सोमवार, 31 दिसंबर 2012

नव-वर्ष संकल्प

चलो एक साल और चल बसा. जाते जाते बहुत कड़वी यादें छोड़ गया. पूरे साल भर आंदोलनों, अव्यवस्थाओं व अनाचारों का घुन्ध छाया रहा. इसमें इस बेचारे साल का क्या कसूर? कसूर तो हमारा है, जो सालभर बुराइयों के इर्दगिर्द घूमते रहे.

अगर शब्द मूक होते तो शायद ये लफड़े इतने नहीं बढ़ते, और अगर हर मामले में राजनीति नहीं होती तो ये झगड़े भी इतने नहीं फैलते.

यहाँ विदेशों की बात नहीं, अपने ही देश के बारे में सोचना है, जो कि कहने के लिए लोकतांत्रिक व्यवस्था वाला देश है, पर दुर्भाग्य यह है कि हम लोकतंत्र के नाम पर भ्रष्टतंत्र तथा भीड़तंत्र में जी रहे हैं.

कोई एक क्षेत्र बीमार होता तो ईलाज आसान होता, लेकिन यहाँ तो पूरे कुँएं में भांग पड़ी है. हम एक दूसरे पर कीचड़ उछाल कर सभी कीचड़ में नहा रहे हैं.

इसमें कोई संदेह नहीं कि वर्तमान में कमजोर नेतृत्व व कमजोर इच्छाशक्ति के कारण अराजकता की स्थिति बनी हुई है, पर यह बात भी सच है कि "जैसे फूल होंगे वैसी ही माला बनेगी."

राजनैतिक विचारधारा के पूर्वाग्रहों के कारण यदि हम इस सारे गड़बड़झाले का दोष किसी एक या दो व्यक्तियों पर इंगित करते हैं तो उचित नहीं है क्योंकि कहीं न कहीं हम सब स्वार्थी और दोषी हैं. जरूरत है आत्मलोचन किया जाये.

केवल क़ानून के डर से अपराधों पर नियंत्रण नहीं पाया जा सकता है, मूल में अपने घरों से पहले स्वयं, फिर बच्चों को संस्कार देकर चरित्रवान बनाने की कोशिश होनी चाहिए.

देश में नैतिकता, एकता, व राष्ट्रप्रेम का जज्बा जगाने के लिए सभी को मिलकर काम करना पड़ेगा. इसके लिए प्रिंट मीडिया तथा इलैक्ट्रोनिक मीडिया को ज्यादा अनुशासित रखना पड़ेगा. पीतपत्रिकारिता की जो होड़ आज चल पडी है, उस पर अंकुश लगाना होगा. इसमें सिनेमा का रोल भी अहम है, जिसे फूहड़ नचकनिया की तरह खेल नहीं दिखाने चाहिए. इन सब विषयों पर ईमानदारी से राजनीति से ऊपर उठकर चलना पड़ेगा.

अंत में इस साल के ‘सूतक’ को अगले नववर्ष में नहीं ले जाने का संकल्प करना चाहिए.
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शनिवार, 29 दिसंबर 2012

दामिनी के नाम

दामिनी !
तुम नेपथ्य में चली गयी. करोड़ों आँखों को नम कर गयी. देखो, मरना तो एक दिन सभी को है, मगर जिस तरह तुमको जाना पड़ा, उस पर पूरा देश शर्मिन्दा और घायल है. तुम जिस घनीभूत पीड़ा को झेल कर गयी हो, उसकी कसक यहाँ युगों तक महसूस की जाती रहेगी. जब जब आसमान में घनघोर घटाओं के बीच दामिनी दमकेगी, सुजनों के लिए प्रकाश और दरिंदों के लिए चाबुक का भान करायेगी.

तुम्हारे इस बलिदान से माताओं, बहुओं और बेटियों के लिए सुरक्षा की सोच उभर कर सामने आई है. तुम मातृशक्ति की प्रेरणा की मशाल बन गयी हो.

तुम एक सितारा बन गयी हो. दूर क्षितिज में अमर ज्योति बन कर बस गयी हो. हम तुम्हें सजल नेत्रों से निहारते रहेंगे, पर तुम्हारे चले जाने का बहुत दर्द तो है. ये शब्द्पुष्प विनम्र श्रद्धांजलि के रूप में तुम्हें अर्पित हैं.
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गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

मातृ देवो भव:

सीकर के नजदीक गाँव में रहने वाली एक गरीब विधवा, रतनी बाई, ने मेहनत मजदूरी करके अपने इकलौते बेटे हरिलाल को हाईस्कूल तक पढ़ाया और रिश्तेदारों की सलाह पर उसे राजकीय औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान में रोजगारपरक ट्रेनिंग के लिए दाखिला दिलाया. वह ‘टर्बाइन आपरेटर’ का कोर्स पूरा करके बेरोजगारों की सूची में आ गया. रोजगार दफ्तर के माध्यम से उसे एक दिन राजस्थान के ही कोटा शहर के एक नामी उद्योग से बुलावा आ गया और वह नौकरी भी पा गया.

माँ बहुत खुश थी. बेटा जल्दी नौकरी पा गया था, पर घर से सैकड़ों कोस दूर भेजने में उसे बड़ी चिंता भी हो रही थी. यह गरीब लोगों मजबूरी रहती है कि रोजगार के सिलसिले में दूर दराज जाना ही पड़ता है. अपने लाड़ले से बिछुड़ने की त्रासदी रतनी बाई जैसी सैकड़ों-हजारों माँओं को झेलनी ही पडती है. हरिलाल भावनात्मक रूप से अपनी माँ से बहुत नजदीक से जुड़ा हुआ था. सोचता था कि रहने की ठीक ठाक व्यवस्था होने पर माँ को भी अपने पास कोटा ही बुला लेगा. यद्यपि माँ तो अभी से कहने लगी थी कि वह घर छोड़ कर कहीं नहीं जायेगी. वह अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त होना चाहती थी. उसने अगले ही साल हरिलाल का विवाह भी कर दिया.

यह आम मनुष्यों की प्रवृति है कि अपने जीवन की अतृप्त आकाक्षाओं को अपने बच्चों में पूरा होते हुए देखना चाहते हैं. अनपढ़ रतनी बाई चाहती थी कि बेटे के लिए खूब पढ़ी-लिखी सुन्दर बहू मिले, सो संयोग से जाति-रिश्तेदारी में ही उसकी पसन्द पूरी हो गयी. एक ग्रेजुएट लड़की, दमयंती, से उसका रिश्ता हो गया. सभी नाते-रिश्तेदार रतनी बाई के भाग्य को सराहने लगे. उसने इस मुकाम तक पहुँचने में कितने पापड़ बेले, कितने कष्ट उठाये, वे सब लोगों की नजर में नहीं रहे.

बहू दमयंती एक खाते-पीते परिवार से आई थी. उसे सासू जी का कच्चा घर बिलकुल पसन्द नहीं आ रहा था.विवाह के चंद महीनों के बाद ही वह पति के पास कोटा चली आई. हरिलाल अपनी पत्नी पर पूरी तरह मोहित रहता था. उसकी हर बात पर पलक-पावड़े बिछाये रखता था. यह स्वाभाविक भी होता है. माँ से अकसर अपने एक दोस्त के मोबाईल के माध्यम से बात करता रहता था. दमयंती सीकर आने जाने के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ा करती थी. सीकर जाना भी पड़े तो ज्यादा समय झुंझुनू अपने मायके में बिताना पसन्द करती थी. माँ तरसती रहती थी. सोचती थी कि कोई अपने स्तर की बहू लाई गयी होती तो आज यह बात नहीं होती. माँ का मन है सो यह भी सोचती थी कि चलो बेटा खुश है तो सब अच्छा है.

अगले वर्ष दमयंती ने अपने पीहर में ही अपने पुत्र को जन्म दिया और वहीं से कोटा चली गयी. हरिलाल पूरी तरह उसके वश में था. जैसा वह कहती थी, वह वैसा ही करता था, पर हरिलाल के मन में कहीं ना कहीं चोर तो बैठा रहता था, जो उसे नित्य कचोटता रहता था कि माँ का यथोचित ध्यान नहीं रख पा रहा है. खर्चा-पर्चा भी जिस प्रकार माँ को भेजा करता था, वह अनियमित हो गया था. दमयंती का तर्क होता था कि पन्द्रह हजार के वेतन में घर का किराया और रोज का खर्चा बमुश्किल चल रहा है, माँ तो इतना खुद कमा लेती हैं कि गुजारा ठीक चल जाना चाहिए. माँ को साथ में रखने की बात भी कई बात दबे स्वर में हरिलाल ने दमयंती के सामने कही, पर वह नहीं चाहती थी कि माँ की निगरानी में रहे. वह कहती थी, “माँ मेहनत मजदूरी वाली है. यहाँ बैठी नहीं रह सकेगी. यहाँ लाकर क्या करोगे? वे वहीं खुश रहती हैं.” हरिलाल पत्नी की बात पर घुग्घू बन कर चुप हो जाता, पर दिल में दर्द तो छुपा कर रखता ही था.

समय निरंतर भागता रहता है. उनका बेटा नितिन अब तीन वर्ष का होने को आया है. दशहरा मैदान में एक महीने तक चलने वाला मेला चल रहा है, जहाँ अनेक कौतुक व सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं. तरह तरह का सामान बेचने वाली दुकानें-बाजार सजती हैं. कोटा में रहने वालों को मेला घूमने का बड़ा शौक होता है. बेटे को लेकर हरिलाल सपत्नी वहां पहुँचा, बड़ी भीड़ थी. अंगुली पकड़कर चलने वाला बच्चा एकाएक थोड़ी सी नजर चूकने पर भीड़ में कहीं खो गया.

माँ-बाप दोनों परेशान हो उठे. ढूँढते रहे, पर नितिन नहीं मिला. बच्चों के खोने-पाने वाले पांडाल में रिपोर्ट लिखवाई. दमयंती बच्चे के विछोह के कारण बदहवाश हो गयी, रोने चिल्लाने लगी. उसकी हालत देख कर हरिलाल भी घबरा गया.

लगभग एक घन्टे के बाद पांडाल से बच्चे की मिलने की सूचना लाउडस्पीकर पर आई तो जान में जान आई. दमयंती को जब उसका बच्चा मिला तो लिपट-लिपट कर देर तक चूमती रही. हरिलाल इस सारे परिदृश्य में अपनी माँ रतनी बाई व खुद को देखने लगा. उसने तुरन्त सीकर जाकर अपनी माँ के पास जाने का कार्यक्रम बना डाला. दमयंती ने कहा, “इतनी जल्दी बिना प्रयोजन के सीकर क्यों जा रहे हो?”

हरिलाल ने उससे कहा, “बच्चे से एक घन्टे तक बिछुड़ने पर तुम इतनी परेशान रही, विलाप करती रही, मेरे भी होश उड़ा दिये थे, पर मेरी माँ के बारे में तुम कभी नहीं सोचती हो कि उसका बेटा उससे इतने अरसे से दूर है. उसके दिल को क्या बीतती होगी? तुम कितनी स्वार्थी हो?”

इस प्रकार माँ के प्रतिसमार्पित भाव से वह सीकर गया और अपनी माँ को अपने साथ कोटा लेकर आया. अब दमयंती को भी माँ के अंत:करण के प्यार का आभास हो गया है.

माँ तो माँ है. उसको बिना किसी गिला शिकवा के अपने बच्चों के नजदीक रहना स्वर्गीय सुख देता है. हरिलाल का तो मानो बचपन फिर से लौट आया है.
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मंगलवार, 25 दिसंबर 2012

महामना

आदमी यों ही बड़ा नहीं बनता है, उसके बड़प्पन या महानता के पीछे उसकी लगन, सच्चाई औए अध्यवसाय होता है. दुनिया भर में मानव जाति की सेवा करने वाले मनीषियों ने विभिन्न क्षेत्रों में अपने चिरंतन कर्मों के द्वारा महत्ता प्राप्त की है.

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, जिसे B.H.U. के नाम से भी जाना जाता है, के वर्तमान विराट स्वरुप को देख कर अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है कि इसके संस्थापक पण्डित मदन मोहन मालवीय जी थे, जो एक सनातनी व्यक्ति थे, तथा अंग्रेजी, हिन्दी व संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे. वे अच्छे वकील, समाज सुधारक और शिक्षाशास्त्री भी थे. बड़ी बात यह भी है कि वे स्वतन्त्रता संग्राम के पुरोधा भी रहे. ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध लड़ाई में वे कई बार जेल भी गए. इसीलिये उनको ‘महामना’ यानि महान पुरुष की उपाधि मिली.

इस विश्वविद्यालय की विधिवत स्थापना संन १९१५ में हुई, लेकिन इसकी परिकल्पना उन्होंने सन १९०४ में ही कर डाली थी. डॉ.एनी बेसेंट के सेंट्रल हिन्दू कॉलेज का आधार उनको मिला, इतनी बड़ी परियोजना के लिए राजा-रजवाडों व सेठों के द्वारा प्रदत्त धन राशि का सदुपयोग किया गया. महामना मालवीय जी ने लिखा है कि चंदे की शुरुआत एक गरीब औरत द्वारा दिये गए एक पैसे से हुई थी. उनके बारे में प्रेरणास्पद संस्मरणों में दिल को छूने वाली एक धटना इस प्रकार है:

दक्षिण में हैदराबाद रियासत के तत्कालीन ‘निजाम’ अकूत सम्पति के मालिक थे. उनसे भी अपने संस्कृत विश्वविद्यालय के लिए चन्दा माँगने मालवीय जी हैदराबाद गए. निजाम आदतन बेहद कंजूस व अंतर्मुखी व्यक्ति थे. उन्होंने चन्दा देने से इनकार कर दिया. हैदराबाद प्रवास से लौटने से पहले उन्होंने वहाँ पर एक सेठ की शव यात्रा में उसके परिजनों द्वारा शव पर परखे गए चांदी के सिक्कों को अन्य भिखारियों की तरह उठाना शुरू कर दिया. किसी परिचित उनको पहचान लिया और सिक्के उठाने का प्रयोजन पूछा तो उन्होंने बेबाकी से कहा, “कोई ये ना कहे कि मैं हैदराबाद रियासत से खाली हाथ लौटा हूँ, इसलिए ये सिक्के उठा रहा हूँ.” यह बात दूर तक गयी और दान दाताओं की कमी नहीं रही.

इस महान शिक्षण संस्थान की बुनियाद की एक एक ईंट गवाह है कि महामना मदन मोहन मालवीय जी ने अथक प्रयास करके इस आधुनिक नालंदा को स्थापित किया था. आज बनारस तथा मिर्जापुर के दो बड़े अलग अलग परिसरों में यह विश्वविद्यालय फैला हुआ है. इसकी इस विराट परिकल्पना के चितेरे महामना को शत् शत् प्रणाम.
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रविवार, 23 दिसंबर 2012

चुहुल - ४०

(१)
एक दांत का डॉक्टर अपने मरीज के मुँह का मुआयना करके बोला, “आपके लिए एक अच्छी खबर है, पर एक बुरी खबर भी है. बोलिए, पहले कौन सी सुनना चाहते हो?”
मरीज खुशी से उछलते हुए बोला, “डाक’साहब पहले खुशी की खबर सुनना चाहूँगा.”
डॉक्टर बोला, “आपके सब दांत बढ़िया व स्वस्थ हैं. किसी दांत का भी एनेमल कटा हुआ नहीं है."
“और बुरी खबर?” पूछते हुए मरीज व्यग्र हो उठा.
डॉक्टर ने बताया, “आपके पूरे मसूड़े खराब हो चुके हैं. इनमें भयंकर इन्फैक्शन है. इनके ईलाज के लिए आपके सारे दांत निकालने पड़ेंगे.”

(२)
अपने शराबी पति से एक महिला बोली, “मुन्ने के पापा, जब आप अंग्रेज़ी शराब पीकर आते हो तो मुझे ‘परी’ नाम से पुकारते हो, और जब देसी शराब पीकर आते हो तो ‘रानी’ कहते हो. आज ये मुई कौन सी पीकर आये हो, बार बार मुझे ‘चुड़ैल’ कहे जा रहे हो?”

(३)
एक दिलफेंक शायर एक सुन्दरी पर फ़िदा हो गए. जब भी सामना होता तो उसकी खूबसूरती पर कुछ ना कुछ सुनाया करते थे, पर वह सुन्दरी उनके इस व्यवहार से तंग थी. उसके दिल में शायर साहब के लिए कोई प्यार-व्यार नहीं उपजता था.
एक दिन खीझ कर उसने शायर से पूछ ही लिया, "आखिर आप चाहते क्या हैं?”
शायर बोले, “तुम्हारे इन नरम हसीं जुल्फों के साये में रहना चाहता हूँ.”
सुन्दरी ने तुरन्त अपना जूड़ा खोला, विग उतारा, और शायर को पकड़ा कर आगे बढ़ गयी.

(४)
एक आदमी फोटो स्टूडियो में जाकर फोटोग्राफर से बोला, “भाई साहब, क्या आप मेरी पासपोर्ट साइज में ऐसी फोटो खींच सकते हैं, जिसमें सर की टोपी और पैर के जूते भी नजर आयें?”
फोटोग्राफर हँसते हुए बोला, “हाँ क्यों नहीं, जूते उतार कर सर पर रख लीजिए.”

(५)
एक आदमी को सरेआम सड़क पर अपनी पत्नी को पीटने के आरोप में गिरफ्तार करके कोर्ट में पेश किया गया, जहाँ उसने अपना जुर्म भी कबूल कर लिया. जज साहब ने उसे १०० रूपये और ७५ पैसे जुर्माना करके जमाँनत दे दी.
अभियुक्त को जुर्माने की रकम अजीब सी लगी, बोला, “जज साहब, जुर्माना १०० रुपये तो ठीक है, पर ये ७५ पैसों का क्या हिसाब है?”
जज साहब बोले, “वारदात सड़क पर हुई इसलिए यह इंटरटेंनमेंट टैक्स वसूला जा रहा है.”
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शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

न+इति

चोर, उचक्के, लम्पट, लफंगे, बाहुबली, लुटेरे या समाजकंटक हर युग में रहे हैं; उनका अपना इतिहास है, लेकिन पहले समय में सज्जन, ईमानदार व चरित्रवान लोगों का प्रतिशत ज्यादा होता था. हमारे देश की स्वतन्त्रता के संक्रमण काल (आगे/पीछे) में समाज के आदर्श के रूप में एक नया शब्द उभर कर आया “नेता”. नेता का शाब्दिक अर्थ होता है नेतृत्व करने वाला, पर अब अर्थ का अनर्थ यह हो गया है "न+इति” यानि जिसकी कोई इति नहीं होती है.

एक समय था जब ‘नेता जी’ कहने पर एक पूज्य भाव मन में उभरता था. वह ऐसा व्यक्तित्व माना जाता था, जो निष्पाप व निष्कलंक होता था. धीरे धीरे ‘नेता’ सत्तानशीं या सत्तालोलुप व्यक्ति का पर्याय बन गया. अब तो इसका इतना पतन हो गया है कि नेता कहने पर गाली का आभास होने लगता है क्योंकि सारे कलुषित कारनामें नेताओं से ही शुरू होते हैं. अपवाद बहुत कम ही मिलते हैं.

रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास ने एक चौपाई में लिखा है, “समरथ को नहिं दोष गुसांई," यानि व्यक्ति अगर शक्ति संम्पन्न हो तो उसके अवगुण गौण हो जाते हैं. आज हम इसे प्रत्यक्ष देख रहे हैं/ अनुभव कर रहे हैं कि नेता शक्ति संपन्न होता है, और वह हर प्रकार के सामाजिक शोषण को अपना विशेषाधिकार समझता है. कार्यपालिका की मशीनरी व न्यायपालिका असहाय होकर नेता जी को तन्त्र का मालिक समझते हुए ज़िंदा मक्खियाँ निगलने को मजबूर हैं.

