंटों व स्वास्थ्य पर चिंताए जताई जाने लगी. इसी क्रम में राजनैतिक विचारधारा के रूप में लेबर पार्टी का आविर्भाव भी हुआ.
भारत में भी अंग्रेज उद्योगपतियों के संगठन लंकाशायर कैप्लिस्टस ने भारतीय कम्पनियों मे, जिनमें खास कर कपड़ा व जूट मिलों में समानांतर रूप से प्रतिस्पर्धा होने के कारण सभी के लिए वर्किंग कंडीसन जाँच के लिए १८७५ में पहला कमीशन गठन करवाया. पहला फैक्टी एक्ट १८८१ में फिर जूट उद्योग के लिए काफी देर बाद १९०९ में फैक्ट्री एक्ट बना. गुलाम भारत में श्रमिक वर्ग पूरी तरह असंगठित था. इस बीच लीग आफ नेशन्स ने १९१९ में I.L.O. (अन्तर्राष्ट्रीय लेबर आर्गनाइजेशन) की स्थापना की तो भारत में भी राजनैतिक चेतना स्वरुप १९२० में AITUC (ALL INDIA TRADE UNION CONGRESS) की स्थापना हुई. जिसका पहला अध्यक्ष लाला लाजपत राय को बनाया गया. बाद में इसके अध्यक्ष के रूप में अनेक नाम जुड़े, जैसे सी.आर.दास, वी.वी.गिरि, सरोजिनी नायडू व जवाहरलाल नेहरू आदि.
प्रथम विश्व युद्ध के बाद बढती महंगाई एक प्रमुख मुद्दा बन गया. वेतन बहुत कम था और सुविधाएँ ना के बराबर थी. अत: ट्रेड यूनियन आंदोलन जोर पकड़ता गया. सन १९२४ से १९३५ के बीच के समय को ट्रेड यूनियन का रिवोल्यूशनरी पीरिअड कहा जाता है. सन १९२७ तक ५७ यूनियन एटक से संबद्ध हो गयी थी.
स्वतंत्रता आंदोलन के साथ-साथ श्रमिक आंदोलन भी नया रूप लेता जा रहा था पहले प्रांतीय स्तर पर मुम्बई में औद्योगिक विवाद अधिनियम आया तथा मध्य भारत में मी बाद में अलग से अधिनियम बनाया गया. देश भर के लिए ओद्योगिक विवाद अधिनियम १९४७ में ही लागू हुआ. जिसमे प्रबंधन में लेबर पार्टीसिपेशन का भी प्रावधान था. विवाद निबटाने के लिए राज्य स्तर पर तथा केन्द्रीय स्तर पर एक सरकारी तंत्र की स्थापना की गयी.
सन १९४६ में अखिल भारतीय कांग्रेस पार्टी ने एटक से अलग होकर अपना अलग लेबर विंग इंटक (INDIAN NATIONAL TRADE UNION CONGRESS) बना लिया. एटक की कमान बामपंथी नेताओं के हाथ में चली गयी. कालांतर में ये फिर विभाजित होता रहा सोशलिस्टों ने हिंद मजदूर सभा नाम से पहचान बनाई. १९६२ के भारत चीन युद्ध के बाद कम्युनिस्टों में भी लेलिनवादी और मार्क्सवादी जैसे भेद उभरे, नतीजन एटक का विभाजन हुआ जो कट्टर पंथी माने जाते थे उन्होंने सेंटर फॉर ट्रेड यूनियन (CITU) नाम से देशव्यापी नेटवर्क बना लिया. उधर दक्षणिपंथी पार्टी जनसंघ जो बाद में भारतीय जनता पार्टी बनी ने अपना लेबर विंग भारतीय मजदूर संघ के नाम से बना लिया. इसके अलावा अनेक यूनियन नेताओं ने और क्षेत्रीय पार्टियों के नेताओं ने स्वयम्भू बन कर अपनी अलग प्राइवेट यूनियनें बना कर बार्गेनिंग का धन्धा शुरू कर दिया.
