ओमप्रकाश अग्रवाल अच्छे धनीमानी व्यक्ति हैं. नई सड़क, दिल्ली, में उनकी पुश्तैनी किताबों की दूकान है. उनका परिवार वहीं दुमंजिले में रहता आया था. बाद में जगह की कमी महसूस होने लगी तो उन्होंने महरोली में २०० गज के प्लाट में एक बढ़िया आधुनिक बँगला बनवाया, बँगला बना तो पीछे एक सर्वेंट क्वाटर भी बनवा दिया.
कारोबार बहुत अच्छा चल रहा था. किताबों के अलावा उन्होंने डायरियों, पेन, व आफसेट कलेंडरों का भी काम शुरू कर दिया था. तीन सयाने बेटे हैं जो कारोबार खूब अच्छी तरह सम्हाल रहे हैं. हर साल करोड़ों का टर्नओवर होने लगा है.
ओमप्रकाश बड़े आस्तिक किस्म के आदमी हैं और पैसे की कद्र करना भी खूब जानते हैं. ये जुमला वे अक्सर उछालते रहते है, ‘पैसा भगवान तो नहीं पर भगवान से कम भी नहीं.’ सब कुछ होते हुए भी बात-व्यवहार में उनका कंजूसपना झलकता ही है. देव-मंदिरों में भी उन्होंने पूरा रुपिया कभी नहीं चढाया. एक बड़ी तिजोरी घर में रखते हैं जिसमे पंचम जार्ज के जमाने के चांदी के सिक्के भरे पड़े हैं. जब से सारा काम काज, लेन-देन, बैंकों के माध्यम से होने लगा है, नकदी का काम बहुत ज्यादा नहीं रहा है. लड़के सब सम्हाल लेते हैं. ओमप्रकाश अब अक्सर अपनी बुजुर्ग माता श्री व श्रीमती के साथ बिताना पसंद करने लगे हैं.
पुराने घर में नौकर की जगह तो थी नहीं पर यहाँ आकर सबसे पहले उन्होंने नौकर की तलाश की और सौभाग्य वस एक १६-१७ साल का गढ़वाली लड़का डूंगरराम उनको मिल भी गया. बहुत मोल-भाव करके उसे खाना-खुराक के साथ ५०० रूपये मासिक पर काम पर रख लिया. अखबारों में नौकरों के अपराधों की बहुत सी घटनाएं छप रही थी इसलिए उन्होंने डूंगरराम का बकायदा पुलिस वेरिफिकेशन भी करवा लिया. डूंगरराम घर का सारा काम करने लगा, पर खाना श्रीमती अग्रवाल अपने हाथों से ही पकाती हैं और उनकी रसोई में प्याज लहसुन का भी परहेज है.
डूंगरराम गरीब लड़का है. जैसा मिल जाये खा लेता है. घर में सभी लोग उसके काम-काज व व्यवहार से संतुष्ट थे. तीन चार साल तक तो सब ठीक ही चल रहा था. अब डूंगरराम के गाँव से उसके माता-पिता के बार-बार पत्र आ रहे थे कि उसकी शादी तय कर दी गयी है. उसने मालिक को ये बात बताई तो उनको लगा कि अब ये भागने के फिराक में है. अत: उसको बन्धन में रखने के लिए उन्होंने उसको कहा, “शादी करके आ जा. दुल्हन को भी यहीं ले आना. मैं तेरी तनखाह तीन सौ रूपये बढ़ा दूंगा, पर तुम्हारा खाना पीना अब अपने क्वाटर में कर लेना.” डूंगरराम को मालिक का प्रपोजल ठीक लगा. वह गाँव गया. शादी करके दुल्हन को साथ ले आया. मालिकन ने खाना पकाने के बर्तन भी उनको दे दिए. सब सामान्य हो गया. ओमप्रकाश ने नौकर के वापस आ जाने पर राहत महसूस की.
डूंगरराम की पत्नी प्रेमा को यहाँ का खाना अच्छा नहीं लग रहा था. वह अरुचि बताने लगी और बोली, "कभी मीट भी लाया करो.” डूंगरराम ने उसको बताया कि, "मालिक लोग तो प्याज लहसुन तक नहीं छूते हैं, तू मीट की बात कर रही है.” वह चुप हो गयी पर अगले दिन से बार बार वही रट लगाने लगी कि, "मेरा मन मीट खाने को हो रहा है.”
वह पत्नी को नाखुश भी नहीं रख सकता था. एक दिन एक ढाबे से बना बनाया मीट ले आया. पर प्रेमा को वह भी बिलकुल पसंद नहीं आया बोली, "तुम कच्चा मीट लेकर आना. मैं दरवाजा बंद करके बनाऊँगी. देखना तुम अंगुली चाटते रह जाओगे.”