एक डबलरोटी चुराने वाला भूखा व्यक्ति पकड़े जाने पर जमानत नहीं करा पाता है और जेल में लम्बे समय तक चक्की पीसता रहता है, दूसरी ओर सार्वजनिक धन में से करोड़ों पर अनैतिक रूप से हाथ साफ़ करने वाले, घोषित अपराधी राजनैतिक मंचों पर सरकारी बन्दूक धारियों के संरक्षण में सुरक्षित रह कर लोट-पोट खेलते हैं.

कहते हैं कि नव प्रजातंत्र में यह कमजोरी स्वाभाविक तौर पर आ जाती है. संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे देश में भी सही मायनों में प्रजातंत्र स्थापित होने में दो सौ वर्ष लगे थे, पर हमारे देश में जहाँ अनादि काल से सनातन सांस्कृतिक विरासत में व्यक्ति के चरित्र की शुद्धता हर कोण से महत्वपूर्ण माना गया है, यह अंधेर कैसे पैदा हो गया? जितने पन्ने पलटो, हर तरफ अनाचार के दस्तावेज मिलते हैं. "यथा राजा, तथा प्रजा" वाली कहावत चरितार्थ हो रही है. गुड-गोबर एक हुआ सा लगता है.

सुबह सुबह अखबारों की सुर्खियाँ पढ़ने को मन नहीं करता है, क्योंकि उनमें अधिकतर भ्रष्टाचार, अत्याचार और बलात्कार जैसे विषयों के समाचार छपे रहते हैं. हिंसा, छल-कपट, द्वेष पर केंद्रित विचारों का वमन होता है.

मैं अनीश्वरवादी नहीं हूँ और ना ही निराशावादी हूँ इसलिए इसे समय की बलिहारी समझ कर देखता हूँ. विश्वास करता हूँ कि प्रबुद्ध जनों में सम्पूर्ण जागरण व उत्थान की प्रक्रिया स्वत: शुरू होगी. अवश्य होगी.
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गुरुवार, 20 दिसंबर 2012

सहधर्मिणी

चुन्नू के दादा,

आज तुम बहुत याद आ रहे हो. तुम्हारा पोता चुन्नू अब चन्दन मिश्रा हो गया है. वह अहमदाबाद, गुजरात से आगे कहीं वीरावल की किसी फैक्ट्री में बड़ा मैनेजर हो गया है. उसने बड़ी जिद की कि "दादी को अपने साथ ले जाऊंगा." मैं तो इसी पुराने घर में आपकी यादों को संजोये हुए हर त्यौहार, हर मौसम में आपकी अनुपस्थिति में भी आपको खुद के निकट पाती रही हूँ. आपको गए अब बीस वर्ष से भी अधिक हो गए हैं, लेकिन मुझे हर रोज सपनों में आपके दर्शन होते रहते हैं. आपका मुस्कुराता हुआ चेहरा और प्यार भरी निगाहें मेरी आँखों की पुतलियों में डबडबा कर घूमा करती हैं.

बेटा कुंदन भी मुझे इतनी दूर नहीं भेजना चाहता है. बहू रमा तो कतई विश्वास नहीं कर रही थी कि मैं अस्सी साल की उम्र में पोते-पतोहू के साथ जाने को राजी हो जाऊँगी.

सच तो यह है कि चुन्नू ने कहा कि गुजरात में द्वारिकाधीश व सोमनाथ के दर्शन करवाऊंगा, तो मन में एक भारी हिलोर उठने लगी. मुझे याद है कि आपकी भी बड़ी तमन्ना थी कि एक बार द्वारिकापुरी जाकर बांकेबिहारी के सिंहासन पर उनके दर्शन किये जाएँ, पर अस्वस्थता के चलते वहाँ नहीं जा पाए थे. इसलिए मैं आपकी अतृप्त इच्छा को पूर्ण करने के उद्देश्य से वहाँ जाकर कन्हैया के दर्शन करूंगी. अपने साथ आपकी एक जीवंत फोटो भी ले जाऊंगी, जिसको मैं देवता से साक्षात्कार करवाऊंगी. मुझे पूरा विश्वास है कि आप हर घड़ी मेरे साथ रहेंगे.

आपकी – चुन्नू की दादी
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मंगलवार, 18 दिसंबर 2012

चिड़िया उड़ाते थे...

पुरानी कहावत है कि पुरुष के भाग्य का कोई अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है. इस कहानी के नायक रूपचंद मौर्य गोरखपुर के पास एक साधनहीन, पिछड़े गाँव के मूल निवासी हैं. उनके मामा जी बरसों पहले नैनीताल जिले के भाबर (मैदानी) इलाके में आकर जमीन मालिकों के साथ मिलकर खेती-पाती का कारोबार करते रहे. उनके जैसे सैकड़ों-हजारों लोग पूर्वी उत्तर प्रदेश से या बिहार से आकर रोजी-रोटी के चक्कर में खूब मेहनत मजदूरी करते हैं.

यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि तराई और भाबर की खेती इन्ही ’साझेदारों’ के बल पर चलती है. धरती बहुत उपजाऊ है और पानी की भी कमी नहीं है पर खेती का काम ऐसा है कि सर्दी हो, गर्मी हो, या बरसात हो, चौबीसों घन्टे लगे रहना पड़ता है. मेहनत का फल जब लोगों के सामने आता है तो वे कहते हैं, “इन पूरबियों -बिहारियों के हाथों में जादू होता है.” चाहे रबी की फसल हो या खरीफ की, इनको खूब फलती है. बीच बीच में कैश-क्रॉप (सब्जी-फल-कन्द) भी उगाते हैं. नतीजन यह इलाका इनकी मेहनत की वजह से समृद्ध है. आज तो स्थिति यह है कि ये खेतिहर मजदूर झोपडियों में रहते रहते अपने निजी पक्के घरों में आ गए हैं.

हाँ तो, रूपचंद मौर्य बचपन में ही अपने मामा जी पास आया और उनकी खेती में हाथ बँटाते हुए स्कूल भी जाने लगा. उसने स्थानीय हाईस्कूल से दसवीं पास कर ली; ये दीगर बात है कि डिविजन तीसरा ही आ पाया. एक दिन जब वह मंडी में आड़तिया के पास टमाटरों की पेटियां पहुंचाने गया तो आड़तिया ने उसे एक पेटी टमाटरों की लेकर अल्मोड़ा के डी.एम. को पहुँचाने का काम सौंप दिया. संयोग था कि उनके बंगले पर उसकी मुलाक़ात खुद डी.एम. साहब से हो गयी. उन्होंने रूपचंद से उसकी कैफियत पूछी और पूछा, "नौकरी करोगे?”

रूपचंद को मानो मुँह माँगी मुराद मिल गयी. उन्होंने उसे सिफारिशी पत्र के साथ हार्टीकल्चर डिपार्टमेंट के डेप्युटी डाईरेक्टर, नैनीताल, के पास भेज दिया. डी.एम. साहब के पसीजने व हमदर्दी का विशेष कारण यह भी था कि वे स्वयं पिछड़ी जाति से थे. हर पिछड़े को आगे बढ़ाने का भाऊ साहेब अम्बेडकर जी का विचार उनमें कूट कूट कर भरा था.

बहरहाल, रूपचंद मौर्य चौखुटिया, अल्मोड़ा के सरकारी बागान में निगरानी कर्मचारियों में शामिल हो गया. वहाँ पर नर्सरी के अलावा आड़ू, नाशपाती, खुबानी, प्लम, चेरी आदि अनेक प्रकार के फलों के पेड़ थे. फल-फूलों कों कीट-पतंगों से बचाने के लिए उचित कीटनाशक दवाओं का प्रयोग वैज्ञानिक तरीकों से होता है. लेकिन फसल को जंगली चिड़ियों से बहुत नुकसान पहुंचता है. खासतौर पर तोते तो खाते कम हैं, बर्बाद ज्यादा कर देते हैं. इसलिए चिड़ियों को भगाने के लिए निगरानी कर्मचारियों को तैनात किया जाता है. जो टीन-कनस्टर बजा कर, सीटियाँ बजा कर, मुँह से आवाजें निकाल कर, फायर गन से पटाखे छोड़ कर दिन भर चिड़ियों को उड़ाते रहते हैं. नायक रूपचंद को भी चिड़ियों को उड़ाने का काम मिल गया.

ऑफ सीजन में वह एक बार डी.एम. साहब से मिलने अल्मोड़ा जा पहुँचा. वह उनके अहसान के लिए कृतज्ञता भी प्रकट करना चाहता था, पर डी.एम. साहब तो बड़े दयालु थे. उन्होंने उससे कहा, “जिंदगी भर चिडिया भगानी हैं क्या? आगे की कक्षाओं की परीक्षा देते रहो, अपनी योग्यता बढ़ाओ. रिजर्वेशन का लाभ उठाओ. जल्दी ऑफिसर बन जाओ.”

जब सदगुरू मिल जाता है और लगन हो तो मंजिल की तरफ बढ़ना आसान हो जाता है. डी.एम. साहब ने रूपचंद को आसान रास्ता बताया कि “नेपाल की त्रिभुवन युनिवर्सिटी से सीधे बी.ए. कर सकते हो." उन्होंने उसको इस विषय में बहुत सी जानकारी दी. रूपचंद अति उत्साहित होकर पढ़ाई भी करने लगा, पर बुनियाद कमजोर होने के कारण दो बार परिक्षा में फेल हो गया. अंतत: जब पास हो गया तो किस्मत का दरवाजा खुलता चला गया. वह ऑफिस में क्लर्क बना दिया गया. कालान्तर में सुपरवाईजर, इंस्पेक्टर, तथा सुपरींटेंडेंट बनते हुए सीढ़ियाँ चढ़ता चला गया. इस तेजी से हुई पदोन्नति में जातिगत आरक्षण का बहुत बड़ा योगदान था.

अपने देश में अधिकाँश सरकारी विभागों के कर्मचारी नौकरी में रहते हुए भी पेंशन सी भोगते हैं. काम करो तो करो, अन्यथा सब निभ जाता है. यह जुमला कई जगह फिट होता है, "दास मलूका कह गए सबके दाता राम." काम करने वाले करते भी हैं, पर ऑफिस में दर्जनों लोग दिन भर मटरगश्ती करके समय निकाल जाते हैं. अफसर भी उन्हीं जैसे है--खुशामद पसन्द और रिश्वतखोर. गड़बड़झाला इतना बड़ा है कि नमक में आटा सा हो गया है. रूपचंद मौर्य भी इसी मुख्यधारा में बहता चला गया.

जिला हार्टीकल्चर के तब डेप्युटी डाईरेक्टर एक मिस्टर डी.जोशी हुआ करते थे. वे लंबे समय तक इस पद पर विराजते रहे. उनके ऑफिस के ठाठ निराले थे. उनका रहन-सहन व बर्ताव बिलकुल अंग्रेजों का जैसा रहता था.  उनकी एक खूबसूरत स्टेनो सेक्रेटरी थी, मिसेज चेरियन. पता नहीं वह सुदूर दक्षिण केरला से कैसे लखनऊ, फिर नैनीताल पहुँची. डिपार्टमेंट के लोग उसे ‘चेरियन’ के बजाय ‘चिड़िया मैडम’ कहा करते थे.

उत्तर प्रदेश में प्रमोशन में आरक्षण होते ही एस.सी.\एस.टी. कर्मचारियों को प्राथमिकता मिल गयी. अगड़ों की वरीयता धरी की धरी रह गयी. इस नियम से रूपचंद मौर्य भी लाभान्वित हुए. उनको डेप्युटी डाईरेक्टर के पद पर प्रमोशन देते हुए पिथौरागढ़ स्थानातरण का आदेश मिला, लेकिन किसी मिनिस्टर की सिफारिश लगा कर कोई दूसरा ही सज्जन वहां नियुक्ति पा गया. इस तरह रूपचंद मौर्य को अपनी ही जगह पर प्रमोशन मिल गया.

अब रूपचंद मौर्य डेप्युटी डाइरेक्टर की कुर्सी पर विराजमान हो गए, और जब ‘चिड़िया मैडम’ उनके केबिन में आती तो वे बड़े अदब से उसे बैठने को कहते. मिसेज चेरियन बहुत अनुभवी महिला हैं. उनका सारा प्रशासनिक कार्य संभालती हैं. डाईरेक्टर साहब तो बस साइन भर कर देते हैं. मन ही मन कहते हैं, 'आरक्षण जिंदाबाद’.

एक पुराना कर्मचारी जो साहब के साथ कभी बागान में चिड़िया उड़ाता था,  व्यंग्य पूर्वक अपने साथियों से कह रहा था, “जो चिड़िया उड़ाते थे, अब चिड़िया बैठाते हैं.”
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रविवार, 16 दिसंबर 2012

छोटी सी 'बड़ी बात'

संन  १९६३-६४ में, मैं लाखेरी सीमेंट कर्मचारी बहुधन्धी सहकारी समिति (जिला बूंदी, राजस्थान) के प्रबंधकारिणी का अवैतनिक महामंत्री चुना गया. समिति का बड़ा कार्य-व्यापार था. कई उपभोक्ता वस्तुओं की ऐजेंसीज भी समिति के पास थी. डनलप कम्पनी द्वारा निर्मित साइकिल के ट्यूब-टायर कंट्रोल से मिला करते थे. समिति को हर महीने कुल ५० टायर-टयूब अलॉट होते थे. समिति की सदस्य संख्या तब लगभग १५०० थी. कस्बाई परिवेश में साइकिल ही मुख्य सवारी होती थी. इसलिए टायर-ट्यूब के लिए मारामारी होना स्वाभाविक था. निष्पक्षता बनाए रखने के लिए हमने तय किया कि इच्छुक ग्राहकों को लाटरी द्वारा चयन करके बेचे जाएँ और यह प्रयोग बहुत सफल भी हुआ. लाटरी में नाम आने के बाद यदि किसी ने किसी कारणवश अपना हिस्सा नहीं उठाया, तो उसे उस ग्राहक को दे दिया जाता था जो ज्यादा जरूरतमंद होता था. यह एक सामान्य प्रक्रिया हुआ करती थी.

इसके लगभग बीस वर्षों के पश्चात जब मैं कर्मचारी संघ के अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ रहा था, तो प्रमुख राजनैतिक पार्टियां पक्ष या विपक्ष में सक्रिय हो गयी. बड़े नेताओं के आने से चुनाव का माहौल गरमा गया. यद्यपि  उस चुनाव में भारी बहुमत से चुन लिया गया, पर एक छोटी सी ‘बड़ी बात’ मुझे आज भी पिछली पीढ़ी के लोगों की सरलता व सहज कृतज्ञता से अभिभूत करती है.

हुआ यों कि एक बुजुर्ग कामगार, श्री रामपाल (जो कि रिटायरमेंट के करीब थे), की माता का उसके गाँव में मतदान के दिन की पूर्व संध्या में देहावसान हो गया था. उन्हें तुरन्त अपने गाँव को प्रस्थान कर देना चाहिए था, पर नहीं उन्होंने अपने साथियों से कहा कि “मुझे पाण्डेय जी के पक्ष में वोट डाल कर ही जाना है क्योंकि उन्होंने मुझे तब साइकिल का ट्यूब-टायर दिलाया था जब मुझे उसकी सख्त  जरूरत थी.”

यह बात लोगों ने मुझे बाद में बताई. मुझे तो उनका टायर प्रकरण याद भी नहीं था और न मैंने उन पर कोई विशेष अहसान किया था. इधर जब भी मैं अहसान फरामोशी के किस्से सुनता-पढ़ता हूँ तो मुझे रामपाल जरूर याद आते हैं.
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शुक्रवार, 14 दिसंबर 2012

मन के आर-पार

मनुष्य कितना ही विद्वान हो, उसका मन हमेशा एक सा नहीं रहता है. रह भी नहीं सकता है क्योंकि परमात्मा ने काम, क्रोध, मद, लोभ जैसे दुर्गुण भी उसे प्रदान किये हुए हैं.

बालादत्त तिवारी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. उन्होंने स्कूल-कॉलेज की शिक्षा के साथ साथ अपने अध्यापक पिता से बचपन में ही हिन्दू धर्मशास्त्र की शिक्षा ले ली थी. और उनकी ओजस्वी वाणी ने उनके व्यक्तित्व पर चार चाँद लगा दिये. वे किशोरावस्था से ही बड़े बड़े धार्मिक आयोजनों में प्रवचन के लिए निमंत्रित किये जाने लगे थे. नैनीताल जिले के एक छोटे से गाँव के मध्यवर्गीय परिवार का ये नगीना बहुत जल्दी आसपास समाज का आदर्श भी बन गया.

जैसा कि आम तौर पर कूर्मांचल में होता रहा है, यौवन की दहलीज पर पैर रखते ही माता पिता को अपने बेटे के विवाह की चिंता लग जाती है. लड़का आवारा ना हो जाये इसलिए भी उसके पैरों में बेड़ियाँ डालना जरूरी समझा जाता है और वे उसे अपनी इच्छानुसार गृहस्थ जीवन में धकेल देते हैं. बालादत्त का विवाह माता-पिता की पसंद के अनुसार एक सुकन्या हीरा देवी से कर दिया गया. बालादत्त के पिता पण्डित लक्ष्मीदत्त तिवारी स्वयं ज्योतिष की गणना किया करते थे. उनको खुशी थी कि बेटे-बहू के जन्मलग्न के अनुसार २६ गुण साम्य वाले थे. गुणों के मिलान के आधार पर बहुत से विश्वास करने वाले लोग यह भी देखा करते हैं कि लड़के के मुकाबले लड़की के ग्रह नक्षत्र भारी नहीं होने चाहिए. इसमें राशियों के स्वामियों का भी चक्कर रहता है. मित्र राशियों की दृष्टि का भी ख़याल रखना पड़ता है. इस गोरखधंधे में कई बार बने हुए रिश्तों में रोड़ा आ जाता है या फिर बाद में पछताना पड़ता है.

सब कुछ हिसाब किताब लगाने के बावजूद हीरा देवी ने ससुराल आते ही अपना उग्र स्वभाव दिखाना शुरू कर दिया. समय समय पर हीरा देवी ने अशांति के कई अवसर पैदा किये. छोटी छोटी बातों पर बिगड़ जाना और रूठ जाना आम बात थी. बालादत्त के लिए पत्नी और परिवार के साथ सामंजस्य बैठाना कठिन हो जाता था. पत्नी के स्वभाव के आगे उनकी सारी विद्वता धरी की धरी रह गयी. इसी बीच उनको एक पुत्र रत्न की प्राप्ति भी हो गयी. यह सोचा जा रहा था कि अब सब ठीक होता जाएगा पर नहीं, हीरा देवी और भी नखरैल तथा कर्कशा बनी रही. एक दिन जब बालादत्त के अहं को ज्यादा ही ठेस पहुँच गयी तो उसने संकल्प किया कि गृहस्थ जीवन त्याग कर सन्यास ले लिया जाय और किसी को बिना बताए उन्होंने हरिद्वार का रुख कर लिया जहाँ कई महीनों तक अलग अलग आश्रमों/अखाड़ों में जाकर संत-महात्माओं के सानिध्य में रहे. एक दिन गुरू एकनाथ स्वामी ने उनको कंठी पहना दी और नाम दे दिया ‘निर्मोही नाथ’.