कुल मिला कर ट्रेड यूनियन के कई फैडरेशन भी बने है. कुछ को छोड़ कर नेतागण अपनी अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए इनका खुला इस्तेमाल करते रहे हैं. कामगारों का दुर्भाग्य भी रहा है कि इस राजनैतिक प्रतिस्पर्धाओं के कारण एक ही उद्योग में कई कई यूनियनें खड़ी हो गयी. मजेदारी ये है कि कोई भी सात कामगार अपना अलग संगठन बना कर झंडा लहरा लेते हैं. जिसका नतीजा ये होता है कि सामूहिक बार्गेनिंग का मुख्य उद्देश्य प्राप्त नहीं हो पाता है. जहाँ मालिक प्रगतिशील होता है वहाँ सब निभ जाता है पर जहाँ अभी २१ वीं सदी में भी यूनियन के नाम से चिढ हो तो वहाँ बहुत बुरा हाल है. कई उद्योगों के मालिक अपने विधि सम्मत कार्यों पर कानूनी मुहर लगवाने के लिए ऐसे लोगों की यूनियन बनवाते हैं जो उनके यस मेन हो. यूनियन के लीडर कम पढ़े लिखे होने के साथ साथ व्यक्तिगत लाभ के उद्देश्य से सामने आते हैं. युनियन की बजट का आडिट का प्रावधान भी है पर नियम इतने लचीले व फर्जी किस्म के है कि ये एक खाना पूर्ती से ज्यादा कुछ भी नहीं हैं.
राष्ट्रीय संगठन व फैडरेशन भी सब प्रायोजित कार्यक्रमों के अनुसार चल रहे हैं. उधर लेबर आफीसर से लेकर कमिश्नर तक तथा फैक्ट्री इन्स्पेक्टर आदि निगरानी तंत्र के लोग राजनैतिक भ्रष्टाचार के तले सुरक्षित हैं. अधिकतर भष्ट हैं. ये श्रमिकों की समस्याओं के प्रति कितने चिंतित रहते है? इसका विश्लेषण करेंगे तो १०० में से ५ अंक दिए जाएंगे तो बहुत होंगे. इन अधिकारियों के पास उद्योगों को जायज-नाजायज तरीकों से हैरान करने के अकूत तरीके हैं. जिन पर लोकपाल बिल जैसी व्यवस्था की शायद ही नजर पड़ सकेगी.
इन पंक्तियों के लेखक का व्यक्तिगत अनुभव है कि ठेकेदारी प्रथा भी भ्रष्टाचार का एक विशेष श्रोत है. तमाम नियम कानूनों की कैसे धज्जियां उडाई जाती हैं देखना हो तो तो फील्ड में जाकर देखना होगा. इस सबकी मार पड़ती है मजदूर के वेतन व सेहत पर.
इसमें कोई संदेह नहीं है कि दुनिया भर में ट्रेड यूनियन मूवमेंट को बामपंथी लोगों ने बल दिया और समय समय पर संघर्ष भी किये. आज जितने भी क़ानून मजदूरों के पक्ष में बने हैं उनका ओरिजिन बामपंथी विचारधारा ही है. जब से रूस व चीन जैसे गढ़ ठन्डे पड़ गए है, पूरे विश्व में ट्रेड यूनियन मूवमेंट के दांत टूटे से लगने लगे हैं.
जिस तरह हमारा प्रजातंत्र दुनिया का सबसे बड़ा प्रजातंत्र है, असलियत में हम देख रहे हैं, अनुभव कर रहे हैं कि अशिक्षा व हर स्तर पर भ्रष्टाचार के कारण बैशाखियों पर खडा है, ठीक उसी तरह हमारा ट्रेड यूनियन आंदोलन भी है. अभी तक अनेक अंधी गलियों में प्रकाश की प्रतीक्षा है.
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अच्छा आलेख, बधाई!
जवाब देंहटाएंये लेख 2011 में लिखा और प्रकाशित किया गया था, आज मैने फेसबुक पर देखा कि अब मजदूरों के रहनुमा मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में यूनियन आफिस में रामलीला /सुन्दर काण्ड के आयोजन करने लगे हैं।
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