अगली बार डूंगरराम चुपके से बाजार से आधा किलो मीट ले ही आया पत्नी को ताकीद करते हुए बोला “दरवाजा बंद करके पकाना. मालिक को मालूम पड़ गया तो नौकरी जायेगी.” प्रेमा ने मीट मसाला डाल कर चटपटा बना कर पकाया. खिड़की दरवाजा बंद थे पर उसकी खुशबू तो बाहर जा ही रही थी. हवा का रुख भी मालिक के कमरे की तरफ ही हो रहा था.
अग्रवाल जी के नाक में जब वह गन्ध पहुँची तो उनको कुछ शंका-आशंका हो गयी. वे तलाशने लगे कि गन्ध काहे की आ रही है और कहाँ से आ रही है? सूंघते-सूंघते डूंगरराम के क्वाटर पर पहुँच गए. दरवाजा भीतर से बंद था पर महक बाहर तक जोरों से आ रही थी. उन्होंने डूंगरराम को आवाज दी तो अन्दर दोनों खमोश हो गए. लेकिन जब जोर जोर से पुकारा और दरवाजा भड़भड़ाया तो डूंगरराम को बाहर निकलना ही पड़ा. मीट का भभका भी साथ में आया.
मालिक ने पूछा, “ये काहे की खुशबू आ रही है?”
डूंगर राम ने सोचा अब पकडे तो गए हैं सच-सच बता देना चाहिए सो बोला, “मालिक ये नादान औरत नहीं मानी. गलती हो गयी. अब भविष्य में ऐसा नहीं होगा.”
अग्रवाल कुछ समझे नहीं. फिर पूछा, “मगर ये खुशबू काहे की आ रही है?”
डूंगरराम डरते हुए और झेंपते हुए बोला, “मीट की.”
अग्रवाल साहब ने खुशी जाहिर करते हुए कहा, "वाह ये तो बड़ी प्यारी खुशबू है. मुझे अच्छी लगी. तू ऐसा कर रोज ही पकाया कर. मुझे कोई ऐतराज नहीं है.”
ये कह कर वे वापस अपने बंगले में घुस गए. इधर डूंगरराम और उसकी पत्नी एक दूसरे का मुँह देख कर खूब हंसते रहे. तबीयत से मीट-भात खाया. अब मालिक राजी तो डर भाग गया.
अब डूंगरराम एक-दो दिन में ताजा माँस लाकर प्रेमा को देने लगा. उसकी भी बांछें खिल गयी. आये दिन नानवेज बनाने और खाने से उनका बजट बिगडता जा रहा था. प्रेमा ने पति से कहा, “खुशबू तो मालिक ले ही रहे है. तुम उनसे तनखाह बढ़ाने की बात करो.”
हिम्मत करके डूंगरराम मालिक के सामने उनकी बैठक में हाजिर हुआ थोड़े मुस्कराहट के साथ बोला, “मालिक आप मीट की खुशबू का आनंद तो ले रहे हैं, पर हमारा खर्चा नहीं चल रहा है. तनखाह बढ़ानी पड़ेगी.” ये सुन कर अग्रवाल साहब के माथे पर बल पड़ गए काफी देर सोचने के बाद बोले, "अच्छा तू यहीं बैठ.” खुद अन्दर स्ट्रांग रूम में चले गए, तिजोरी खोली, वहाँ से काफी देर तक सिक्कों की खनखनाहट डूंगरराम को सुनाई दे रही थी. डूंगरराम मन ही मन सोचने लगा आज मालिक अपना खजाना उस पर लुटाने वाले हैं. वह बहुत खुश हो रहा था.
उसकी खुशी ज्यादे देर नहीं रही क्योंकि जब मालिक बाहर आये तो खाली हाथ थे. आते ही उन्होंने डूंगरराम से पूछा, “तुमने कुछ सुना?”
डूंगरराम बोला, “हाँ मालिक सिक्के बज रहे थे.”
मालिक ने फिर पूछा "कैसा लगा?”
डूंगरराम ने उत्तर दिया, “बहुत अच्छा लगा.”
इस पर ओमप्रकाश अग्रवाल गंभीर होकर बोले, “देख मैंने तेरे पकवान का ऐसे ही आनंद लिया जैसे तूने मेरे सिक्कों का लिया है. हिसाब बराबर हो गया. अभी दमड़ी नहीं मिलेगी. तू जा अपना काम कर.”
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