निर्मोही नाथ की वाणी में सरस्वती विराजती थी और धर्मशास्त्रों के विषय में विषद ज्ञान था. गुरू ने चेले को सही पहचाना और धर्म नगरी के बाहर धर्म प्रचार के कार्य में लगा दिया. बहुत जल्दी वे हरियाणा, पश्चमी उत्तर प्रदेश और हिमांचल में ज्ञानी संत के रूप में स्थापित हो गए. प्रवचन किया करते थे तथा सच्चे मन से जगत कल्याण की बातें किया करते थे. दस वर्षों के अंतराल में वे एक स्थापित संत महात्मा की रूप में पहचाने जाने लगे. गुरू ने उनको हरियाणा के हिसार में स्थित अपने मठ का महंत बना कर भेज दिया. महंत बनने के बाद उनकी जीवनशैली बदल गयी. लोग अब अपने जीवन में घटित सच्चाइयों तथा समस्याओं के समाधान की फेहरिस्त लेकर आने वाले संसारियों की बातों ने उनके अपने अतीत में भी झांकने को मजबूर कर दिया.

एक दिन जब एक मजबूर महिला अपने १०-१५ वर्षीय पुत्र को लेकर उनके पास आई और आगे के लिए मार्गदर्शन व आशीर्वाद लेने से पहले बताने  लगी कि बच्चे का बाप अपनी गृहस्थी की जिम्मेदारियों से भाग कर लापता हो गया है तो महंत जी को उस कहानी में खुद को देखने का झटका सा लगा. उस रात महंत निर्मोही नाथ सो नहीं सके. सोचने लगे कि उनके बारे में भी इसी तरह की चर्चा घर-परिवार और समाज में होती होगी. वे हीरा देवी की बातों को लेकर अपने पुत्र की अनाथ स्थिति पर सोचते हुए बेचैन हो गए. बूढ़े माता-पिता के चित्र भी उनके सामने आने लगे. उनको लगा कि उन्होंने अपने परिवार के प्रति अन्याय किया है. पितृ ऋण नहीं चुकाया है. इस प्रकार अनेक मानसिक उथल पुथल के बाद, वे ब्रह्म मुहूर्त में उठकर दिल्ली की ओर रवाना हो गए. मठ की पुस्तिका में लिख आये कि आवश्यक कार्यवश नैनीताल जा रहे हैं.

सीधे अपने गाँव पहुंचे. माता पिता दोनों वृद्ध हो चले थे. निर्मोही बाबा का सही परिचय पाकर भाव विह्वल हो गए. हीरा देवी भी उजाड़खंड में उगे पेड़ की तरह कांतिहीन व झुर्रियों से ग्रस्त थी. अपने व्यवहार पर मानो लज्जा महसूस कर रही थी. बेटा चैतन्य, अपने पिता की प्रतिमूर्ति, सामने खड़ा सब देख रहा था. निर्मोही बाबा का मोह जागृत हो गया. उन्होंने अपनी झोली-झंटी फेंक कर वापस अपनी गृहस्थी में लौटने की स्वीकृति दे दी. गाँव-पड़ोस-बिरादरी में खुशी की लहर थी कि बालादत्त लौट आये हैं. इस कौतुक को देखने-सुनने को सभी नए पुराने लोग आ जुटे. हीरा देवी ने अपने सुहाग के चिन्हों को यथावत रखा था. उसको यह अहसास हो गया था कि सब कुछ उसके दुर्व्यवहार का परिणाम था. पति गायब होने के बाद ही उसे पति की महत्ता का भान हो गया था.

पिता ने कहा कि “जो हुआ सो हुआ" और अब बाला दत्त के वापस आने पर उनको मानो स्वर्ग के सब सुख प्राप्त हो गए हैं. घर में जश्न का माहौल हो गया, नाई बुलाया गया जिसने बालादत्त की हजामत करके उसे असली रूप में ला दिया. माँ बहुत खुश थी. लेकिन मनुष्य जो चाहता है या सोचता है, वह हमेशा सच नहीं हो पाता. एक सप्ताह बाद निर्मोही बाबा के अखाड़े के आठ-दस साधू उनके गाँव में आ धमके और बिना कोई बात-बहस किये बालादत्त पर टूट पड़े. चिमटों से मारते हुए उनको उसी अवस्था में ले गए जिसमें वे थे. साधुओं के इस अप्रत्याशित हमले से सभी लोग सकते में आ गए, पर कर कुछ भी नहीं सके.
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बुधवार, 12 दिसंबर 2012

चुहुल - ३९

(१)
सुदूर जंगल के निकट किसी गाँव में एक शहरी मेहमान आया. उसने देखा गाँव में कौवों की आबादी जरूरत से ज्यादा दिख रही है. उसने आतुर होकर एक ग्रामवासी से पूछ डाला, “तुम्हारे गाँव में कितने कौवे हैं?”
ग्रामवासी ने तुरन्त बताया, “गाँव में कुल १२५ कौवे हैं.”
आगंतुक को बड़ा आश्चर्य हुआ कि उस व्यक्ति ने इस तरह कौवों की सटीक संख्या कैसे बता दी! उसने उत्सुकतावश फिर पूछा, "अगर गिनती में कम ज्यादा निकले तो?”
गाँव वाले ने कैफियत दी, “अगर कौवे गिनती में कम निकले तो समझना कि शेष कौवे मेहमान बन कर अन्य गाँवों में गए होंगे, और ज्यादा निकले तो मानना कि तुम्हारी तरह ही मेहमान बन कर हमारे गाँव में आये हैं.”

(२)
प्रेमी बोला, “तुम्हारे छोटे भाई ने मुझे तुमको चूमते हुए देख लिया है, वह घर में चुगली तो नहीं करेगा?”
प्रेमिका ने इत्मीनान से कहा, “उसे आप केवल पाँच रूपये देकर चुप करा सकते हैं. इस तरह की हरकत देखने पर वह अक्सर पाँच रुपयों में ही खुश हो जाता है."

(३)
एक चित्रकार शहर के निकट किसी गाँव में आकर एक किसान की खूबसूरत झोपड़ी को देखकर उसे अपने कैनवास पर उतारने लगा तो किसान ने उससे पूछ लिया कि “इस चित्र का तुम क्या करोगे?”
चित्रकार बोला, "इस चित्र को मैं शहर में होने वाली प्रदर्शनी में रखूँगा, हजारों लोग इसे देखेंगे.”
किसान बोला, “तो मेहरबानी करके इसके नीचे यह भी लिख देना कि 'यह किराए के लिए खाली है.'"

(४)
एक नवविवाहिता पर उसके पति को ज्यादा ही लाड़ आ रहा था बोला, “तुम आराम करो, आज खाना में बना देता हूँ.”
खाना वास्तव में बहुत लजीज बना था. पत्नी ने तारीफ़ करते हुए कहा “आप तो बहुत बढ़िया खाना बना लेते हैं. जरूर आपने अपनी माता जी से सीखा होगा.”
इस पर पति बोला, “माँ से नहीं पिता जी से सीखा है."

(५)
एक पत्नी हर बात पर मर्दों को ‘बेचारा’ कहा करती थी. एक दिन उसके पति ने उससे पूछ ही लिया, "तुम हमेशा मर्दों को ‘बेचारा-बेचारा’ क्यों कहा करती हो?”
पत्नी बोली, “क्योंकि मर्द बेचारा हवाई जहाज बना सकता है, रेल मार्ग बना सकता है, बड़े बड़े पुल व बिल्डिंगें बना सकता है, विश्वयुद्ध लड़ सकता है, पर बेचारा अपनी कमीज का टूटा हुआ बटन नहीं टांग सकता.”

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मंगलवार, 11 दिसंबर 2012

गज़ल - ३

ज्यों चकवा देखा करता है
    हर शाम चांदनी की राहें,
ज्यों बेल-लता ढूंढा करती हैं
    ऊँचे दरख्तों की बाहें,

ऐसे ही हाँ, हम ऐसे ही
    पलकें बिछाये रहते हैं,
वो आयें हमारे पास कभी
    यों आस लगाते रहते हैं.

जब सावन आ के गाता है
    या आम कभी बौराते हों
हर बार दिवाली करते हम
    कि साजन शायद आतें हों.

जब मुंडेर पे कागा कह जाता
    कोई मेहमां आने वाला है
हमें और किसी का ख्याल कहाँ,
    कि दिलवर आने वाला है.

हर रात वो ख़्वाबों में आते हैं
    हर रात वो बातें करते हैं
हम शमा जलाये रहते हैं
    दिन को भी रातें करते हैं.

है ख्वाब में आने का ये आलम
    उनके खुद आने पे क्या होगा?
हम खुशी से मर जाएँगे अगर
    मेरे मेहमां का आलम क्या होगा?
                     ***

रविवार, 9 दिसंबर 2012

बैठे ठाले - ३

नई गाड़ी चलाने का रोमांच कुछ और ही होता है. मैं अपने १९ वर्ष पुरानी मारुती ८०० को एक एक्सचेंज ऑफर के तहत बदल कर, नई नैनो सी एक्स लेकर, घर आया तो देखा घर के गेट पर एक नौजवान भिखारी जिसकी उम्र लगभग २०-२२ वर्ष रही होगी, अपनी ढोलक पर थाप देता हुआ सुरीली आवाज में कुछ गा रहा था. वह बिलकुल देसी ठाठ में था. कुर्ता, काली वास्कट, धोती, गले में गेरुए रंग का दुपट्टा और सर पर साफ़ सुथरी सफ़ेद गांधी टोपी. माथे पर चन्दन तथा गले मे कंठीमाला. मैंने देखा कि ढोलक की तनियों में उसने दस दस रुपयों के बहुत सारे नोट फंसा रखे थे जिसका सन्देश यह था कि वह दस रुपयों का नोट ही स्वीकार करता था या लोग इससे कम उसे दिया ही नहीं करते हैं.

कोई लूला-लंगड़ा हो, अपाहिज हो, तो संस्कारवश कुछ न कुछ उसके दानपात्र में डालने में मन को खुशी होती है, लेकिन एक हृष्ट-पुष्ट जवान भीख मांगे तो बहुत बुरा लगता है, चाहे वह किसी भी वेश में हो. मैं अक्सर ऐसे भिखारियों को डांट-डपट कर भगा दिया करता हूँ. इसी क्रम में मैंने उससे भिड़ते ही कहा, “तुम सब प्रकार से सक्षम और तंदरुस्त हो, तुम्हें भीख माँगते हुए शर्म नहीं आती?”

उसने दीनता से कहा, “साहब, मैं तो बचपन से यों ही भजन गाकर माँगता हूँ. मैं जोगी जाति से हूँ, माँगकर खाना हमारा पेशा है.”

इतने में मेरी श्रीमती अन्दर से पाँच रुपयों का सिक्का लेकर उसे देने के लिए आई तो मैंने उससे कहा, “मत दो इसे, इसकी आदत देने वालों ने ही खराब कर रखी है. इसलिये ये कोई काम नहीं करता है.”

“अरे, जाने भी दो, अब दरवाजे पर आस लेकर आया है,” कहते हुए उसको रूपये देने लगी तो माँगने वाले ने अपना स्वाभिमान दिखाते हुए तेवर बदल लिए और बोला, “मुझे नहीं चाहिए तुम्हारे रुपये.” इतना कह कर वह बिना पीछे मुड़े चल दिया और अगले घर के आगे ढोलक के साथ भजन गाने लगा. यद्यपि मैंने अपनी श्रीमती के सामने यह दर्शाने की मुद्रा बनाई कि उस भिखारी को भगाने का मुझे कोई अफसोस नहीं था, लेकिन मन ही मन मुझे बहुत ग्लानि हो रही थी कि दर पर आया भिक्षुक अस्वीकृति के साथ चला गया था.

मुझे संत कबीर का वह दोहा स्मरण हो आया, जिसमें उन्होंने लिखा है, “साईं इतना दीजिए जा में कुटुंब समाय, मैं भी भूखा ना रहूँ साधु न भूखा जाय."

यह सनातनी व्यवस्था है जिसमें भिक्षाकर्म को भी एक सीमा तक मान्यता दी गयी है. साधु-संत, फ़कीर या जोगी सभी साधिकार आज भी गाँव-घरों में भिक्षा के लिए आते हैं और समर्थ लोग इसे भी धर्म की व्यवस्था मान कर दान देते हैं. (यहाँ मैं उन साधु-मठाधीशों की बात नहीं कर रहा हूँ, जो दिखावा कुछ करते हैं, और पांच-सितारा सुविधाएँ भोगा करते हैं.)

मुसलमानों में भी ईद के पहले या बाद में जकात (दान) देने का प्रावधान है. वहाँ तो बकायदा आमदनी का दस प्रतिशत तय है, चाहे लोग उसका सही तरीके से पालन करें या नहीं, पर नियम प्रतिपादित है.

मूल बात, मैंने अपनी नई नवेली नैनो को गैरेज में डाल कर, घर में खुशियों की चाबियाँ लेकर प्रवेश किया और अपने लैपटाप पर अपनी डाक देखने की प्रक्रिया शुरू की तो फेसबुक पर अपने एक सुह्रद मित्र श्री राकेश सारस्वत द्वारा डाली गयी एक दिल को छूने वाली छोटी सी रचना पढ़ कर अभिभूत हो गया. मैंने राकेश जी को बहुत साधुवाद दिया कि बड़ी प्यारी व यथार्थ को बांचती हुई पन्क्तियाँ उन्होंने प्रेषित की हैं. रचना का आशय इस प्रकार है:
"जब घर में विलासिता के नाम पर सिर्फ एक टेबलफैन था, माँ जब रोटिया बनाती थी, तो पहली रोटी गाय की, और फिर घर के सदस्यों के लिए, तथा अंत में कुतिया के नाम की रोटी बनाती थी. अन्न में चींटियों, चिड़ियों, गिलहरियों का भी हिस्सा होता था. काली कुतिया के ब्याने पर तेल-गुड़ का हलवा खिलाया जाता था, पर आज घर में गाड़ी है, ए.सी. है, फ्रिज-टीवी-कंप्यूटर व तमाम आधुनिक फर्नीचर है, लेकिन यदि कोई भिक्षुक गुहार लगाये तो उसे केवल दुत्कार मिलती है. खिड़की से मात्र कर्कश आवाज बाहर निकलती है."
भावार्थ यह है कि पहले जब कुछ नहीं था तो सब कुछ था, और अब सब कुछ होते हुए भी कुछ नहीं है.

इस रचना को पढ़कर मैं अपनी "खुशियों की चाबी" पर गंभीरता पूर्वक सोचने लगता हूँ कि यह वैचारिक  युगान्तकारी परिवर्तन हमें कहाँ ले जा रहे हैं और हमारे अंत:करण को अंत में  कितनी खुशी दे पायेंगे.
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शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012

आनुली आमा

आज से पचास/पछ्पन वर्ष पहले जब पण्डित हरीशचंद्र लोहनी का ब्याह रीति रिवाजों के अनुसार आनंदी उर्फ आनुली देवी के साथ हुआ और वे बारात के साथ दुल्हन की डोली लेकर अपने घर लौटे तो बहिनों, भाभियों तथा कौतुकी महिलाओं को वह बिलकुल पसंद नहीं आई. वे सभी मुँह बिचकाते हुए नई दुल्हन को जैसे अस्वीकार कर रही थी. कारण यह था कि बेचारी आनुली पैदाइशी मंदबुद्धि थी. जैसा कि आमतौर पर देखा जाता है, यह एक दुर्भाग्यपूर्ण मानसिक बीमारी होती है, जिसके चेहरे पर भी लक्षण दिखते हैं, जैसे आँखें बड़ी बड़ी बाहर को उभरी दीखती हैं, माथा असामान्य रूप से बड़ा हो जाता है और सुनने समझने की क्षमता भी अनियमित रहती है.

इसमें आनुली का तो कोई कसूर नहीं था, पर घर परिवार वालों ने उसकी डोर तेज-तर्रार हरीशचंद्र से बाँध दी. शादी कराने वाले बिचौलिए पुरोहित जी को तो अपनी दक्षिणा से मतलब होता है. जन्म लग्न-चिन्ह कुंडली का मिलान किया और २८/३६ गुण मिला दिये. लड़का-लड़की की पसंद/नापसंद पूछने का तब चलन भी नहीं था और पंडितों में केवल खानदान की कुलीनता पर विचार किया जाता था.

नई नवेली के बारे में जब सब तरफ से बदसूरती की बातें सुनाई पड़ी तो हरीश के दिल को बहुत आधात लगा. अगले ही दिन वह ‘दुर्कूण पलटाने’ (मायके की देहरी का दूसरी बार फेरा लगाने की रस्म) के लिए पत्नी आनुली को उसके मायके ले गया. रास्ते के पहाड़ी पगडंडियों पर पैदल चलते हुए हरीश के मन में बार बार तूफ़ान सा उठ रहा था. वह पत्नी से दूरी बना कर चलता रहा. आनुली की मन:स्थिति क्या रही होगी, कहा नहीं जा सकता. अगली सुबह वह उसे मायके में ही छोड़कर बिना सास-ससुर से विदाई लिए चुपके से अपने गाँव लौट आया.

सब तरफ चर्चा रही कि हरीश ने दुल्हन ‘छोड़ दी’ यानि त्याग दी. “धोखा हुआ है” हरीश के माता-पिता का ये कहना कुछ हद तक सही था. सुन्दर होनहार लड़के का जीवन उस अधपगली के साथ कैसे निभता. लड़की वालों को तो आनुली की असलियत मालूम थी. उन्होंने कन्यादान की रस्म पूरी करके अपना धर्म पूरा कर लिया और अपने परलोक के लिए पाप की गठरी नहीं रखी, पर अब ब्याहता आनुली जब मायके में ही रह गयी तो कहने लगे कि ‘इसके भाग्य में विधाता ने ऐसा ही लिखा होगा’ लेकिन आनुली तो अपनी नासमझी में भी खुद को सधवा-सुहागिन समझती रही और यों ही दिन काटती रही. मन में शिकवा शिकायत रही भी होगी तो उसने कभी प्रकट नहीं किया. भतीजियाँ, भाभियाँ या उनकी बहुवें जब कभी हरीश का नाम लेकर उसे छेडती थीं तो वह नादान बालिकाओं की तरह शरमा जरूर जाती थी यानि उसके मन में कहीं ना कहीं अपने निर्मोही पति की मूरत बसी जरूर थी.

इधर अगले वर्ष हरीशचंद्र की दूसरी शादी कर दी गयी. उसकी गृहस्थी की गाड़ी चल पडी. कालान्तर में उसके दो बेटे और दो बेटियाँ हुई. आनुली को पूरी तरह भुला दिया गया. वह अपने भाइयों के परिवार के साथ लावारिस पलती रही. उसको कोई गम भी नहीं था वह उम्र के तमाम पड़ाव पार करती रही. दोनों पक्षों के बुजुर्ग अपनी उम्र के अनुसार संसार से विदा होते रहे. एक दिन ७५ साल की उम्र में पण्डित हरिश्चन्द्र लोहनी भी स्वर्गवासी हो गए.

आनुली को इस सूतक में हरीश के लड़कों के पास लाया गया. उसने भी पत्नीधर्म के अनुसार अपनी चूड़ी-चरेऊ तोड़ी और मृत पति को तिलांजलि दी तथा श्राद्ध कर्मों में पानी-पुष्प चढ़ाया.

हरीश चन्द्र की दूसरी पत्नी व बेटों ने आनुली के बारे में केवल सुना ही था, कभी मिले नहीं थे. अब इस अवसर पर जब वह साथ रही तो वे सभी उसकी मासूमियत और निश्छलता पर इतने द्रवित हुए कि उसको क्रियाकर्म के बाद भी अपने पास ही रोक लिया.

हरीश लोहनी के नाती-पोतों के लिए ‘आनुली आमा’ एक अजूबी तो थी, पर सभी ने उसे परिवार के सदस्य के रूप मे स्वीकार कर लिया. आनुली आमा को अब इहलोक से ज्यादा परलोक की फ़िक्र है. उसे दीन दुनिया की ज्यादा खबर तो नहीं है, पर वह संस्कारवश यह मानती है कि मरने के बाद ये बेटे ही उसको सदगति दिलाएंगे. वह बेटों से कहती भी है कि “जब मैं मर जाऊंगी तो मेरी अस्थियां-फूल चुन कर तुम हरिद्वार में अपने बाप की अस्थियों वाली जगह पर गंगा जी में डाल कर आना.” उसकी इस आस्था पर सबको दया आती है.
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बुधवार, 5 दिसंबर 2012

पहाड़िन

प्रकृति ने स्त्री और पुरुष दोनों में किसी को भी विशेषाधिकार दिये बिना पैदा किया, पर हमारे पुरुषप्रधान समाज में कानूनों के परे यदि कोई पुरुष यौन अपराध करे तो उसे उतनी गंभीरता से नहीं लिया जाता है, जबकि स्त्री को छोटी सी गलती पर भी दण्डित होना पडता है. होना यह भी चाहिए कि सीता जैसी पत्नी की अपेक्षा करने वाले स्वयं भी राम के चरित्र वाले हों. इस विषय में समाज की विद्रूपताएं अनेक बार प्रकाश में आती हैं, और नहीं भी आ पाती हैं. एक दुर्भाग्य की मारी स्त्री के कहानी इस प्रकार है:

२३ वर्षीय गोविन्द वल्लभ जोशी नया नया पंचायत सेक्रेटरी बना और ट्रेनिंग पाकर सीधे अपनी नियुक्ति में नैनीताल जिले के तराई में बरेली जिले की सीमा के पास लोकाती गाँव पहुँचा. तब उत्तराखंड अलग राज्य नहीं बना था और ना ही उधमसिंह नगर नाम के अलग जिले का उद्भव हुआ था.

गोविन्द जोशी जब कुर्मी आदिवासियों के इस देहाती गाँव को तलाशते हुए वहाँ गया तो ग्रामीणों ने परिचय में उससे उसके बारे में पूछा, “कहाँ के रहने वाले हो? कौन जात हो? आदि." गोविन्द ने सभी सवालों के जवाब दिये. बताया कि "वह पहाड़ का रहने वाला है, जाति से ब्राह्मण है, अभी अविवाहित है." इसी वार्तालाप के दौरान एक नौजवान ने कहा कि “हमारे नन्हे चाचा की जोरू भी पहाड़िन है,” तो गोविन्द को उत्सुकता हुई और उसने कहा कि “चलो मुलाक़ात कराओ.”

पता नहीं लडकों में से कैसे और किसने सुर्रा छोड़ दिया कि "पहाड़िन चाची का भाई आया है," बस फिर क्या था, गोविन्द को बाइज्जत नन्हे के घर ले जाया गया. नन्हे लगभग ५० वर्ष का काला कलूटा, चेहरे पर चेचक के बहुत से गहरे दाग व बड़ी बड़ी मूछों वाला आदमी था. उसको सब लोग लम्बरदार भी कह रहे थे. बातचीत शुरू हुई तो लम्बरदार ने गोविन्द को प्यार से ‘साले साहब’ भी पुकारा. यद्यपि गोविन्द यह सुन कर कुछ असहज हुआ, पर अपनापन पाकर उसे अच्छा भी लगा.

बहुत देर बाद पहाड़िन यानि कलावती झेंपते हुए प्रकट हुई. वह लगभग ४० साल की सुन्दर, सुडौल व गोरी-चिट्टी औरत थी. गोविन्द ने सहजता से नमस्कार किया तो कलावती की आँखें भर आई. उस वक्त ज्यादा कुशल बात पूछने का अवसर नहीं था. लम्बरदार ने पंचायत कार्यालय के पास ही गोविन्द के रहने-ठहरने की व्यवस्था कर दी.

गोविन्द जोशी के मन में कई दिनों तक ‘पहाड़िन’ के बारे में जानने के लिए कौतुहल रहा कि पहाड़ी औरत इस कुर्मी-भुर्जी लोगों के गाँव तक कैसे  पहुँची होगी? नन्हे-कलावती की १२ वर्षीय बेटी भवानी और १० वर्षीय बेटा छोटू गोविन्द को ‘मामा’ संबोधन से पुकारने लगे थे, और माँ द्वारा भेजी गयी खाने पीने की चीजें उसको पहुंचाते थे. गोविन्द ने उनसे उनकी माँ के बारे में बहुत सी जानकारी ले ली, पर वे यह नहीं बता सके कि वह इस आदिवासी गाँव में कैसे आई?

एक दिन गोविन्द ने जब कलावती से जिज्ञासावश अकेले में पूछ ही लिया, “दीदी, तुम यहाँ कैसे पहुंची?” यह प्रश्न सुन कर कलावती बहुत उदास हो गयी और बोली, “भैय्या, ये सब भाग्य का चक्कर था. मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि अपने घर-परिवार, माँ-बाप, भाई-बहिनों से इस तरह दूर हो जाऊंगी. अब तुम भाई बन कर आये हो तो सच्चाई ये है कि मैं द्वाराहाट के सीलोन गाँव की ब्राह्मण परिवार की बहू थी. पति फ़ौज में थे, उनकी अनुपस्थिति में मुझ से एक भूल हो गयी. मैं एक पड़ोसी को अपना समझ बैठी. उसने मुझ से ऐसा धोखा किया कि मैं बदनाम हो गयी. बात इतनी बिगड़ गयी कि गाँव वालों ने मुझे गाँव से निकाल दिया. मैं बेसहारा, बदहवास होकर बस से हल्द्वानी आ गयी. वहाँ मेरी एक बुआ रहती है, पर उसके घर का पता मेरे पास नहीं था तभी मुझे एक आदमी मिला, जिसे मैंने अपना हमदर्द समझा लेकिन उसने सहारा देने के नाम पर मुझे इस लम्बरदार को बेच दिया. अब यही मेरा घर है, यही मेरा सँसार है.” यह बयान करते हुए उसके गालों में आंसू ढुलक पड़े.

गोविन्द जोशी बताते हैं कि “मैं जब तक उस गाँव में पंचायत सेक्रेटरी रहा उस परिवार को अपना समझता रहा और कलावती को अपनी बहिन के रूप में देखता रहा. दो वर्षों के बाद मैंने पंचायत सेक्रेटरी की नौकरी छोड़ कर पन्तनगर कृषि विश्वविद्यालय में बतौर अकाउंट्स क्लर्क नियुक्त हो गया. यह ३५ साल पुरानी दास्तान है.”

गोविन्द जोशी आगे बताते हैं, “मैं धीरे धीरे उस रिश्ते को भूलता गया क्योंकि अपनी शादी होने के बाद मैं अपनी गृहस्थी में व्यस्त हो गया. उसके लगभग १० वर्षों के बाद एक दिन नन्हे लम्बरदार और उसकी पत्नी कलावती मुझे ढूंढते हुए पन्तनगर आ पहुंचे. मुझे बहुत अच्छा लगा. मैं उनको आवासीय परिसर में अपने क्वार्टर पर ले गया. मेरी पत्नी ने उनका अपने रिश्तेदारों की तरह स्वागत-सत्कार किया.

कलावती दीदी ने बताया कि वह इन वर्षों में मुझे बहुत याद करती रही. उसने अपना दर्द इन शब्दों में बयान किया, “मुझे लगता है कि मैं कहीं लंका में जा बसी हूँ और जीवन में कभी भी अयोध्या नहीं लौट पाऊँगी.”

उसका इस प्रकार सोचना स्वाभाविक है. कोमल नारी ह्रदय अपने बचपन, सगे सम्बन्धियों, रीति-रिवाज व संस्कारों से बिछुड़ने के बाद ऐसी त्रासदी झेलने को मजबूर था. एक भूल ने उसका सब कुछ बदल कर रख दिया था.
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सोमवार, 3 दिसंबर 2012

झोलाछाप

झोलाछाप शब्द का प्रयोग उन चिकित्सकों के लिए प्रयोग किया जाता है, जो बिना किसी मान्यता प्राप्त डिग्री/डिप्लोमा के ही कार्यरत हैं. अंग्रेजी में इनको ‘क्वैक्स’ कहा जाता है. इन चिकित्सकों को दो प्रकार से देखा जाता है: एक तो यह कि इनको शरीरक्रिया विज्ञान तथा द्रव्यगुण विज्ञान की कोई जानकारी नहीं होती है और ये उन लोगों के जीवन से खिलवाड़ करते हैं जिनको ये पता ही नहीं होता है वह चिकित्सक योग्य है या नहीं. क्योंकि आजादी के ६५ सालों के बाद भी हमारे देश में अशिक्षा और अज्ञानता चारों ओर फ़ैली पड़ी है.

दूसरा यह कि हमारा देश इतना विशाल है जिसकी जनसंख्या सवा अरब के पार जा चुकी है, जिसको सँभालने के लिए योग्यता प्राप्त डॉक्टरों/वैद्यों/हकीमों की संख्या बहुत कम है. अधिकांश योग्य चिकित्सक शहरों में ही अपना ठिकाना बना लेते हैं, वहीं नौकरी या प्राईवेट प्रेक्टिस करते हैं. सरकारों के लाख चाहने पर /आर्थिक प्रलोभन बढ़ाने पर भी वे गाँव-देहात में नहीं जाना चाहते है, जबकि तीन चौथाई आबादी गावों में ही बसती है तथा उन्हें स्वास्थ्य सम्बन्धी निगरानी की अधिक आवश्यकता होती है.

सच तो यह है कि ‘चिकित्सा’ अब कोई सेवा का मिशन नहीं रहा है. यह व्यवसाय बन गया है. व्यवसाय के रूप में भी लूट का जरिया बन गया है. बड़े बड़े डॉक्टरों ने अपनी दुकानें (अस्पताल) खोल ली हैं, जिनमें पहले कंसल्टेंसी के रूप में तगड़ी फीस ली जाती है और फिर स्वयं द्वारा नियोजित लैब/डाईग्नोसिस सेंटर्स में आवश्यक/अनावश्यक टेस्ट करवाकर मरीज को छील लिया जाता है.

देश में दवाओं का यह हाल है कि उनकी लागत व खुदरा कीमत में १००-२०० गुना का फर्क होता है. कई नामी कंपनियां अपने रिटेलर्स को २५ से ५० प्रतिशत तक का कमीशन दिया करती हैं. बिकने वाली दवाओं में भी लिखने वाले डॉक्टरों का कमीशन तय रहता है. इस सब के बावजूद तुर्रा यह है कि दवा असली है या नकली इसकी कोई गारंटी नहीं होती है. एक प्रबुद्ध कैमिस्ट का बयान है कि “दवाओं के असली या नकली होने की पहचान हम खुद ही नहीं कर पाते हैं.”
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यह गंभीर चिंता का विषय है कि सरकारी अस्पतालों को उपलब्ध होने वाली दवाओं में गुणवत्ता और कीमत में कितना घोटाला हो रहा है? इसी सन्दर्भ में उत्तर प्रदेश के कई सी.एम.ओ. मारे गए हैं, अथवा लिप्त पाए गए हैं.
इस परिदृश्य में लाखों झोलाछाप डॉक्टर/वैद्य/हकीम, प्रतिबंधित/शेड्यूल्ड दवाओं-इंजेक्शनों का धड़ल्ले से प्रयोग कर रहे हैं और कमाई कर रहे हैं. इनसे ईलाज कराने में हर आम गरीब आदमी को लगता है कि कन्सल्टिंग फीस तथा डाईग्नोसिस सेंटर का खर्चा बच गया. स्वस्थ होने वाला मरीज बहुत सस्ते में निबटने पर राहत महसूस करता है.

जहाँ तक राहत महसूस करने की बात है एक अध्ययन से यह निष्कर्ष निकाला गया कि ९५% रोगी तो हवा-पानी और अपनी प्रतिरोधात्मक क्षमता से कुछ दिनों में स्वत: ठीक हो जाते हैं, पर लाक्षणिक चिकित्सा से उनको लगता है कि दवा से ठीक हुए हैं. शेष ५ प्रतिशत में से ३ प्रतिशत अवश्य दवाओं का लाभ पाते हैं, बाकी बचे हुए दो प्रतिशत ऐसे होते हैं, जिनको योग्य चिकित्सक व सही डाईग्नोसिस की जरूरत होती है. अगर ये उपलब्द्ध हो गए तो ठीक, अन्यथा मृत्यु तो एक शाश्वत सत्य है, चाहे वह गलत दवाओं के कारण अकाल ही आ गयी हो.

झोलाछाप चिकित्सकों की योग्यता पर सवाल उठाने तथा उनके विरुद्ध कार्यवाही करने की माँग करने वाले मुख्यत: वे योग्यता प्राप्त डॉक्टर या उनके संगठन होते हैं, जिनके आर्थिक हितों पर इनकी वजह से कमी आती है. केन्द्र/प्रदेश सरकारों ने चिकित्साधिकार देने वाली मेडीकल काउंसिलें बना रखी हैं, लेकिन उनकी निगरानी कितनी कारगर होती हैं, उस पर भी अनेक संदेह हैं. जो पंजीकृत कैमिस्ट या वैद्य कई साल पहले गुजर चुके हैं, उनके सर्टीफिकेट आज भी लाइसेंस के रूप में दुकानों पर टांगे हुए मिलेंगे. आदमी कहीं नौकरी कर रहा है और उसका सर्टीफिकेट किराए पर कैमिस्ट को दिया गया है. ड्रग इन्स्पेक्टर/हेल्थ ऑफिसर सबकी रंगदारी तय रहती है. यह हमारे भ्रष्ट तन्त्र की सच्चाई है.

इस पूरे विषय का दूसरा पहलू यह धारणा भी है कि सभी योग्यता प्राप्त या सर्टिफाइड डॉक्टर होशियार होते है. यह बिलकुल गलत है. ३३% अंक लेकर उतीर्ण होने वाले या मुन्ना भाईयों की तरकीब से जो डॉक्टर बने हैं, वे झोलाछाप डॉक्टरों से बदतर होते हैं. झोलाछाप में भी कई श्रेणियाँ हैं: कुछ ट्रेंड/अनट्रेंड कम्पाउन्डर, फार्मसिस्ट, नर्स, या अन्य अस्पताल कर्मी अपने दीर्घकालीन अनुभवों से जो ज्ञान प्राप्त किये रहते हैं, उससे उनके द्वारा किया गया चिकित्सकीय कार्य सस्ता टिकाऊ और सही होता है. ऐसे कई मामले सामने आते हैं, जिनमें आम लोगों का विश्वास बड़े डाक्टरों की अपेक्षा इन पर ज्यादा होता है. अनुभव ऐसी चीज है, जो मात्र पढ़ाई से प्राप्त नहीं किया जा सकता. इसका कोई छोटा रास्ता भी नहीं होता. इसी क्रम में खानदानी वैद्य व हकीम भी आते हैं, जो पीढ़ी दर पीढ़ी इसी विद्या से जुड़े रहते हैं. कुछ समय पहले तक ‘अनुभव के आधार पर’ चिकित्साधिकार के पंजीकरण होते रहे हैं. ऐसे चिकित्सक अपने नाम के आगे R.M.P. लिखने से गुरेज नहीं करते हैं.

ऐतराज की बात यही है कि आयुर्वेद पढ़ा हुआ चिकित्सक यदि एलोपैथिक दवाओं का प्रयोग कराये या एलोपैथिक/होम्योपैथिक वाला अपनी चिकित्सा पद्धति के बजाय दूसरी दवाएं लिखे तो पूरी प्रणाली पर प्रश्न उठने लगते हैं. स्थिति यह भी होती है कि लोग तुरन्त स्वास्थ्य लाभ चाहते हैं, चाहे उनकी दवा में ‘कार्टीज़ोन या स्टीरोइड’ मिला कर दी जा रही हो, जिसके दूरगामी परिणाम घातक होते हैं.

एक समय सरकार ने चीन देश की तर्ज पर गाँवों-कस्बों में इस प्रकार चिकित्सा कार्यव्यापार कर रहे लोगों की लिस्ट बनवाई थी और इरादा था कि सबको चिकित्सा के मूलभूत आधार-सिद्धांतों की ट्रेनिंग दी जाये, पर बाद में इस विषय पर चर्चा बन्द हो गयी है. हल्ला-गुल्ला तभी होता है जब ‘क्वैक्स’ के हाथों से अचानक कोई मर जाता है और समाचार की सुर्खियाँ बन जाता है.

स्वास्थ्य मंत्रालय को इस विषय पर गंभीरता से विचार करना चाहिए.
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शनिवार, 1 दिसंबर 2012

चुहुल - ३८

(१)
ऑफिस में काम करने वाले एक सज्जन ने अपने साथी से कहा, “यार, अगर आज घर जाकर तुम्हारे साथ कोई घाटे की घटना पेश आये तो तुम अपने गम में मुझे भी शामिल समझना.”
“घाटे की घटना? मैं समझा नहीं?” साथी ने पूछा.
वह बोला “मेरी पत्नी ने कल १५,००० हजार रुपयों की एक साड़ी खरीदी है, जिसे पहन कर वह आज तुम्हारी बीवी से मिलने गयी है.”

(२)
एक आदमी ने अपनी पत्नी का बीमा कराया और पॉलिसी लेते वक्त एजेंट से पूछा, “अगर कल को मेरी पत्नी की मृत्यु हो गयी तो मुझे क्या मिलेगा?”
एजेंट बोला, “ज्यादा से ज्यादा मृत्युदंड.”

(३)
एक बदमिजाज औरत जासूसी उपन्यास पढ़ रही थी. पढ़ते पढ़ते अपने पति से बोली, “अगर कोई मुझे अगवा करके उठा ले जाये तो तुम क्या करोगे?”
पति बोला, “मैं उससे कहूँगा - ऐसे रिस्क लेने की क्या जरूरत है? आराम से ले जाओ.”

(४)
एक व्यक्ति अपने दस वर्षीय बेटे को चिड़ियाघर दिखाने के लिए गया. वहाँ पर शेर के पिंजड़े के पास खड़ा होकर लड़का गुमसुम हो गया और गहरे सोच में पड़ गया. बाप ने उससे पूछा, “क्या सोच रहे हो, बेटा?”
बेटा बोला, “मैं सोच रहा हूँ कि अगर पिंजड़े से निकल कर ये शेर आपको खा जाएगा तो मैं कितने नम्बर की बस से घर जाऊंगा?”

(५)
पोस्टमैन की नौकरी के लिए उम्मीदवारों का इन्टरव्यू हो रहा था. एक उम्मीदवार से प्रश्न पूछा गया, “बताओ, पृथ्वी से चंद्रमा के बीच कितनी दूरी है?”
उम्मीदवार चिंता में पड़ गया, बोला, “अगर आप लोग मुझे इतनी दूर डाक पहुंचाने का काम देना चाहते हैं तो ये नौकरी मुझे नहीं चाहिए,” और उठ कर चला गया.
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गुरुवार, 29 नवंबर 2012

मनभावनी

मोतिया कपोलन में लाली ये गुलाब सी,
नयना हैं सम्मोहनी-दिलनशीं शराब सी.

अबीर बन गया हूँ मैं, मुझको तुमसे प्यार है,
प्यार में बिखेर दो, जाँ तुम्हें निसार है.

छप रहूँ तुम्हारे तन, मोरडे का पँख बन,
पद्मिनी सी बाँध लो, छुप रहूँ तुम्हारे तन.

खिलखिला उड़ेल दो प्यार का अनूप रंग
सिलसिला बना रहे, भीजहूँ तुम्हारे संग.

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मंगलवार, 27 नवंबर 2012

उत्तम वृद्धाश्रम

कुछ लोग बाहर से कुछ होते हैं और अन्दर से कुछ और, लेकिन पण्डित उत्तमचन्द्र पुरोहित, जैसे बाहर से उज्जवल-धवल और निर्विकार दिखते थे, अन्दर से भी बिलकुल वैसे ही थे. एकाएक विश्वास नहीं होता कि इस कलियुग में आज भी ऐसे मनीषी पैदा होते रहते हैं.

बामनिया गाँव लगभग दो सौ घरों वाला पुराना गाँव है, जिसमें अधिकतर घर सनाढ्य ब्राह्मणों के हैं. कथावाचक स्वर्गीय पण्डित दीनदयाल पुरोहित के ज्येष्ठपुत्र उत्तमचन्द्र बचपन से ही धार्मिक संस्कारों में उसी तरह पगे हुए थे, जिस तरह सुनार की भट्टी में सोना निखरता है. प्रारंभिक शिक्षा के लिए उनको हरिद्वार के एक नामी गुरुकुल में भेज दिया गया था और वहाँ से अनेक विद्याओं में पारंगत होकर विद्यावाचस्पति की उपाधि के साथ अपने गाँव लौटे. गाँव लौट कर भी उन्होंने बनारस जाने का निर्णय किया जहाँ अंगरेजी व उर्दू भाषा का ज्ञान प्राप्त किया और इनके साहित्य का अध्ययन किया. तत्पश्चात अनेक मंसूबे लेकर लौट आये.

पण्डित उत्तमचंद ने एक महान भविष्यदृष्टा की तरह जनसेवा का एक व्यापक मानचित्र अपने मन में बनाया और अपने गाँव में गुरुकुल जैसा ही प्रतिष्ठान स्थापित किया, जिसमें आचार्य रहते हुए उन्होंने गाँव के बच्चों के लिए बहुमुखी शिक्षा की व्यवस्था की. यह उन्हीं का प्रताप है कि उनके बाद वाली पीढ़ियों में बामनिया गाँव में पाँच आई ए एस, आठ आई पी एस, दर्जनों इंजीनियर्स, डॉक्टर्स, वकील, अध्यापक -प्राध्यापक हुए हैं, जो देश-समाज की सेवा में समर्पित हैं.

आजादी के बाद देश में टुच्ची दलगत राजनीति करने वाले या सेवा के नामपर धन बटोरने वाले सेठों/उद्योगपतियों/मठ-महंतों के लिए उनकी यह उपलब्धि ईर्ष्या का सबब हो सकता था, पर उन्होंने शुद्ध रूप से इसे अपने जीवन का निस्वार्थ मिशन बनाया, जिसकी कि आसपास प्रदेशों में कोई समकालीन मिसाल नहीं मिलती है.

पण्डित उत्तमचन्द्र हर दिल अजीज थे. एक अघोषित न्यायाधीश भी थे. गाँव के लोगों में कोई विवाद हो जाये तो लोग थाने या न्यायालय जाने के बजाय उनके पास आकर निपटारा करवा लेते थे. गाँव में नागरिक सुविधाओं के लिए पंचायत उनसे हमेशा मार्गदर्शन लेती रही. उनके जीवन की सरलता में इतनी व्यस्तता थी कि वे आजीवन कुंवारे ही रहे. कई बार विवाह के प्रस्ताव आये पर उन्होंने हमेशा सबको मुस्कुराकर टाल दिया. पैतृक संपत्ति सब उनके भाईयों की देखरेख में थी. उनके बीच वे एक सन्यासी की तरह जीवन जिए. उनकी गरिमा व आभामण्डल विश्वसनीय तथा दर्शनीय थी.

दलगत राजनीति से परे, वे साहित्य व दर्शन पर अपनी लेखनी चलाते रहे. यद्यपि उन्होंने अपने जीवन काल में अपनी रचनाओं को छपने/छपाने का कोई प्रयास नहीं किया--कारण वे आत्मप्रचार से कोसों दूर रहते थे--लेकिन अब जब वे इस सँसार में नहीं हैं तो उनके द्वारा लिखी गयी पुस्तकों के खजाने के प्रकाशन के लिए बहुत से विद्वान/प्रकाशक प्रयासरत हैं. जीवन के अन्तिम २५ वर्षों में उन्होंने भगवदगीता, कुरआन शरीफ तथा बाइबल पर भाष्य लिखे, जो पठनीय हैं. उन्होंने तीनों भाष्यों के अंत में यह वाक्य जरूर लिखा है: ‘सब धर्मों का सार यही है, सत्याचरण और परसुख चिन्तन.’

उम्र के अस्सी बसंत पार करने के बाद उनके मन में आया कि जीवन के शेष दिन हरिद्वार में गंगा मईया के तट पर साधना पूर्वक बिताने चाहिए. गाँव वालों से विदा लेने के लिए प्रस्थान से पूर्व उन्होंने विधिवत अपना श्राद्ध कर्म करवाया. सब को ब्रह्मभोज पर बुलाया. हरिद्वार में एक सुविधाओं वाले वृद्धाश्रम में उन्होंने एक लाख रूपये जमा करके अपने लिए एक सीट बुक करवा रखी थी. गाँव के लोगों ने सजल नेत्रों से इस सम्माननीय बुजुर्ग को विदा किया. एक दर्जन लोग उनके साथ हरिद्वार तक भी गए और छोड़ कर आये.

पुरोहित जी के लिए यह नया अनुभव जरूर था, लेकिन आश्रम के तमाम लोगों से उन्होंने धीरे धीरे स्नेह सम्बन्ध बना लिए. आश्रम का सादगी भरा निर्मल वातावरण उनको खूब भा रहा था, पर अब शरीर पर उम्र का प्रभाव तो था ही, ग्रीष्म व वर्षा ऋतु से लेकर शरद ऋतु तक आबोहवा भी अच्छी लग रही थी, पर जब शिशिर ऋतु आई तो ठण्ड से बहुत कष्ट होने लगा. असह्य होने पर उन्होंने सारी व्यथा अपने भतीजे को लिख डाली क्योंकि उनके पास अन्य कोई विकल्प नहीं था. नतीजा यह हुआ कि व्याकुल-चिंतित स्वजन तुरन्त हरिद्वार आकर उन्हें बामनिया गाँव ले आये. जहाँ वे लगभग दो वर्षों तक और जिए. एक दिन हरि कीर्तन करते हुए हृदयाघात हुआ और वे एकाएक चल दिये.

कृतज्ञ गाँव वासियों ने उनकी स्मृति में एक भव्य वृद्धाश्रम बनवाया है, नाम रखा है ‘उत्तम वृद्धाश्रम.’ आश्रम की मुख्य दीवार पर स्व. पण्डित उत्तमचन्द्र के एक आदमकद चित्र के नीचे लिखा है: "कौन कहता है कि अब इस धरा पर देव तुल्य लोग पैदा नहीं होते हैं?"
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रविवार, 25 नवंबर 2012

नामकरण के रुपये

हम सुनते, पढ़ते, और अनुभव करते रहे हैं कि एक राजहठ होता है, एक त्रियाहठ होता है और एक बालहठ भी होता है. हमारे देश में तो अब राजा नहीं रहे, पर जब थे तो उनमें बहुत से फितूरी या हठी हुआ करते थे. वे सर्वशक्तिमान थे इसलिए निरंकुश होते थे. उनके हठ राजसी होते थे, जिसका कोई तोड़ नहीं होता था. त्रियाहठ बहुत संवेदनशील और प्रतिशोधात्मक हुआ करते हैं इसलिए खतरनाक भी माना जाता है. जहाँ तक बालहठ की बात है यह बहुत मनोरंजक व गुदगुदाने वाले होता है.

मैंने एक पत्रिका में यह मजेदार किस्सा पढ़ा कि रेल यात्रा के दौरान एक प्यारा सा ५ वर्षीय बालक घी-रोटी खाने की जिद पर अड़ गया. रोटी तो थी पर घी कहाँ से लाते? बच्चे ने पूरे डिब्बे को सिर पर उठा लिया. मुंहलगा बच्चा था, डांट भी नहीं पा रहे थे. माँ-बाप परेशान हो गए. इतने में एक तीव्रबुद्धि सहयात्री को तरकीब सूझी. उसने तकिये के अन्दर से थोड़ी सी रुई निकालकर रोटी पर रख दी, माँ ने रुई पर रोटी रगड़कर घी-रोटी के रूप में बच्चे के मुँह में ग्रास दिया तो उसने प्रसन्नतापूर्वक रोटी खाई. इस दृश्य को देख रहे सभी यात्री लोट-पोट हुए बिना नहीं रहे.

मेरे घर पर मेरी पौत्री संजना का जब नामकरण संस्कार हुआ तो सभी नजदीकी इष्टमित्रों व पड़ोसियों को प्रीतिभोज पर आमन्त्रित किया था. बहुत बढ़िया ढंग से कार्यक्रम समपन्न हुआ. आजकल के दस्तूर के मुताबिक़ बालिका को शुभाशीषों के साथ रुपयों वाले लिफाफे भी मिले. शाम को उन रुपयों का हिसाब करते हुए धन देने वालों की लिस्ट बनाई जा रही थी क्योंकि यह सामाजिक दस्तूर होता है, जब उनके परिवारों में भी कोई शुभकार्य होगा तो प्रतिदान करते समय लिस्ट देख ली जाती है.

जब नोट गिने जा रहे थे, तो तब सात-वर्षीय पौत्र सिद्धान्त गौर से देख रहा था. उसने उसमें से कुछ रुपये लेने चाहे तो मैंने उसको बताया कि “ये रुपये संजना के नामकरण में आये हुए हैं. इसलिए ये उसी के हैं.” इस बात पर उसने प्रश्न किया कि “मेरे नामकरण पर पर भी तो रूपये आये होंगे, वे कहाँ हैं? मुझको मेरे रूपये चाहिए.”

वह जिद पर आ गया कि "मेरे रूपये अभी दो. अभी चाहिए.” स्वभाव से भी वह तेज रहा है. उसके माँ-बाप ने उसे समझाना चाहा पर बालहठ था वह अड़ गया. मुझे एक तरकीब सूझी और मैंने अपने बैंक की पुरानी चेक बुक का काउंटर फोलियो अलमारी से निकाल कर उसको दिया और कहा कि "तुम्हारे नामकरण के रूपये बैंक में जमा हैं. इस चेक बुक से तुम जब चाहो निकाल सकते हो.”

बैंक का नाम आते ही उसने उत्सुकता से पूछा, “इसमें कितने रूपये हैं?” मैंने उसे बताया कि “बैंक में तो रुपये बढ़ते रहते हैं. अब तक एक लाख तो हो ही गए होंगे.”

सिद्धान्त चेक बुक पाकर बहुत खुश हो गया क्योंकि अपने नामकरण का खजाना उसे मिल गया था. अब जब कि वह सयाना हो गया है, इस बालसुलभ प्यारे संस्मरण को मैं मौके-बेमौके उसे सुनाता हूँ तो वह भी  मुस्कुराए बिना नहीं रहता.

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शुक्रवार, 23 नवंबर 2012

माँ सच बोलती है

राजधानी से लगभग ३०  किलोमीटर बाहर एक बड़े नेता जी का फ़ार्म हाउस है. उन्होंने यह जमीन बर्षों पहले स्थानीय किसानों से अच्छी कीमत देकर खरीदी थी. चारों ओर दीवार, और उसके ऊपर कंटीली तारों की बाड़ लगी हुई है. अन्दर बहुत बढ़िया आधुनिक सुविधाओं युक्त फ़ार्म हाउस बना हुआ है. तरह तरह के पेड़ लगाए गए हैं. खूबसूरत लैंडस्केप बने हुए हैं. बचे हुए हिस्से में खेती भी होती है. पानी के लिए गहरा ट्यूबवेल बना है. सर्वत्र हरियाली है. इस प्रकार नेता जी के इस घर के ठाठ निराले हैं. उनके पारिवारिक समारोह/पार्टियां गाहे-बगाहे यहाँ आयोजित होती रहती हैं. चाक-चौबंद सिक्योरिटी रहती है.

बगल की जमीन वाले किसान भंवरलाल और उसके परिवार के लिए यह एक स्वप्नलोक जैसा है, जहाँ उनका प्रवेश निषेध है. नेता जी ने भंवरलाल को भी उसकी पाँच बीघा जमीन बेचने के लिए कई बार लालच भरे सन्देश भेजे, पर भंवरलाल को अपनी इस पुश्तैनी जमीन से बहुत लगाव रहा और उसने बेचने से इनकार कर दिया था. उसने सोचा रुपया तो आता जाता है, खर्च भी हो जाएगा, और अपनी अगली पीढ़ी के लिए विरासत नहीं छोड़ पायेगा.

भंवरलाल की जमीन अभी भी ऊबड़-खाबड़ है, नेताजी की दीवार से सटी जमीन पर बड़े बड़े झड़बेरी के पेड़ उगे हुए हैं. ऊसर जमीन है इसलिए केवल बरसाती फसल ही हो पाती है. आज भंवरलाल अपने हल-बैल लेकर जमीन जोतने गया हुआ है. उसकी पत्नी कंचनबाई डलिया में दिन के खाने का सामान रोटियां, साग, प्याज तथा पानी का बर्तन रख कर लाई है. उनका एक पाँच साल का बेटा भी है जो माँ के साथ साथ नंगे पैर खेत में इधर उधर डोल रहा है. धूप तेज है, उसकी माँ उसे बार बार दीवार की छाया में एक स्थान पर बैठाने का प्रयास करती है, पर बालक बहुत चँचल है, मानता ही नहीं.

दीवार के दूसरी तरफ पेड़ों पर बड़े बड़े गुब्बारे टंगे हुए हैं. वहाँ शायद नेता जी के बेटे-बेटी अथवा पोते-पोती का कल रात जन्मदिन मनाया होगा. बच्चे की नजर बार बार उन गुब्बारों पर जाती है. वह उनको ललचाई आँखों से देखता है. उसे इस दुनियादारी की कोई समझ अभी नहीं है. माँ सब समझ रही है कि बबुआ गुब्बारों को हसरत भरी नज़रों से देख रहा है. बेटे को वह झड़बेरी के दानों से खुश करना चाहती है, लेकिन झड़बेरी के पके हुए दाने तो गाँव के छोरे छापरों ने पहले ही तोड़ रखे है, जो बचे हैं वे बहुत ऊंचाई पर उसकी पहुँच से दूर हैं. बबुआ ने जब देखा कि माँ झड़बेरी तोड़ने के लिए प्रयासरत है तो वह थोड़ा उतावला हो गया. माँ को बेटे की उत्कंठा पर बहुत तरस और प्यार आ रहा था, साथ ही नेता जी के वैभव पर ईर्ष्या भी हो रही थी. वह बबुआ को गोद में ले लेती है और उसे परी कहानियों की मानिंद बताती है कि “धूप की गर्मी की वजह से गुब्बारे फूटने वाले हैं और उनके फूटने से जो भटाका होगा उससे झड़बेरी के दाने छिटक कर गिर पड़ेंगे”

बबुआ माँ की बात को तो पूरी तरह नहीं समझ पाता है, पर वह झड़बेरी मिलने की उम्मीद से खुश हो जाता है. उसका विश्वास है कि ‘माँ सच बोलती है.’

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बुधवार, 21 नवंबर 2012

नाड़ी-वैद्य

जब भी कोई बीमार व्यक्ति डॉक्टर, वैद्य या हकीम के पास जाता है तो प्रथम दृष्टया जो परीक्षा वह करते हैं, उनमें हाथ की नाड़ी या नब्ज देखना एक आम रिवाज सा है. ऐलोपैथिक चिकित्सा पद्धति वाले डॉक्टर तो इसे पल्स (हृदय की धड़कन की गति) जांच करना बताते हैं, इसके आगे कुछ भी नहीं. स्वस्थ व्यक्ति की पल्स रेट प्रति मिनट ७२ होती है, बीमार लोगों में रोग के अनुसार कम या ज्यादा पाई जाती है. यह बीमारी के बारे में अनुमान लगाने के लिए एक लक्षण समझा जाता है.

बाहरी तौर पर रोगी को हो रही परेशानियों का इतिहास पूछकर और आवश्यक हुआ तो थर्मामीटर, स्टैथेस्कोप से जाँच करके या रक्तादि पदार्थों/विकारों की प्रयोगशाला में जाँच की जाती है. रोग के निदान के और भी अनेक वैज्ञानिक तरीके व उपकरण आज डॉक्टरों के पास उपलब्द्ध होते हैं.

कहते हैं कि पहले समय में वैद्य जी (आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति वाले चिकित्सक) बीमार की नब्ज देख कर ही रोग की जानकारी ले लेते थे. आयुर्वेद के अनुसार मनुष्य के शरीर में तीन तरह के दोष होते हैं वात, पित्त व कफ. सारी चिकित्सा पद्धति इसी सिद्धांत पर आधारित है. यह एक गहन विषय है.

आयुर्वेद के तीन प्राचीन महान ग्रन्थ, जिन्हें वृहदत्रयी कहा जाता है (१) चरक संहिता, (२) सुश्रुत संहिता, (३) वाग्भट्ट; इनमें नाड़ी विज्ञान (नब्ज परीक्षण) के बारे में कोई चर्चा नहीं है, लेकिन शारंगधर आदि अनेक मान्य पुस्तकों इस विषय की विवेचना मिलती है. आधुनिक आयुर्वेदिक चिकित्सकों को यह विषय भी पढ़ाया जाता है.

बहुत से लोगों की मान्यता है कि यह एक फालतू मिथक है कि नाड़ी की गति देखने भर से रोग का निदान होता है. अधिकांश चिकित्सक केवल रोगी व्यक्ति के सन्तोष के लिए उसका हाथ पकड़ते हैं और  नब्ज टटोलने का नाटक भर करते हैं. लेकिन अनेक वैद्य दावा करते हैं कि यह एक विज्ञान है. ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है, जिनका दृढ़ विश्वास है कि नाड़ी का जानकार वैद्य रोगी से बीमारी के बारे में पूछताछ नहीं करता है और नब्ज की गति से ही सब मालूम कर लेता है. इसी सन्दर्भ में एक वैद्य जी ने एक बहुत मजेदार किस्सा कह सुनाया: 

"एक सनकी जागीरदार साहब ने एक नाड़ी वैद्य की जाँच करने के लिए उसे अपने महल में बुलाया और कहा कि “रोगिणी पर्दानशीं है इस वजह से सामने नहीं आ सकती है,” इस पर नाड़ी वैद्य ने कहा कि “मरीज के हाथ में एक पतली रस्सी बाँध दीजिए, उसका सिरा मुझे पकड़ा दीजिए.” जागीरदार ने अपनी घोड़ी की अगली टांग में रस्सी बाँध कर बगल वाले कमरे में वैद्य जी को पकड़ा दी. वैद्य जी देर तक रस्सी पकड़ने के बाद बोले, “रोगिणी को दाना, पानी, और चारा दीजिए, भूखी लगती है.”

यह दृष्टान्त अतिशयोक्तिपूर्ण लग सकता है, पर इसका भावार्थ यह है कि कुछ नाड़ी वैद्य इतने सिद्धहस्त होते हैं कि रस्सी के सहारे भी जाँच लेते हैं. चिकित्सा विज्ञान में अब सब तरह से सूक्ष्म विधाएं विकसित हो गई हैं और शरीर के परीक्षण में पूर्णतया वैज्ञानिक आधार पर शत्-प्रतिशत सही परिणाम उपलब्द्ध होते है, इसलिए अब केवल अनुमानों के आधार पर चिकित्सा करना/कराना बुद्धिमतापूर्ण नहीं है.
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सोमवार, 19 नवंबर 2012

क्योंकि तू सच बोलता है

दीवाली निकल गयी है. बिना बिके हुए दीयों, करवों, घडों का ढेर लगा हुआ है. चाक बन्द पड़ी है. अब तो गाँव के लोग भी मोमबत्ती जलाने लगे हैं. रही सही कसर इन चाइनीज लड़ियों ने पूरी कर दी है. पेट पालने के लिए कुछ तो करना ही पड़ेगा.

बुधराम कुम्हार आज बहुत दिनों के बाद मनरेगा में अपने गधे के साथ मजदूरी करने गया है. उसकी पत्नी शान्ति खूंटे से बंधी बूढ़ी गाय और दोनों बकरियों को चारा-पानी देकर घर के लिपे-पुते आँगन में नीम के पेड़ के नीचे खटिया पर सुस्ता रही है. उसका चौदह वर्षीय बेटा अरविन्द गाँव के सरकारी स्कूल में आठवीं कक्षा में पढ़ता है. वह बड़ा बुद्धिमान है. हर बार कक्षा में प्रथम आता रहा है. सभी मास्टर लोग उसकी बुद्धिमत्ता की व स्पष्टवादिता की तारीफ़ किया करते हैं. आज उसके स्कूल की छुट्टी है. वह माँ के बगल में खटिया पर आ बैठा है और अन्यमनस्क होकर माँ से पूछता है, “माँ, अगर ये गाँव का मुखिया मर जाएगा तो फिर कौन मुखिया बनेगा?”

माँ ने उत्तर दिया, “उसका बेटा.”

"अगर वह भी मर गया तो?” उसने फिर से प्रश्न किया.

“उसके परिवार का कोई और व्यक्ति मुखिया बन जाएगा.” माँ ने बताया.

उत्कंठित होकर अरविन्द ने एक और प्रश्न किया, “अगर उसके परिवार के सब लोग मर गए तो?”

माँ बेटे के अटपटे सवालों के जवाब देते जा रही थी, बोली, “अगर सब मर गए तो किसी इसके किसी रिश्तेदार को मुखिया बनाया जाएगा, मगर तू ये सब क्यों पूछ रहा है?”

अरविन्द बोला “यों ही, व्यवस्था परिवर्तन की बात सोचता हूँ.”

माँ उसका मतलब समझ गयी. उसने दुनिया देखी है. वर्तमान सामाजिक व्यवस्था, भ्रष्ट राजतंत्र, ऊँच-नीच सब उसकी जानकारी में है. इसलिए सभी बातों का निचोड़ निकालते हुए वह बेटे से बोली, “मैं तेरा मतलब समझ गयी हूँ, पर तू अपने मन में मुखिया बनने का सपना मत पालना क्योंकि ये लोग तुझे कभी भी मुखिया कबूल नहीं करेंगे क्योंकि तू सच बोलता है.”

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शनिवार, 17 नवंबर 2012

चुहुल - ३७

(१)
एक छोटे से कस्बे में एक बार कवि सम्मलेन का आयोजन किया गया. बड़े नामी कवि तो पहुंचे नहीं ऐसे ही छुटभइये कवियों को काव्यपाठ के लिए मंच पर बुलाया गया. श्रोता इस कारण आयोजकों से नाराज थे. मुख्य आयोजक राधेश्याम दृश्य से गायब हो गया.
एक कवि जब माइक पर लम्बी लंबी छोड़ रहा था तो बीच में एक दबंग किस्म का आदमी लट्ठ लेकर स्टेज के इर्द-गिर्द घूमने लगा. खतरे की स्थिति को भांपते हुए कवि उससे बोला,“आप ज्यादा परेशान मत होइए, बस आख़िरी चार लाइनें सुनाकर बैठ रहा हूँ.”
लट्ठबाज बोला, “आप सुनाते रहिये, आप तो हमारे मेहमान हैं. मैं तो राधेश्याम को ढूंढ रहा हूँ, जिसने आपको यहाँ बुलाया है.”


(२)
एक विदेश से लौटे धोबी ने शहर में अपनी नई नई लाँड्री खोली. लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए लाँड्री के बाहर बोर्ड भी लगाया, जिसमें लिखा था ‘हम आपके कपड़ों को हाथों से धोकर नहीं फाडते हैं, हमारा सब काम मशीनों से किया जाता है.’

(३)
एक कंजूस आदमी अपने दोस्त को अपनी कुशल-बात का पत्र बैरंग यानि बिना टिकट का लिफाफे में भेजा करता था. तीन-चार बार ऐसा हुआ. दोस्त को तकलीफ होनी ही थी क्योंकि हर बार दस रूपये जुर्माना देना पड़ रहा था.
इस बार दोस्त ने एक भारी सा पार्सल (VPP) कंजूस मित्र के नाम भेजा. मित्र ने अस्सी रुपये देकर पार्सल छुड़ाया, खोला तो देखा कि उसके अन्दर एक बड़ा सा पत्थर पड़ा था, जिस पर एक कागज़ चिपका था, लिखा था “दोस्त तुम्हारी कुशल पाकर इस पत्थर से भी भारी बोझ मन से उतर गया है.”

(४)
घर जवाँई बन कर ससुराल में रह रहे एक मर्द की पत्नी को उसकी बचपन की एक सहेली मिल गयी तो सहेली बोली, “तू बड़ी किस्मत वाली है. मायके और ससुराल दोनों के मजे एक साथ ले रही है. तेरा पति तो तेरे काबू में होगा?”
इस बात पर वह बोली “बहन, दूर के ढोल सुहावने लगते हैं, मेरा पति रोज रोज अपने मायके जाने की धमकी देता है.”

(५)
दिल्ली में लालकिले से यूनिवर्सिटी को जाने वाली बस में बहुत भीड़ थी. यात्री खड़े खड़े भी जा रहे थे. अचानक ड्राइवर ने जब ब्रेक लगाया तो एक नौजवान गिरते गिरते बचा. उसने धक्के में अपने आगे खड़ी लडकी का सहारा लिया था. लड़की को उसकी यह हरकत नागवार गुज़री. भन्ना कर बोली, “क्या कर रहे हो?”
लड़का संजीदगी से बोला, “पी.एच.डी. कर रहा हूँ, फाइनल स्टेज में हूँ.”
***

गुरुवार, 15 नवंबर 2012

तन्हा

                  (१)
डरता हूँ खेल तमाशों में जाने से,
मंदिर या महफ़िल में जाने से
भटके ना कहीं अनजाने में भी
मेरे महबूब की याद तन्हा.
                   (२)
दम-दिलासा देने वालों ने कहा मुझसे
लगा लो दिल जहाँ में और भी कुछ है.
सूझता है नहीं फकीरी में
कि दिल तो दे दिया कब का, बेचारा खो गया तन्हा.
                   (३)
दिन होता है तो रात ढूँढता हूँ
रात आती है तो नींद ढूँढता हूँ,
नींद मिल जाये तो ख्वाब ढूँढता हूँ,
ख्वाब आ जाये तो दिलबर को ढूँढता हूँ,
दिलबर मिल जाए तो फिर खुद को ढूँढता हूँ.
हाय! ये ढूँढने का मुसलसर रफत
जिंदगानी बन गयी है तन्हा.
                   (४)
गुलों से ये गुजारिश है, ना छेड़ें आज खुशबू से
खिजा तुमको भी ना बक्शेगी, हमारा हाल है तन्हा.
                   (५)
गंधी न दे इत्र मुझको
कि मुझे अब गन्ध नहीं सुहाती है
या पहले ला कर दे दवा मेरी
गन्ध मेरे दिलबर के तन की तन्हा.
                 ***

                

मंगलवार, 13 नवंबर 2012

मौलाना गिल्लौरी

पूरे शहर में चाचा गिल्लौरी को कौन बच्चा नहीं जानता है? वे जिधर को निकल जाते हैं, ‘गिल्लौरी-गिल्लौरी ’, चिल्लाते हुए बच्चे उनके पीछे लग जाते हैं. दरअसल अपने को लोगों की नजर में लाने के लिए बरसों पहले ये फंडा उन्होंने खुद ही ईजाद किया था. शुरू में उन्होंने सड़क चलते बच्चों को टॉफियाँ बांटी और ‘गिल्लौरी’ बोलने के लिए उकसाया, लेकिन अब तो छोटे-बड़े सब जानते हैं कि ये इस शहर का नगीना और कोई नहीं ‘मौलाना गिल्लौरी ’ ही हैं.‘मौलाना’ शब्द भी उनकी खुद कि तिकड़मबाजी से मिला था. हुआ यों कि एक बार वे जब पुरानी दिल्ली की चांदनी चौक में टोपियों की दूकान पर गए तो उनको वहाँ ‘तुर्की टोपी’ बहुत पसंद आई ऐसी टोपी उन्होंने शायर मिर्जा ग़ालिब और मुग़ल सल्तनत के आख़िरी बादशाह बहादुरशाह ‘जफ़र’ के चित्रों में देखी थी. जब वे तुर्की टोपी पहन कर शहर में लौटे तो लोगों की नजर में रातों-रात ‘मौलाना’ हो गए.

मौलाना गिल्लौरी ऐसी ऐसी खट्टी-मीठी बातें निकाल कर लाते हैं कि हर कोई लट्टू हो जाता है. उनके नायाब नुस्खों में मच्छरों से बचाव का जो उपाय है, वह बेहद कारगार है. महज दस ग्राम जीरे से निजात पाया जा सकता है. मौलाना गिल्लौरी बहुत गंभीर मुद्रा में बताते हैं कि “मच्छर को गर्दन से पकड़ लो और एक छोटे चिमटे से उसके मुँह में जीरा फिट कर दो, अगर वह अपना मुँह न खोले तो थोड़ी गुदगुदी करके खुलवाओ. बस वह फिर जीरे को मुंह में लिए लिए फिरेगा, निकाल नहीं पायेगा. हाँ मच्छर पकड़ने में थोड़ी मशक्कत आपको जरूर करनी पड़ेगी”

चाचा गिल्लौरी ने एक बार बच्चों को मोर पकड़ने की तरकीब भी बता डाली कि “शाम होते होते जब मोर अपने ठिकाने पर जाता है तो आप जाकर देख लो कि वह कहाँ बैठता है, सुबह सवेरे अँधेरे में ही जाकर उसकी कलगी में एक टिकिया मक्खन की फिट कर आओ. ज्यों ज्यों धूप खिलेगी गरमी से मक्खन पिघल कर उसकी आँखों में आएगा और वह कुछ समय के लिए अन्धा हो जाएगा. तब आप आराम से जाकर उसको पकड़ सकते हैं.” इस तरह बहुत से फंडे चाचा गिल्लौरी  के पास रहते हैं और बच्चे उनका खूब मजा लेते हैं.

यह बात सही है कि वे बच्चों से बहुत प्यार करते हैं. करते भी क्यों नहीं? उनके अपने हरम में ३ बीवियों से १८ छोटे-बड़े बच्चे मौजूद हैं. पूरा घर गुलजार रहता है. पिछली बार मीठी ईद के बाद घर के सभी सदस्यों ने मौलाना से ईदी में सिनेमा दिखाने का वादा लिया था सो, जुम्मे के दिन जब शाहरुख खान-कैटरीना की नई फिल्म लगने वाली थी तो पहले से २१ टिकट (जिनमें दस हाफ टिकट थे) मंगवा लिए गए. सब जने पैदल पैदल सिनेमा हाल के नजदीक पहुंचे ही थे कि एक पुलिस वाले ने मौलाना गिल्लौरी को रोक लिया. पुलिस वाला हाल ही में तबादला होकर यहाँ आया था और मौलाना से अपरिचित था. पुलिस वाला बोला “थाने चलिए”.

मौलाना थाने के नाम से घबरा गए और बोले, "पहले कसूर बताइए. आप जानते नहीं कि हम मौलाना गिल्लौरी है?."

“आप गिल्लौरी हैं या बिल्लौरी, थाने में तो आपको चलना पड़ेगा. इतने सारे लोग आपके पीछे पड़े हुए हैं, घेर रहे हैं, जरूर कोई गड़बड़ मामला लगता है.” पुलिस वाले ने कहा.

जब बच्चों ने खिलखिलाते हुए बताया कि “ये तो हमारे अब्बू हैं,” और मौलाना ने पुलिस वाले के हाथ में ईद का दस्तूर हँसते हुए रखा, तब जाकर आगे बढ़ पाए.

मौलाना गिल्लौरी इस बार कोई बड़ा चुनाव लड़ना चाहते हैं, पर कोई पार्टी उनको घास नहीं डाल रही है इसलिए वे आजाद उम्मीदवार के रूप में मैदान में उतरेंगे. वे चाहते हैं कि उनकी टोपी ही उनका चुनाव चिन्ह हो. उन्हें उम्मीद है कि शहर के सारे बच्चे उन्हें जरूर जीतने में मदद करेंगे.

***

रविवार, 11 नवंबर 2012

दीपोत्सव - प्रसंगवश

आज धन-तेरस है. अधिकाँश लोग धन का अर्थ यहाँ पर रुपया-पैसा-दौलत से लगाते हैं. सच तो यह है कि वैद्य धनवंतरि का आज के दिन उदभव हुआ था. पौराणिक गल्पों के अनुसार वे उन चौदह रत्नों में से एक थे जो सुरों व असुरों के द्वारा समुद्र मन्थन में निकले थे. अब व्यवसायिक हित साधने के लिए इसे सीधे सीधे धन से जोड़ दिया गया है. अन्धी दौड़ में सभी चाहते हैं कि उनके पास अधिक से अधिक धन आ जाये. वणिकजन धन संग्रह में ज्यादा प्रवीण होते हैं. अनेक माध्यमों से आम लोगों के दिलों में यह बात बैठा दी गयी है कि आज के दिन सोना, चांदी या बर्तन जरूर खरीदना चाहिए. अंधविश्वास की पराकाष्ठा यहाँ तक है कि पढ़े-लिखे विद्वान कहे जाने वाले लोग भी मोटर-गाड़ी या इस तरह का कीमती सामान खरीदने के लिए इस दिन की प्रतीक्षा करते हैं. तेरस, त्रियोदशी का अपभ्रंश मात्र है, यानि महीने में शुक्ल और कृष्ण, दो पक्ष, चन्द्रमा के उजाले के हिसाब से आते हैं दोनों में उजाला और अन्धेरा भी बराबर रहता है. त्रियोदशी एक तिथि मात्र है. 

दीपावली खुशियों का त्यौहार है, इसके पीछे अनेक दार्शनिक भाव व कथाएं हैं. यह प्रकाशपर्व कृषक वर्ग से लेकर वणिक वर्ग तक सबके लिए एक श्रेष्ठ संक्रमणकाल होता है. इस बहाने घरों की साफ़-सफाई, मित्र मिलन व खुशियों का आदान-प्रदान होता है. अगले दिन गोवर्धन पूजा का भी विधान होता है, हमारे हिन्दू धर्म की ये विशेषता है कि वर्ष भर कुछ न कुछ पर्व चलते रहते हैं.जिससे जीवन में शून्यभाव पैदा नहीं होता है. दीपावली धन की देवी लक्ष्मी के पूजन का भी बड़ा पर्व होता है. सत्य तो यह है कि पैसे को पैसा खींचता है. जो लोग अभावग्रस्त होते हैं, उन्हें उनकी प्रकृति के अनुसार दूसरों का उल्लास देखकर सुख या दु:ख अवश्य व्यापता होगा.

बारूदी पटाखे वातावरण को बहुत प्रदूषित करते हैं. यह चिंता का विषय है. पटाखों से ध्वनि प्रदूषण भी होता है जिसका खामियाजा बच्चे, बूढ़े व बीमार लोगों को भुगतना पड़ता है.

कुछ धनलोभी लोग दीपावली पर जुआ खेलना भी पर्व का एक आवश्यक कर्म मानते हैं. बिना प्रयास के रातोंरात अमीर बनने का ख्वाब इंसानी फितरत है, लेकिन यह धारणा बिलकुल भ्रांतिपूर्ण है. जुए में अनेक हँसते-खेलते परिवार बर्बाद होते हुए देखे गए हैं. सीख के लिए महाभारत की कथा एक अच्छा उदाहरण है. महाभारत के युगान्तकारी युद्ध की जड़ में जुआ और  बेईमानी ही मुख्य कारक थे.

आज देश में व्याप्त भ्रष्टाचार का श्रोत पूर्णरूपेण धनलिप्सा ही है. गाँधी जी ने कहा था कि धनिक लोगों को खुद को धन के ट्रस्टी के रूप में व्यवहार करना चाहिए, लेकिन आजकल शायद ही कोई ऐसा ट्रस्ट होगा जहाँ भ्रष्टाचार की जड़ें नहीं पहुँच पाई हो.
अंत में उन तमाम गृह स्वामियों/स्वामिनियों को सलाम है जो ‘मनीप्लांट’ को भी कुबेरदृष्टि मानते हैं और धन-तेरस पर इस लतिका की मन से पूजा किया करते हैं. हमने बचपन में नीति के एक दोहे में पढ़ा था:

         गोधन, गजधन, बाजिधन और रतनधन खान ! 
         जब आवे संतोषधन, सब धन धुरि सामान !!

परन्तु यह तो मात्र आप्तोपदेश भर है.
आप सभी को दीपावली की अनेक शुभकामनाओं के साथ.
***

शुक्रवार, 9 नवंबर 2012

पुदीने का फूल

मैंने बचपन से ही पुदीने का स्वाद चखा है और इसकी पौध भी देखी है, पर यहाँ अपने देश में मैंने पुदीने की पौध पर फूल कभी नहीं देखे. गत वर्ष संयुक्त राज्य अमेरिका के ज्योर्जिया राज्य के अटलांटा शहर में अपने बेटी-दामाद के कोर्टयार्ड में पुदीने के ऊँचे पौधों पर छोटे छोटे बैंगनी आभा वाले फूल देखने को मिले. यह पुदीना बहुत खुशबूदार व स्वाद में उतना तीखा चरपरा नहीं था जैसा हम भारत में पाते हैं.

मैंने पढ़ा है कि पुदीना विश्व के सभी उष्णकटिबंधीय क्षेत्र में पाई जाने वाली औषधीय वनस्पति है और आदि मानव से लेकर अब तक लोग किसी न किसी रूप में इसका प्रयोग करते हैं.

चूँकि पुदीने पर कभी फूल देखे नहीं थे इसलिए अजूबा सा लग रहा था. ‘पुदीने के फूल’ पर मुझे होलीकोत्सव पर किया गया अपना एक मजाक याद आ रहा है, जिसे मैं अपने पाठकों के साथ शेयर करना चाहता हूँ.

ए.सी.सी. लाखेरी (जिला बूंदी, राजस्थान) के आवासीय परिसर में हम लोग हर वर्ष होली के धुलंडी के दिन शाम को ३ घन्टे का एक हास्य कार्यक्रम, जिसे मूर्ख सम्मलेन भी कहा जाता था, आयोजित किया करते थे. महीने भर पहले से उसकी तैयारी की जाती थी. मैं उसका मुख्य सूत्रधार हुआ करता था. कार्यक्रम बहुत लोकप्रिय होता था, नाटक, स्वांग, गीत- कविताएं, समाचार, उपाधि वितरण स्थानीय मुद्दों को लेकर किये जाते थे. पूरे कार्यक्रम में कोई अश्लीलता या भोंडापन बिलकुल नहीं होता था. एक जिम्मेदार लोगों की कमेटी इसे पहले सेंसर भी करती थी. इस आयोजन में किसी न किसी गण्यमान्य व्यक्ति को प्रशस्ति पत्र देकर सम्मानित भी किया जाता था. सम्मानित क्या करते थे, उसका ठट्टा करते थे. शीर्षक होता था ‘बुरा ना मानो होली है’.

इस आयोजन के लिए हमारी कमेटी फैक्ट्री के कर्मचारियों व बाजार के दूकानदारों से चन्दा लिया करती थी. बाजार के लोग भी इस आयोजन का बड़ी बेसब्री से इन्तजार किया करते थे. बाजार में मोबिन भाई की एक साइकिल की नामी दूकान थी. उनसे चन्दा नकद ना लेकर गैस-पेट्रोमैक्स आदि प्रकाश की आपद्कालीन व्यवस्था की सेवा ली जाती थी. वे भी बहुत उत्साहित होकर सहयोग करते थे.

मोबिन भाई के वालिद (अब मरहूम) जनाब गुल मोहम्मद भी पहले दूकान पर बैठते थे. शहर में उनकी एक और बड़ी साइकिल की दूकान हुआ करती थी. मुझे मालूम नहीं लोग क्यों उन्हें ‘चाचा पुदीना’ कह कर चिढ़ाया करते थे. उनके साथ कोई ऐसी बात/घटना जरूर हुई होगी कि पुदीना से उनको चिढ़ थी. बच्चे तो बह बड़े लोग भी यह फिकरा उनको सुना कर मजा लेते थे. जवाब में वे गाली भी निकाल देते थे. उनकी यह कमजोरी पूरे इलाके वालों को मालूम थी.

सं १९८१ में मैंने मोबिन भाई का प्रशस्ति पत्र तैयार किया, जिसमें उनको “हे, पुदीने के फूल” से संबोधित किया गया. बकायदा उनको स्टेज पर बिठा कर यह प्रशस्ति पढ़ी गयी. लोगों ने पुदीने के फूल पर बहुत मजा लिया. हमारे लिए बात आई गयी हो गयी. उसके अगले वर्ष होली पर मैं उनसे फिर प्रकाश व्यवस्था के लिए मिलने गया तो वे बिफर पड़े, बोले, “मैं आप लोगों को इसलिए सहयोग नहीं करता कि आप मिलकर सार्वजनिक रूप से मुझे बेइज्जत करें. माफ करें मैं इस बार आपको सहयोग नहीं कर सकता.”

मुझे उनसे ऐसी उम्मीद नहीं थी, फिर भी मैंने हिम्मत नहीं हारी. उनको पुदीने का फूल कहने से जो दु:ख पहुँचा, उसके लिए क्षमा माँगी, पर उनकी नाराजी बरकरार रही. जब मैंने उनसे कहा कि अगर वे नाराज ही रहे तो हम इस बार भी स्टेज पर ‘पुदीने के फूल’ पर फिर चर्चा करेंगे, तो वे नरम पड़ गए और पुन: सहयोगी बने. जब तक ये सम्मलेन चलता रहा वे सहयोगी बने रहे.

***

बुधवार, 7 नवंबर 2012

रहमनिया

आपने रामकथा तो सुनी या पढ़ी होगी. उसमें एक दृष्टांत निषादराज का भी आता है, जो भगवान राम का परम मित्र बना और अमर हो गया. मैं उसी निषादराज के वंश की वर्त्तमान कड़ी की एक इकाई हूँ, और ना जाने किन अपराधों में शापित हूँ! शापित इसलिए कह रही हूँ कि ऊपरवाले ने मुझे सुगढ़-सुन्दर शरीर और रूप दिया लेकिन रंग पक्का यानि एकदम काला दिया है. यों तो मेरे माता-पिता दोनों ही सांवले थे

पर मैं अभागिन तो एकदम उल्टे तवे के रंग में खिली हूँ. दक्षिण भारत में तो मेरे जोट के बहुत से लोग हैं पर मैं यहाँ उस प्रदेश में जन्मी हूँ जहाँ अधिकतर लोग गोरे-चिट्टे या गोरी चमड़ी वाले होते हैं.

चावल के दानों के बीच मैं अकेली काले सोयाबीन की तरह अलग ही नजर आती हूँ. लोगों ने मेरे बचपन से ही मुझे ‘काली माई’ नाम दे रखा है. मुझे बुरा तो लगता है पर बोलने वालों का मुँह कौन बन्द कर सकता है? पिता काश्तकारी करते थे. समाज की पारम्परिक रीति रिवाज के अनुसार कम उम्र में ही मेरी शादी अपनी रिश्तेदारी में ही कर दी थी, लेकिन मेरा ‘गौना’ नहीं हो सका क्योंकि जिस लड़के से मेरी शादी हुई थी, उसने मेरे काले रंग पर नफ़रत जताते हुए मुझे त्याग दिया. इस बाबत तब मुझे ज्यादा ज्ञान भी नहीं था, लेकिन परित्यक्ता होने का लाभ यह मिला कि हाईस्कूल करने के बाद मुझे नर्स की ट्रेनिंग में प्राथमिकता से चयन कर लिया गया. तदनुसार ट्रेनिंग पूरी करने पर एक अस्पताल में नियुक्ति भी मिल गयी.

मैं काली थी तो क्या हुआ दिलवाली तो थी ही. इधर उधर नजर भटकती रही. एक हैंडसम पर दिल आ गया. मैं उसे अपनाना चाहती थी, लेकिन उसने प्रतिकारस्वरुप जो उत्तर मुझे दिया वह दिल तोड़ने वाला था. उसने लिखत में दिया :

“अमावस की रात में
   आसमान में बादल भरे हों ज्यों
     जुगनू सी टिमटिमाती आँखें
       काली बिल्ली सी तुम मुझ पर झपटना चाहती हो
         तुम्ही बोलो कैसे करूँ में प्यार?
           मुझको अंधियारी रातों की चाह नहीं.”

दुत्कार की यह पहली चोट नहीं थी. कई बार अपने इस रंग के कारण मुझे अपमानित होना पड़ा. एक बार दिल्ली के ऑल इंडिया मेडीकल इंस्टिट्यूट में स्टाफ नर्स के पद के लिये इन्टरव्यू देने पहुंचना था. जल्दी में रेल रिजर्वेशन नहीं हो पाया तो उम्मीद थी कि टीटीई मुझे कोई सीट देकर कृतार्थ कर देगा, पर जब मैंने उससे कहा “ब्रदर, मुझे जरूरी काम से दिल्ली जाना पड़ रहा है. प्लीज  एक सीट या बर्थ मुझे दे दीजिए.” इस पर उसे मानो बिच्छू का डंक लग गया हो वह तपाक से बोला, “मैं तुम जैसी चालू मद्रासी लडकियों को खूब जानता हूँ. दिन में लोगों के घरों में जाकर चन्दा उगाहती हो कि ‘बाढ़ आ गयी, सूखा पड़ गया है,’ और रात में रेल में रिजर्वेशन चाहिये. उतर जा मेरे पास कोई सीट तुम्हारे लिए नहीं है.” अन्य सुनने वाले यात्री ठहाका मार कर हँस रहे थे. सोचती हूँ कि क्या भूलूँ और क्या याद करूँ?

हिन्दू लोग भगवान को कृष्ण इसलिए कहते हैं कि वे काले थे. नाथद्वारे में विराजने वाले श्रीनाथ जी मेरे जैसे ही काले हैं. काले शनिदेव की हजार नियामतों के साथ पूजा की जाती है, पर मैं, जिसकी जिंदगी का मिशन सेवा और प्यार है, सामान्य सदाचार व आदर से भी महरूम रह जाती हूँ क्योंकि मैं इस समाज के नैतिक अनैतिक बंधनों में बंधी रही.

मुझे यह कहते हुए कतई संकोच नहीं है कि सारे के सारे लोग स्वार्थी है, जो केवल अपने सुखों की तलाश में जीते हैं. इहलोक, परलोक की बहुत सी गपबाजी की जाती है. मुझे इन बातों को सुनकर नफ़रत सी हो जाती है, मन विद्रोह करने लगता है, माथे पर तपन होने लगती है.

स्थितियां हमेशा एक सी नहीं रहती हैं. एक दिन ऐसा लगा मानो मेरे जलते-तपते माथे पर किसी ने अपना ठंडा हाथ रख कर अन्दर तक ठंडक पहुँचा दी. वह और कोई नहीं, अब्दुल था, अब्दुल रहमान. जो अपनी दादागिरी व गुंडागर्दी के लिए पूरी बस्ती में बदनाम था. मेरे लिए तो वह अवलम्बन बन कर आया. मुझे बिलकुल नहीं लगता कि वह कोई गुंडा या गैंगस्टर है. वह तो मजलूम, मजबूर व बेबसों का हमदर्द है. उनके लिए वह अपनी जान पर भी खेलकर लड़ पडता है. ऐसे मामले में गुंडई की परिभाषा बदलनी होगी. पर बदलेगा कौन?

उसने मुझे अपना बना लिया और मैं भी उसके साथ अपने को सुरक्षित महसूस करने लगी. उसके तमाम दुर्गुणों में मुझे अच्छाइयां नजर आने लगी, वह मेरे अनछुए जीवन में बहार बन के आया.

यह सच है कि मेरी जाति समाज के ठेकेदारों ने मुझ पर थू-थू किया और मेरा सामाजिक बहिष्कार कर दिया, पर मैं अब्दुल रहमान की अब्दुल रहमनिया बन कर बहुत खुश हूँ और तृप्त हूँ. वह हर मुकाम पर मेरा साथ देता है, मेरा ख़याल रखता है. जलने वाले लोग उसको ‘कलर ब्लाइंड’ कह कर उलाहना देते रहे पर वह मस्तमौला है. उसने अपने घर परिवार तथा छींटाकसी करने वालों की कभी परवाह नहीं की. अब लोग मुझसे इस कारण खौफ खाते हैं कि अब्दुल मेरा रखवाला है.

मेरी भावनाओं को आप समझें या ना समझें इसमें मेरा कोई दोष नहीं है. एक मुझ जैसी स्त्री और लता दोनों ही ऐसे नाजुक बेलड़ी की तरह होते है, जो सहारा देने वाले पर लिपटने को मजबूर होते हैं, चाहे वह सूखे झाड़ हों या कांटेदार वृक्ष. मैं सात जन्मों के काल्पनिक सँसार पर विश्वास नहीं करती हूँ, ना ही मुझे किसी स्वर्ग में जाने की इच्छा है. आमीन.

***

सोमवार, 5 नवंबर 2012

चुहुल - ३६

(१)
एक दार्शनिक व्यक्ति अपने विचारों में कहीं गहरे खोये हुए थे. पत्नी ने झकझोरते हुए पूछा, “अब किस सोच में पड़े हुए हो?”
दार्शनिक बोले, “मैं सोच रहा था कि दुनिया में यदि एक भी बेवकूफ न बचे तो कैसा होगा?”
पत्नी ने झल्लाते हुए कहा, “हमेशा अपने ही बारे में सोचते रहते हो, कभी घर के कामकाज की चिंता भी किया करो.”

(२)
एक कबाड़ खरीदने वाला गली में आवाज देता हुआ जा रहा था. गृहिणी ने आवाज सुनी और खिड़की खोलकर उससे पूछने लगी, “क्या क्या खरीदते हो?”
कबाड़ी ने जवाब दिया, “नया पुराना जो भी आप बेचना चाहती हैं, सब ले लूंगा.”
इस पर महिला ने कहा, “शाम को ५ बजे बाद आना इस वक्त मेरे पति घर में नहीं हैं.”

(३)
गुरू जी संस्कृत पढ़ा रहे थे. उसके बारे में कह रहे थे, "यह देवताओं की भाषा है. इसीलिये संस्कृत को देवभाषा भी कहा जाता है.” वे आगे बोले “हमारे पूर्वज देवता थे.”
इस पर एक लड़के ने प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा, “गुरू जी, मेरे पिता जी तो बता रहे थे कि हमारे पूर्वज बन्दर थे.”
गुरू जी ने शालीनता से उत्तर दिया, “मैं तुम्हारे खानदान की बात नहीं कर रहा हूँ.”

(४)
एक नवविवाहित जोड़ा मधु मिलन के लिए शिमला गया. वहाँ होटल में एक कमरा एक सप्ताह के लिए बुक कराया. मैनेजर ने कमरे का किराया ५०० रूपये प्रतिदिन बताया. उन्होंने किराए के ७ दिनों के ५०० रूपये के हिसाब से सात दिनों के लिए ३५०० रूपये अलग से रिजर्व रख लिए.
सात दिनों के प्रवास बाद जब होटल से चेक आउट का समय आया तो युवक पेमेंट करने के लिए काउंटर पर गया तो मैनेजर ने ६००० रुपयों का बिल बताया. इस पर युवक ने कहा, “आपने किराया तो ५०० रूपये रोज बताया था?”
मैनेजर बोला, “हाँ, सही बताया था. शेष २५०० रूपये आप लोगों के खाने का बिल है”
युवक ने कहा, “हमने खाना तो एक बार भी आपके यहाँ नहीं खाया है.”
मैनेजर बोला, “नहीं खाया तो इसमें गलती आपकी है, खाना तो तैयार था.”
युवक इस दलील से परेशान होकर अपने रूम में गया. पत्नी को मामला कह सुनाया. पत्नी होशियार थी बोली, “चलो मैं उसको हिसाब बताती हूँ.”
काउंटर पर जाकर युवती मैनेजर से बोली, “मैंने भी आपसे १०,००० रूपये लेने हैं.”
मैनेजर बोला, “किस बात के?”
युवती ने कहा, “मुझे छेड़ने के”
मैनेजर बोला, “मैंने कब आपको छेड़ा?”
युवती, “नहीं छेड़ा तो इसमें गलती आपकी है, मैं तो तैयार थी.”
इस प्रकार नहले पर दहला मार कर मैनेजर को शर्मिन्दा किया और तय किराया चुकाया.

(५)
एक किरायेदार तकाजे के बावजूद पिछले ६ महीनों से किराया नहीं दे रहा था. कुल किराया २,००० रूपये प्रतिमाह के हिसाब से १२,००० रुपयों तक चढ़ गया. इस बार वह बड़ी बेतकल्लुफी से आया और मकान मालिक के हाथ में १,००० हजार रूपये रख दिये.
मकान मालिक बोला, “ये तो केवल आधे महीने का किराया है.”
किरायेदार सहजता से बोला, “अरे, रख लीजिए, लक्ष्मी को आते हुए मना नहीं करना चाहिए. मैं पिछले दरवाजे की चौखट निकाल कर नहीं बेचता तो ये हजार रूपये भी आपको नहीं दे पाता.”

***

शनिवार, 3 नवंबर 2012

कटु सत्य

मैं कोई ज्योतिषी या भविष्यवक्ता नहीं हूँ, पर इतना जानता हूँ कि यदि कोई अनाड़ी तैराक किसी गहरी नदी के भंवर में नहाने लगे तो अवश्य ही डूबेगा.

मैं इंदिरा गाँधी के आपद्काल का प्रत्यक्षदर्शी और भुक्तभोगी रहा हूँ. उस काल में अनेक विचारकों व सभ्य नागरिकों ने उसकी तारीफ़ में यह भी कहा था कि “यह अनुशासन पर्व है.” ऐसे नारे भी जगह जगह लिखे मिलते थे कि ‘समय का अनुशासन क्या केवल रेलों के लिए ही है?’ यानि प्रशासन में चुस्ती और पाबंदी का बोध जागृत हुआ सा लगने लगा था. इंदिरा जी और उनके सिपहसालारों को लग रहा था कि इस हथियार से वे जनता को बखूबी हांक सकते हैं. जनसंपर्क वाले कर्मचारियों ने अतिउत्साहित होकर परिवार नियोजनार्थ जो नसबंदी का दौर चलाया वह आम लोगों के लिए भयकारक था. लोग दु:खी हो गए थे और उस व्यवस्था से निजात चाहते थे. अत: सं १९७७ के आम चुनावों में इंदिरा गाँधी की सत्ता का पराभव का कारण बना. ये दीगर बात है कि उसके बाद मोरारजी देसाई की जनता सरकार बिना लगाम के घोड़ों के रथ के सामान चलने के कारण ढाई साल में परास्त हो गयी थी. जब नेतागण जनता के आक्रोश को नहीं समझ पाते हैं या जरूरत ही नहीं समझते हैं तो उनका राजनैतिक पराभव निश्चित होता है.

आज देश में फिर भ्रष्टाचार और निरंकुश मनमाने आर्थिक निर्णय घनघोर घटाओं की तरह उमड़ घुमड़ रहे हैं. जिनके परिणामस्वरूप महंगाई बेलगाम हो गयी है. हर परिवार को मूलभूत आवश्यकता रसोई गैस के दंश को झेलना पड़ रहा है, इससे यह साफ़ लगाने लगा है कि केन्द्र की मौजूदा सरकार के पराभव के लिए यह अकेला कारण ही पर्याप्त होगा.

इस सन्दर्भ में विश्व की आर्थिक मंदी या विकास की बातें कहकर लोगों को सन्तोष नहीं कराया जा सकता है. अब अंदरूनी स्थिति इतनी बिगड़ चुकी है कि कोई भी ‘लालीपॉप’ काम करने वाला नहीं लगता है. केवल सैद्धांतिक अर्थशास्त्र या सांख्यिकी से नैया पार नहीं लग सकती है.

पिछली सदी के पूर्वार्ध में जब इलैक्ट्रोनिक मीडिया वजूद में नहीं आया था, अखबारों को ही मीडिया कहा जाता था. तब एक प्रबुद्ध अंग्रेज विचारक ने कहा था, “Give me the press, I will not care who rules the country.” लेकिन आज तो मीडिया अनेक रूपों में प्रबल हो गया है. टेलीविजन के सैकड़ों चेनल्स हैं, जो प्रतिस्पर्धात्मक तरीकों से पत्रकारिता/पीतपत्रकारिता में हद से बाहर जाकर भी मसलों को उछाल रहे हैं. अदालतों के बजाय बहुधा विवेचन व निर्णय सुनाने लगे हैं. इससे कार्यपालिका और न्यायपालिका कुछ सीमा तक प्रभावित भी होने लगी है.

वर्तमान में केन्द्र सरकार के विरुद्ध आग उगलने वाले राजनैतिक प्रतिद्वंदी पार्टियां/नेतागण नेपथ्य में चले गए हैं और जो मुखर हो रहे हैं, उनमें भ्रष्टाचार को मुख्य मुद्दा बनाने वाले अन्ना समर्थक, रामलीला मैदान में चोट खाए हुए रामदेव योगी, शीघ्र राजनैतिक पार्टी की घोषणा करने वाले अरविन्द केजरीवाल की ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ की टीम तथा जनरल वी.के.सिंह जैसे सरकार से खार खाए हुए प्रभावशाली लोग हैं जो सरकार के लिए कब्र खोदने में दिन रात लगे हुए है.

मेरा दृढ़ विश्वास है कि इन विरोधी हमलों से ज्यादा मारक कारण खाद्य पदार्थों की कीमतों में बेतहाशा बढ़ोत्तरी, पेट्रोल-डीजल रसोई गैस में लगी आग होगी, जो वर्तमान सत्ताधारी पार्टियों के पराभव का निमित्त बनेगा.

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गुरुवार, 1 नवंबर 2012

वफ़ा

जिनकी मूरत दिल में बसी है,
        करीब मेरे है, खुद आ गयी है.
प्यार क्या है जमाने को समझाऊँ क्या?
        इक बदन में दो दो रूह आ गयी हैं.

मिली वो तो संध्या सुबह बन गयी है,
        अभी तक के सफर की थकां मिट गयी है,
खुशी क्या है जमाने को समझाऊँ क्या?
        इक भूले मुसाफिर को मंजिल मिल गयी है.

बेखुदी में मैं उससे घबरा रहा था,
        मिली वो तो वीरां, गुलिस्ताँ हो गया है
मिलन क्या है जमाने को समझाऊँ क्या?
        इक भँवरा कमलनी में कैद हो गया है.
     
जमाने ने उसको बख्शा नहीं है,
        उल्फत का जिसको शऊर आ गया हो,
नशा क्या है जमाने को समझाऊ क्या?
        बिन पिए ही ‘गरचे शरूर आ गया हो.

वफ़ा की शिकायत उनसे नहीं है,
        हीर औ’ शीरी की वो हमसफर हो गयी है,
वफा क्या है जमाने को समझाऊँ क्या?
         परवाने को बचाकर शमा जल रही है.

                          ***

बुधवार, 31 अक्टूबर 2012

'जंगली' दा

स्वर्गीय केशवचंद्र नैठानी बहुत बड़े दिल वाले व्यक्ति थे. ना जाने उन्होंने कितने लोगों की मदद की और अहसान किये, पर किसी को कभी बताया नहीं. वे कहा करते थे, “अगर किसी को कोई आर्थिक मदद दांये हाथ से दी जाये तो बाएं हाथ को मालूम नहीं पड़ना चाहिए.” मैं स्वयं भी उनके अहसानमंदों में से एक हूँ. वे देहरादून के एफ.आर.आई (फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टिट्यूट) में एडमिनिस्ट्रेटिव विंग में बड़े बाबू थे. उन्होंने अपने कई रिश्तेदारों को ही नहीं, गैरों को भी रास्ता बता कर वन विभाग में प्रविष्टि दिलवाई.

नैठानी जी के पहली पत्नी से दो बेटे थे, बड़ा प्रकाश व छोटा विष्णु. तब उनकी बड़ी सुखी गृहस्थी थी. परन्तु जब उनके दोनों बेटे कॉलेज में ही पढ़ रहे थे, तभी उनकी श्रीमती की अल्पकालिक बीमारी से अकाल मृत्यु हो गयी. बाहर वाले, मित्रगण, सब हमदर्दी बताकर रह जाते हैं, लेकिन ४२ साल के विधुर को मानसिक व व्यवहारिक स्तर पर कितनी कठिनाइयां झेलनी होती हैं, यह वही समझ सकता है, जो भुक्तभोगी हो. उम्र के इस पड़ाव पर जब सुन्दर सुगढ़ स्त्री मझधार में छोड गयी तो परिवार को सँभालने की दृष्टि से उनके मन में आया कि जल्दी प्रकाश की शादी कर दी जाये ताकि गाड़ी पटरी पर चलती रहे. उस समय प्रकाश बी.एससी. का छात्र था. उसके लिए उन्होंने कन्या की खोज शुरू कर दी.

केशवचंद्र स्वयं बहुत खूबसूरत, गोरे-चिट्टे व आकर्षक व्यक्तित्व के धनी थे. जब अपने एक निकट सहयोगी के साथ लड़की देखने सहारनपुर के ध्यानी परिवार में गए तो उनसे मिलकर घर के लोग इतने प्रभावित हुए कि लड़की के बाप ने कह डाला, “हम तो अपनी बेटी का व्याह आपके साथ करना चाहते है, बेटे की शादी आप बाद में करते रहना.”

बात गंभीरता से कही गयी थी, नैठानी जी असमंजस में पड़ गए. बाद में मित्रों व संगी साथियों ने उनको इस बारे में प्रोत्साहित किया. इस तरह बेटे के लिए नहीं, अपने लिए एक उन्नीस वर्षीय सुन्दर लड़की ब्याह लाये. इस पर कुछ लोगों ने मजाक भी बनाया, चटखारे भी लिए, पर लोगों का क्या है, कहते रहते हैं.

नैठानी जी बल्लूपुर चौराहे के पास अपने पुश्तैनी मकान में रहते थे. नई दुल्हन ने आते ही अपना कारोबार संभाल लिया. जो चले जाते हैं, उनकी जगह कोई यथावत भर नहीं सकता है, लेकिन यही दुनिया की रीति है.

कालान्तर में उन्होंने प्रकाश व विष्णु दोनों के विवाह भी कराये. वे दोनों इंडियन फोरेस्ट सर्विस में भी आ गए. मैं, विष्णु नैठानी का दोस्त व क्लासमेट था, लेकिन मेरी घनिष्ठता प्रकाश दा से खूब रही. प्रकाश दा मेरी तरह ही साहित्य में भी रूचि रखते थे. 'जंगली' उपनाम से बहुत सी बढ़िया कवितायेँ लिखा करते थे. हम एक दूसरे की रचनाओं का खूब आनन्द लिया करते थे. चूंकि मेरा भी चयन आई.एफ.एस में हो गया था, बाद में कुछ संयोग ऐसे बने कि जब प्रकाश नैठानी उर्फ ‘जंगली’ दा अल्मोड़ा के डी.एफ.ओ. बने तो मैं उनके अधीन ए.सी.एफ (सॉइल कन्जर्वेशन) के पद पर कुछ साल रहा.

उधर केशवचंद्र जी जिनको हम सब ‘बाबू जी’ कहा करते थे, हर दो साल में एक बेटा पैदा करते हुए ६ और भी बेटों के बाप बन गए थे. उनके रिटायरमेंट तक बच्चे स्कूल कॉलेज तक ही पहुँच पाए थे अत: आगे उनके कैरियर की पूरी जिम्मेदारी जंगली दा ही निभाते रहे. वन विभाग की अन्तरप्रान्तीय नौकरी के रहते, मैं काफी समय तक इस परिवार से दूर हो गया था. कुछ सालों बाद बाबूजी की मृत्यु का समाचार मुझे देर से मिल पाया तो मैंने शोक संवेदना भी भिजवाई थी.

समय किस तरह आगे बढ़ता जाता है. यह पता ही नहीं चलता है कि समय भाग रहा है या हम भाग रहे हैं. ठीक उसी तरह जैसे रेल-गाड़ी के अन्दर से हमको पेड़-पौधे व धरती पीछे को भागते महसूस होते है.

प्रकाश नैठानी जब बिहार के चायवासा में कंजरवेटर थे, तभी उन्होंने देहरादून के पौस इलाके बसन्त विहार में एक शानदार घर बनवाया. दुर्भाग्य यह रहा कि उनके रिटायरमेंट के चंद साल पहले उनके साथ एक दर्दनाक हादसा हो गया कि उनका इकलौता बेटा अपने दोस्तों के साथ किसी बरसाती तालाव में नहाने गया था, जहाँ वह डूब गया. पुत्रशोक ने जंगली दा को अन्दर तक आहत कर दिया, वह हर वक्त शराब में डूबे रहने लगे. इसी हालत में जब वे रिटायर हुए तो हम सभी शुभचिंतकों ने उनको अनेक प्रकार से सान्त्वनाएं दी. उनकी श्रीमती यानि प्रभा भाभी का तो बहुत बुरा हाल था. यहाँ आकर आदमी ईश्वर की माया या प्रकृति के सामने लाचार हो जाता है.

उनके सभी छोटे भाई अपनी अपनी योग्यतानुसार नौकरियों में लग गए तथा अपनी अपनी गृहस्थी में व्यस्त हो गए. इस सँसार का ऐसा ही दस्तूर होता है. कभी कभी जरूर बड़े भाई को याद करते होंगे. मैं भी कभी साल दो साल में किसी कार्यवश देहरादून जाता था तो उनसे मिले बिना नहीं लौटता था.

दो साल पहले जब मैं जंगली दा से मिला तो वे बहुत दार्शनिक अंदाज में बातें करने लगे थे. उनकी उम्र भी लगभग ७८ वर्ष हो गयी थी.  शरीर जरूर उनका साथ नहीं दे रहा था, अनेक तरह की व्याधियों ने आ घेरा था. आर्थिक परेशानियां नहीं थी, उन्होंने खूब रूपये कमाए थे, सरकार  के कई विभाग हैं ही ऐसे कि कोई   ईमानदार रहना चाहे  तो बड़ा मुश्किल होता है. अब तो पेंशन भी अच्छी खासी मिल रही थी. उन्होंने एक ड्राईवर-कम-कुक रखा था, जो सपरिवार उनकी सेवा में तैनात रहता था. पैदल चलने में अब जोर आने लगा था इसलिए वे उससे बोले, “चलो आज हमको एफ.आर.आई. परिसर में घुमा लाओ”

परिसर के अन्दर जाते ही बहुत सी पुरानी यादें ताजी हो गयी. हरे-भरे दूब के मैदान, बड़े बड़े छायादार पेड़, सौ वर्ष पुरानी शानदार मुख्य बिल्डिंग, हॉस्टल, लाइब्रेरी, मेस सब जैसे था, लगभग आज भी वैसा ही है. जंगली दा बोले, "कल हम लोग इस कैम्पस को अपना कहते थे. अब सब नए लोग आ गए हैं, अनेक वनकी सम्बन्धी नए विषय भी पढाए जाते हैं. यह अब डीम्ड यूनिवर्सिटी बन गयी है. कैम्पस के अन्दर के मार्गों का नाम आज भी पुराने समय के अंग्रेज अफसरों के नाम पर ही चल रहे हैं. यों घुमते हुए उन्होंने अनेक पुरानी यादों को, बाबूजी की बातों का जिक्र बड़े निराशा भरे अंदाज में किया. वे बोले, “पता नहीं अब और कितने दिन ज़िंदा रहना है!”

वे अपने हार्ट एंजाइना, डाईबिटीज, आँखों के मोतियाबिंद का बार बार जिक्र तो करते थे, पर ईलाज के बारे में कोताही बरतते रहे. दरअसल जीवन के प्रति उनका नजरिया बिलकुल नकारात्मक हो गया था. मैं भारी मन से अपने गृह नगर नैनीताल लौट आया. रास्ते भर जंगली दा की बातें सिनेमा की रील की तरह मेरे मन- मस्तिष्क में घूमती रही.

इस बात को एक साल गुजर गया. इस बीच मैं कोई संपर्क भी नहीं कर पाया. मेरी अपनी भी उम्र अब जीवन के चौथे पायदान पर पहुँच चुकी है, आँखों-कानों से मुझे भी लाचारी सी महसूस होने लग गयी है. मन हुआ कि एक बार फिर से जंगली दा से मिल आऊँ. क्या पता फिर देहरादून जाना हो या न हो?

उनके बंगले के बाहर सड़क पर जब मेरी गाड़ी रुकी तो दूर से ही उनकी छत पर सफ़ेद मरदाना पायजामा व शर्ट सूखते दिखे. मैंने मन ही मन सोचा ‘चलो जंगली दा अभी मौजूद हैं’. घंटी बजाई तो उनके नौकर ने दरवाजा खोला. मैं सीधे बैठक में पहुंच गया. प्रभा भाभी उसी पुराने अंदाज में बैठी हुई पान चबा रही थी, पर माथे पर उनकी हमेशा सजी रहने वाली बड़ी बड़ी बिंदी गायब थी. उनकी बगल में एक दुबली-पतली ६०+ उम्र की महिला भी बैठी हुई थी. मैंने दोनों को नमस्कार किया पूछ लिया, “प्रकाश दा कैसे हैं?” वह उत्तर में रूआंसे स्वर में बोली, “अरे भैया, तुमको खबर नहीं कर पाए, वे पिछले १८ अगस्त को हमें छोड़ कर चले गए हैं.”

बड़ा सदमा लगा, मैंने कहा, “छत के ऊपर मर्दाने कपड़े देख कर मुझे लगा कि भाई साहब अभी मौजूद हैं.” वह बोली, "कपड़े मेरे छोटे देवर के होंगे.” फिर साथ में बैठी महिला का परिचय कराते हुए बोली, “ये मेरी सास हैं.” मुझे बाबू जी के जीवन का घटनाक्रम याद आ गया. उनके सम्बन्ध में पुरानी बातों का जिक्र हुआ. प्रकाश दा होते तो और भी बातें होती. भाभी जी ने बताया कि बाबू जी की ही तरह प्रकाश दा भी बहुत से जरूरतमंदों को गुप्त दान दिया करते थे. विशेषकर विद्यार्थियों को आर्थिक सहायता देते थे. मृत्यु से पहले बहुत सा रुपया नेत्रहीन व मूक-बधिर संस्थानों को देकर गए.

मैं सोचता हूँ कि जंगली दा की उपलब्ध कविताओं को पुस्तकाकार रूप में छपवाऊँ, इन कविताओं में रोमांस है, प्यार है, श्रृंगार है, चाहत है और जीने की तमन्ना है, दुनियाँ उनको इसी रूप में याद करती रहे  उनके प्रति मेरी यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी.

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सोमवार, 29 अक्टूबर 2012

लातों का देव

“जो जहाँ गया है, वहीं रह जाएगा,” घर के दरवाजे पर आकर बड़ी डरावनी कड़कती आवाज में बाबा बोला तो गृहिणी मालती देवी बेहद डर गयी. उसके पति मास्टर आनन्द वल्लभ तब घर पर नहीं थे. दीपावली के दिनों में वह अक्सर अपने यार दोस्तों के साथ तीनपत्ती खेलने व दाँव लगाने में मगन हो जाता था. दो दो, तीन तीन दिनों तक घर नहीं आता था. इस तरह जुए का फड हर वर्ष इस अवसर पर चलता था मानो यह एक सांस्कृतिक विरासत वाला कार्यक्रम हो. जब से पुलिस ने सख्ती की और छापेमारी शुरू की तब से बिलकुल गुप्त स्थान को अड्डा बना दिया है. जुआ खेलना एक लत है क्योंकि लालच में कमाते कम तथा गंवाते ज्यादा हैं. और हार जाना बहुत ज्यादा गम देता है.

बाबा के कठोर वचन सुन कर मालती और घर में मौजूद तीनों छोटे बच्चे सहम कर रह गए. मालिक घर में नहीं था यह समझते हुए वक्त की नजाकत देख कर बाबा ने अपना नाटक और तेज कर दिया. काल भैरव की जयकार करते हुए और अपनी घुँघरू बंधी मोटी, टेढ़ी-मेढ़ी लाठी को बार बार पटक अपनी भिक्षा के लिए हुडदंग किये जा रहा था.

आनन्द वल्लभ एक कॉलेज में प्राध्यापक है और कॉलेज परिसर में निवास है. जहाँ दो-तीन कमरों वाले आवासीय क्वार्टर  बने हुए हैं. इस परिसर में छुट्टी के दिनों के अलावा अन्य दिनों में भी दिन भर चहल-पहल, विद्यार्थियों की धमाचौकड़ी रहती है पर जब छुट्टी हो तो सुनसान बियावान जैसा लगने लगता है. क्वार्टर भी कुछ इस ढंग से बने हैं कि एक घर का हल्ला-गुल्ला दूसरे तक मुश्किल पहुँच पाता है.

मालती देवी ने एक कटोरे में चावल व पाँच रूपये बाबा को देने के लिए निकाले, पर बाबा का अंदाज निराला था वह घमकाते हुए बोला, “तुम्हारे ऊपर कालसर्प दौड़ रहा है. अगर बचना है तो पाँच सौ रूपये निकालो.” गृहिणी और भयभीत हो कर अलमारी में से पाँच सौ रुपयों का नोट निकाल कर ले आई और बाबा को समर्पित कर दिया. बाबा डरी हुई औरत की कमजोरी को भांप गया फिर बोला, “कोई नया कपड़ा भी निकाल अन्यथा यहीं भस्म कर दूंगा.”

बेचारी मालती की समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था. वह हिप्नोटाइज्ड यानि सम्मोहित जैसी हालत में हो गयी. नया कपड़ा तो घर में था नहीं, मास्टर साहब दीपावली पर पहनने के लिए नया चिकन का कुर्ता-पायजामा लाये थे, सो निकाल कर बाबा को दे दिया. बाबा कुछ और बोलता एक बच्चे ने फट से दरवाजा बन्द कर दिया. बाबा आगे बढ़ गया तब कुछ राहत महसूस की. बाद में उसको लगा कि बाबा उसे धमका कर लूट कर ले गया, पर अब क्या हो सकता था?

दोपहर को जब आनन्द वल्लभ भोजनार्थ घर लौटा तो बहुत थका हारा था. परेशान यों भी था कि इस बार वह दो हजार रूपये हार कर आया था. बच्चों ने बाप के घर में घुसते ही ‘बाबा-प्रकरण’ को चुस्ती से कह सुनाया. आनन्द वल्लभ पहले से ही चोट खाया हुआ था, घर से इस प्रकार रूपये और कपड़े लुटने की बात सुनकर मालती पर आगबबूला हो गया कि ‘उसे दो कौड़ी की अकल नहीं है...बाबा के झांसे में आ गयी...बेवकूफी की भी कोई सीमा होती है. आदि आदि."

मालती के पास अपने बचाव में कोई शब्द नहीं थे वह केवल ये कह सकी कि “मैं बहुत डर गयी थी क्योंकि बाबा कह रहा था कि जो जहाँ है वहीं रह जाएगा.”

इस बार इस परिवार की दीपावली बहुत फीकी रही. अगर मास्टर जी जुआ खेलने नहीं जाते तो शायद यह कांड नहीं होता. कहा गया है:-

जहाँ सुमति तहं संपत्ति नाना, जहाँ कुमति तंह बिपति निदाना.

खैर, यह बात आई-गयी हो गयी. कॉलेज स्टाफ में इस कांड पर खूब चटखारेदार चर्चाएं हुई. कुछ ने लानत-मलानत भी की. आनन्द वल्लभ ने सबक लेते हुए संकल्प किया कि भविष्य में इस बदनामी की जड़ जुएबाजी से दूर रहेंगे.

इस घटना के दो महीने बाद वही ढोंगी बाबा फिर एक दिन सुबह सुबह उनके क्वार्टर के बाहर प्रकट हुआ. पिछली बार तो वह काले कपड़ों के ऊपर लाल वास्कट, माथे पर काला कपड़ा, नीचे काली लुंगी पहन कर आया था, पर इस बार आनन्द वल्लभ की पत्नी द्ववारा प्रदत्त चिकन के कुर्ते में था. मालती ने उसे आवाज से ही पहचान लिया. उस वक्त आनन्द वल्लभ भी घर पर ही था. जब मालती ने बताया कि “यह वही बाबा है,” तो आनन्द वल्लभ ने आव देखा ना ताव, बिना कोई वार्ता किये बाबा की घुँघरू वाली लाठी छीन ली और दे दना दन आठ दस वार कर दिये. बाबा की समझ में देर से आया कि ये उसकी पिछली करतूत का ईनाम है. अन्य अध्यापक भी जुट गए, बाबा की अच्छी फजीहत की गयी. रस्सी से बाँध कर थाने पहुंचाने की तैयारी की जाने लगी.

एक अन्य प्राध्यापक ने कहा, “यह बाबा नहीं है, ठग है, ऐसे लोगों ने सन्यासियों को बदनाम कर रखा है. इसकी तलाशी लो.”

बाबा गिड़गिड़ाते हुए बोला, “आपके रूपये लौटा देता हूँ.” उसने अपनी अंटी में से बहुत से रूपये निकाल कर दिखाए और हाथ जोड़ कर छोड़ देने की गुहार करने लगा.

लोगों का कहना था कि "इसका पूरे इलाके में आतंक है, इसे हल्का नहीं छोड़ना चाहिए. बहरहाल आनन्द वल्लभ ने अपने पाँच सौ रूपये नकद व कपड़ों की कीमत पाँच सौ रूपये, कुल एक हजार रुपये वसूलने के बाद दो चार लात घूंसे लगा कर उसे थाने पहुंचाने का इंतजाम कर दिया. उसके बाद वह ठग बाबा दुबारा आस-पास नहीं दिखाई दिया.

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